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साझा कलम: 8 मनीष पाण्डेय

[एक ज़रूरी पहल के तौर पर हम अपने पाठकों से काफल ट्री के लिए उनका गद्य लेखन भी आमंत्रित कर रहे हैं. अपने गाँव, शहर, कस्बे या परिवार की किसी अन्तरंग और आवश्यक स्मृति को विषय बना कर आप चार सौ से आठ सौ शब्दों का गद्य लिख कर हमें kafaltree2018@gmail.com पर भेज सकते हैं. ज़रूरी नहीं कि लेख की विषयवस्तु उत्तराखण्ड पर ही केन्द्रित हो. साथ में अपना संक्षिप्त परिचय एवं एक फोटो अवश्य अटैच करें. हमारा सम्पादक मंडल आपके शब्दों को प्रकाशित कर गौरवान्वित होगा. चुनिंदा प्रकाशित रचनाकारों को नवम्बर माह में सम्मानित किये जाने की भी हमारी योजना है. रचनाएं भेजने की अंतिम तिथि फिलहाल 15 अक्टूबर 2018 है. इस क्रम में पढ़िए मनीष पाण्डेय का लेख. – सम्पादक.]

गन्ने के रस का ठेला

मनीष पाण्डेय

यूं तो सितम्बर का महीना चल रहा था, मगर कैफ़ियत जून की गर्मियों जैसी थी. दिन के वक़्त सूरज ऐसा क़हर ढाता कि कभी कभी ऐसा लगता, जैसे सूरज की किरणें किसी मैग्नीफाइंग ग्लास से छनकर घरती को चूम रही हैं. ऐसे ही एक दोपहर को मैं हरिद्वार स्थित गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय में आयोजित कवि सम्मेलन में शामिल होकर अपने कॉलेज लौट रहा था. उत्तराखंड परिवहन निगम की बस यात्रियों से खचाखच भरी हुई थी. लोग बेतहाशा गर्मीं से पिघले जा रहे थे और अपने हाथ और रुमाल से बहता पसीना पोछने में मसरूफ़ थे. गुरुकुल कांगड़ी से अपने कॉलेज तक का लगभग २० किलोमीटर का सफ़र, किसी आग के दरिया से गुज़रने के माफ़िक चुनौतीपूर्ण मालूम हो रहा था.

बहरहाल जब मैं आधे घंटे के बाद कॉलेज के गेट पर पहुँचा तो बुरी तरह पसीने से तरबतर हो चुका था. गला प्यास के मारे सूख रहा था. मैंने बाक़ी यात्रियों को किनारे करते हुए जगह बनाई और बस से उतरा. बस से उतरकर, मैं सीधा कॉलेज के सामने वाले ढाबे पर पहुँचा. छप्पर के साये में बना ढाबा किसी पुरानी जर्जर झोपड़ी जैसे नज़र आता था. वही चाय, सिगरेट, बंद आमलेट, बंद मक्खन जैसे चलते फिरते नाश्ते की सुविधा मौजूद थी. चूल्हे से थोड़ी दूर पर गन्ने के जूस की मशीन सुबह से देर शाम तक आवाज़ करती हुई चलती रहती थी. मैंने टूटी-फूटी कुर्सी पर फ़टाफ़ट से तशरीफ़ जमाई और दो गिलास गन्ने के रस का आर्डर दिया. जब तक गन्ने का रस तैयार होता, मेरे कुछ मित्र जो पास में ही सिगरेट के धुंए से छल्ले बनाने का करतब कर रहे थे, मुझे अकेला देखकर मेरे पास आए. उन्होंने मेरे कपड़ों (कुर्ते – पायजामे) को देखकर पुछा कि क्या मैं किसी विशेष आयोजन से आ रहा हूँ ? मैंने उन्हें कवि सम्मेलन के बारे में बताया. इतने देर में एक लड़का,जिसकी उम्र तक़रीबन 10 साल होगी अपने हाथ में गन्ने के रस के दो गिलास लेकर मेरे पास आया. उसने मुझे गन्ने के रस के गिलास थमाए और जाने लगा.

