कोई भी संस्कृति अपनी भाषा बोली को संरक्षित किये बगैर लम्बे समय तक जीवित नहीं रह सकती. यह बात छोटी आबादी वाली जनजातियों के सन्दर्भ में और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है. अपनी भाषा बोली के प्रति जब तक सम्मान न हो यह कार्य असंभव है. आज उत्तराखंड के धारचूला से एक बेहद उत्साहवर्धक समाचार आया है. Rung Endeavour towards Saving Language
धारचूला के समीप स्थित रं घाटियों में रहने वाले रं समुदाय ने आज यानी 10 जनवरी को अपनी भाषा बोली रं-लो (या रं ल्वो, या रं ल्वू) के सम्मान में पहली बार रं ल्वो दिवस मनाया है. Rung Endeavour towards Saving Language
ज्ञातव्य है कि रं ल्वो की कोई लिपि अब तक तैयार नहीं हुई है. इस कार्य को करने हेतु युवाओं और अध्येताओं को प्रेरित करने के उद्देश्य से नेपाल के रं गाँव छांगरू के निवासी श्री नन्दन सिंह लाला ने एक कोष की रचना की थी.
इस मौके पर धारचूला में एक समारोह आयोजित किया गया. रंल्वो ज्या नाम के इस समारोह में तीनों रं घाटियों – व्यांस, चौंदास और दारमा – के निवासियों द्वारा झांकी का भी आयोजन किया.
इस अवसर पर सत्यवान कुटियाल ने रंल्वो ज्या का संक्षिप्त परिचय देते हुए श्री नन्दन सिंह लाला को याद किया है, जो कि उनके थंमी अर्थात मामा लगते थे.
10 जनवरी को रं कल्याण संस्था धारचूला इकाई के तत्वावधान में मेरे थंमी स्व श्री नन्दन सिंह लाला जी के जन्मदिन पर प्रंथम रं ल्वो दिवस का आयोजन विलुप्त हो रही रं बोली को समृद्ध करने की दिशा में एक सराहनीय पहल है.
रं संस्कृति के मर्मज्ञ सही अर्थों में इसके पोषक और संवाहक स्व श्री जवाहर सिंह नबियाल जी के सहपाठी रहे लाला जी ने श्री जवाहर सिंह नबियाल जी के रं संस्कृति के प्रति लगाव की भावना से अनुप्राणित होकर 1986 में रं लिपि तैयार करने वाले भाषाविद को एक लाख रूपया और इसके प्रचार-प्रसार के लिए दस हजार रूपया व्यवस्थित कर तत्समय धारचूला में आयोजित भव्य समारोह में प्रदान किया.
एक सरल और सहज व्यक्तित्व के स्वामी मेरे थंमी मानते थे कि हमारी बोली में ही हमारी अस्मिता का वास है इसलिए हमारी पहचान को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए बोली को विलुप्त होने से बचाना प्रत्येक रं का दायित्व होना चाहिए. कहते थे यदि हमने अपनी बोली के संरक्षण के लिए यथोचित पुरुषार्थ नहीं किया तो आज हमारी बोली का जो अंश धरातल में दिखाई पड़ रहा है कल रसातल में जाने में देर नहीं लगेगी.
यदि हमको रं ल्वो को पुष्पित और पल्लवित होते देखना है तो “ग्वो मुरालइ रक च्यामो, बिला मुरालइ गुं चमो” (अर्थात बाढ़ के आने से पहले बन्धा और बिल्ली के आने से पहले खिड़की बना लेने चाहिए) की उक्ति को आत्मसात कर सजग रहना होगा.
आज थंमी के मुंह से निकले रं बोली के लिए निकले उदगार को स्मरण कर उनके रं बोली के प्रति पवित्र प्रेम की भावना को नमन करता हूँ. साथ ही थंमी के जन्मदिन को रं ल्वो दिवस के रूप में मनाये जाने पर लाला परिवार अभिभूत है. इस हेतु लाला परिवार रं कल्याण संस्था धारचुला इस समारोह के सफलता की कामना कर ह्रदय की गहराइयों से आभार व धन्यवाद व्यक्त करता है.
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
यह भी पढ़ें: रं समाज का श्यंठंग त्यौहार एवं सभा
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…