इससे पहले वो लड़का जाता, मेरे एक दोस्त ने उसे आवाज़ देते हुए रोक लिया. फिर दोस्त ने उस लड़के को बुलाया और हमारे साथ बैठने के लिए कहा. इसके बाद मुझसे मुख़ातिब होते हुए दोस्त बोला इनसे मिलो पाण्डेय जी, ये है जनाब मोहम्मद सावेज, इन्हें शायरी और फ़िल्मों से बेइन्तहा मुहब्बत है. दोस्त की बात सुनकर मैं चौंका और उस लड़के को गौर से देखने लगा. इतने में एक दूसरा दोस्त बोला पाण्डेय जी, आप इतने लोगों को गाना और शायरी सुनाते हैं. कुछ इस बच्चे के लिए भी हो जाए. मैं दोस्तों की गुज़ारिश ठुकरा न सका और मैंने तरन्नुम में कुछ अशआर पढ़े. सभी को शेर पसंद आए और सबने तालियाँ बजाई. वो लड़का जिसका नाम मोहम्मद सावेज था, मुझे लगातार देखकर मुस्कुरा रहा था. मैंने उसकी तरफ तवज्जो देते हुए उससे कई सवाल किए. छोटी सी गुफ़्तगू से मालूम हुआ कि वह यहीं ढाबे के पीछे वाले खेत में बने दो कमरे के घर में रहता है. घर में माता पिता और छह भाई -बहन हैं. वह घर में सबसे छोटा है,मदरसे में पाँचवी जमात में पढ़ता है और मदरसे की छुट्टी के बाद यही अपने भाइयों के साथ ढाबे पर काम करता है. इसके अलावा उसने बताया कि उसे शायरी, गाने, फ़िल्में बहुत पसंद हैं,अजय देवगन उसके पसंदीदा अभिनेता हैं. बाक़ी पढना उसे अच्छा लगता है. हाँ भारत के और बच्चों की तरह अंग्रेज़ी में हाथ ज़रा तंग है. जब बातचीत पूरी हुई और मैं वापस जाने लगा तो उसने मुझसे कहा कि मैं उससे मिलने आता रहूँ और गाने,शायरी सुनाता रहूँ.

खैर उससे मिलने का वादा करके मैं वापस आ गया. लौटने के बाद मैं पूरी शाम उसके बारे में ही सोचता रहा. मेरे मन में यह ख्वाहिश उठी कि मुझे उसके लिए कुछ करना चाहिए.इसी सब में मुझे ये ख्याल आया की मुझे सप्ताह में दो- तीन दिन,उसे अंग्रेज़ी पढ़ाने जाना चाहिए. बस मैंने ठान लिया कि मैं ऐसा ही करूंगा. मैंने अगले दिन रूड़की जाकर पाँचवी क्लास में पढाई जाने वाली अंग्रेज़ी विषय की पाठ्यपुस्तक खरीदी और सीधा सावेज से मिलने ढाबे पर पहुँचा. मुझे देखते ही सावेज मेरे क़रीब आया और मुस्कुराते हुए बोला भईया आज भी कुछ बढ़िया सा सुना दो. मैंने उससे कहा कि मैं उसे ज़रूर शायरी सुनाऊंगा मगर मेरी एक शर्त है. फिर मैंने उसे अंग्रेज़ी पढ़ाने वाली योजना के बारे में बताया. मेरी बात सुनकर वो फ़ौरन राज़ी हो गया. तय किया गया कि हर मंगलवार और बुधवार मैं उसे अंग्रेज़ी पढ़ाया करूंगा. बहरहाल सिलसिला शुरू हुआ और मैं सप्ताह में दो दिन उसे अंग्रेज़ी पढ़ाने जाने लगा. इस बीच कई नकारात्मक स्वर भी उठे.कुछ दोस्तों ने कहा कि ये मुसलमान लोग दर्ज़न के हिसाब से बच्चे पैदा करते हैं और फिर छोटी उम्र में ही काम पर लगा देते हैं. मेरे इस तरह एक बच्चे को पढ़ाने से कुछ नहीं बदलने वाला. खैर मैंने उनकी बातों को अनसुना किया और सावेज को पढ़ाने जाता रहा.इस बीच सावेज का बड़ा भाई अब्दुल भी मुझसे अंग्रेज़ी पढ़ने आने लगा. उसने भी मदरसे से पढाई शुरू की थी और चौथी जमात आते आते छोड़ दी थी. ये सब होता रहा और २ महीने गुज़र गये.

इसी बीच हरिद्वार में सर्दी का मौसम आ गया.हरिद्वार को लेकर यह मशहूर है कि जितनी चिलचिलाती यहाँ गर्मी होती है,उतनी ही कड़कती सर्दी का भी मौसम होता है.अब कुछ बदपरहेज़ी का असर था और कुछ हॉस्टल लाइफ की बेफ़िक्री थी,मुझे भयंकर खांसी -जुकाम ने अपनी गिरफ़्त में ले लिया. मैं बिस्तर से उठने में भी असमर्थ हो गया. इसके चलते मैं सावेज को पढ़ाने न जा सका. मुझे हर दिन चिंता रहती कि सावेज मेरा इंतज़ार करता होगा. ऐसे ही एक शाम मैं अपने हॉस्टल के कमरे में कंबल ओढ़कर सोया था कि अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई. मैंने जैसे-तैसे हिम्मत करके दरवाज़ा खोला तो सामने सावेज को खड़ा पाया. वह हाथ में स्टील की एक बाल्टी लिए खड़ा था.मैंने उसे अंदर बुलाकर अपने बिस्तर पर बैठाया और उसके आने का कारण पूछा. उसने मुझे बताया की वह मेरा इंतज़ार कर रहा था और इसी बीच उसने मेरे एक दोस्त से मेरे बारे में पूछा. जब उसे और उसके घरवालों को मेरी तबीयत के बारे में पता चला तो उन्होंने मेरे लिए भैंस का गर्म दूध भेजा था. सावेज से यह बात सुनकर मैं बहुत भावुक हो गया. मैंने उससे दूध लाने के लिए शुक्रिया कहा और इस वादे के साथ रुखसत किया की मैं जल्दी ही उसे पढ़ाने आऊंगा. इसके बाद वह पांच दिन तक रोज़ स्टील की बाल्टी में गर्म दूध लाता रहा और मैं सप्ताह भर में ठीक हो गया.

उसके बाद मैंने उसकी ज़िंदगी को लेकर एक कहानी बुनी और उसपे एक शोर्ट फ़िल्म बनाई,जिसे कॉलेज के एक समारोह में प्रदर्शित किया गया.इसका असर यह रहा कि कॉलेज की एक समाजसेवी संस्था पंखुरी ने जो ग़रीब बच्चों की शिक्षा के लिए कार्यरत है,उसने सावेज को पढ़ाने का ज़िम्मा लिया. सावेज भी अचानक मिली तवज्जो और खुद को फ़िल्मी परदे पर देखकर ख़ुश था. अगले तीन महीने,जब तक मेरी बीटेक की पढ़ाई चलती रही मैं सावेज को पढ़ाता रहा. मैं सावेज जैसे बच्चों के लिए क्या कर सका मुझे नहीं मालूम,मगर मेरे प्रयास ने सावेज जैसे बच्चों के मन में एक उम्मीद पैदा कि इस समाज में ऐसे लोग हैं जो उसकी ज़िंदगी और उसके भविष्य की फ़िक्र करते हैं.

 

मनीष पाण्डेय हल्द्वानी के रहने वाले हैं. डिग्री से इंजीनियर हैं मगर रूह से एक कलाकार हैं. लेखन,गायन में सक्रिय हैं. मनीष से meghapandu51@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.  

 

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