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रहस्यमयी झील रूपकुंड तक की पैदल यात्रा – 6

(पिछली क़िस्त का लिंक – रहस्यमयी झील रूपकुंड तक की पैदल यात्रा – 5)

सुबह 4 बजे उठी और सबसे पहले बाहर देखा. आसमान अभी भी खुला है इसलिये तसल्ली हो रही है कि ट्रेक अच्छे से हो जायेगा. मैं किचन टेंट में आयी. तेज भाई ने मुझे एक गिलास सूप और उसके साथ दो राटियाँ खाने के लिये दे दी. उन्होंने कहा – मैंने शाम से ही तुम्हारे लिये रोटी बना दी थी. अभी सूप के साथ रोटी खा के जाओ.

नाश्ता करके मैं किशन भाई के साथ बाहर आ गयी. इस समय कड़ाके की ठंड है. मुझे हिदायत मिली है कि जब तक उजाला न हो मैं साथ में ही चलूँ इसलिये मैं किशन भाई के साथ ही आगे बढ़ी. घुप्प अंधेरे में कुछ भी नजर नहीं आ रहा है. टॉर्च की रोशनी में सिर्फ रास्ता दिख रहा हैं बाँकी सब अंधेरा है. अभी ठंड बहुत है इसलिये मैं अपनी सारी ताकत ठंड झेलने में ही लगा रही हूँ. रास्ता पतला संकरा और पथरीला है जिसके एक ओर पहाड़ियाँ हैं और दूसरी ओर घाटी. ऊपर बढ़ते हुए ठंड बढ़ती रही है और किनारे की पहाड़ियों में हल्की सी बर्फ की चादर भी दिखने लगी.

अब सूर्योदय होने लगा और मेरे बाँयी ओर की चोटियों में सूरज की किरणें अपना जादू बिखेरने लगी. ये सुन्दर नजारा है. मैं कुछ देर इसे देखने के लिये रुक गयी और फिर आगे निकल गयी. उजाला होते ही मैं फिर लापरवाही के साथ अकेले ही आगे बढ़ गयी. आगे बढ़ने के साथ ही बर्फ की चादर बढ़ती गयी और ठंड भी. अब तो चढ़ाई भी बहुत ज्यादा बढ़ गयी है. बर्फ पर पाला जमने से बहुत सख्त हो गयी है जिससे उसमें चलने पर पैर फिसल रहे हैं. फिसलन बर्फ और ठंड लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं. रास्तों में बहने वाले सोतों का पानी भी इस ठंड में जम गया है जो काँच की चमकीली परत जैसा लग रहा है. ऐसी जगहों को पार करने में मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ी.

आगे बढ़ने के साथ रास्ता लगभग गायब हो चला गया. अगर कुछ है तो सिर्फ बर्फ. पीछे से आ रहे किशन भाई ने आवाज देकर मुझे रोका और फिर खुद आगे चलने लगे. थोड़ा डाँटते हुए उन्होंने कहा भी – कहा था न अकेले मत चलना. फिर भी आगे निकल आयी. इतना कह कर अब वो आगे चलने लगे. चढ़ाई बहुत कठिन हो गयी है और मेरे पैर बर्फ में लगभग एक फुट तक धँसे हुए हैं इसलिये सुन्न पड़ गये हैं. ऐसे चलते हुए अब बस एक आंखरी चढ़ाई पार करनी है जो है तो बेहद खतरनाक पर बहुत लम्बी नहीं है इसलिये मैंने थोड़ा रुक के फिर से ताकत जुटाई और एक-एक कदम आगे बढ़ाते हुए इस चढ़ाई को भी पार कर लिया. चढ़ाई पार करते ही मेरी नजरों के सामने बर्फ का मैदान है जिसमें एक मंदिर बना है.

मैं उस मंदिर के पास चली गयी और सामान रख के कुछ देर वहीं बैठ गयी. मेरे हाथ-पैर सुन्न पड़ चुके हैं पर धूप आने से गर्मी का एहसास हो रहा है. सामने हिमालय की विशाल श्रृंखला फैली हुई है जिसके ऊपर बादल तैर रहे हैं. ये मंदिर देवी पार्वती का है जिसमें कुछ पत्थर की मूर्तियाँ रखी हैं. कुछ देर यहाँ बैठने के बाद मैं रूपकुंड की ओर चली गयी. ऊपर से देखने में रूपकुंड बर्फ के कुंड सा दिख रहा है. अब यहाँ इतनी ठंड हो चुकी है कि कुंड पूरी तरह जम चुका है. मैंने किशन भाई से पूछा – अगर मैं कुंड के ऊपर चलूँगी तो क्या बर्फ टूट जायेगी. उन्होंने सख्ती से कहा – नहीं ! टूटेगी तो नहीं पर उसमें पैर मत रखना. ये एक पवित्र कुंड है और हमारी इस पर बहुत गहरी आस्था है.

अब मुझे रूपकुंड की सबसे रहस्यमयी चीजें यहाँ के कंकाल भी दिखने लगे. कंकालों के एक समूह को एक पत्थर के ऊपर रखा है. इसमें एक खोपड़ी है और बाँकी हड्डियाँ. इसके बाद तो मुझे बर्फ के नीचे दबे और भी कंकाल, चप्पल, दांतों के ढाँचे दिखाये दिये. ये सच में बहुत रहस्यमयी है.

इस रहस्य से पर्दा तब उठा जब इन नरकंकालों को सन् 1942 में रेंजर एच. के. माधवाल ने पहली बार देखा. उस समय माना गया कि ये 19वीं सदी की शुरूआत के हैं. सन् 1960 में एक बार फिर इन कंकालों की कार्बन डेटिंग की गयी जिसे पता चला कि ये 12वीं से 15वीं सदी के बीच के हैं जिनकी मौत महामारी या बर्फीले तूफान से हुई. सन् 2004 में भारतीय और यूरोपीय वैज्ञानिकों ने एक बार फिर यहाँ पड़े गहने, खोपड़ी और हड्डियों को इकट्ठा करके इनका अध्ययन किया. इस बार हड्डियों के डी.एन.ए. परीक्षण से पता चला कि इन कंकालों में दो समूहों के लोग शामिल हैं. लम्बे कद के लोग महारष्ट्रीयन ब्राह्मण हैं और छोटे कद के लोग यहीं के स्थानीय निवासी हैं. इन सबकी कुल संख्या 500 के लगभग होगी. खोपड़ियों में मिले फ्रेक्चर को देख के पता चला कि सबकी मृत्यु ओलावृष्टि से हुई और इन ओलों का आकार लगभग क्रिकेट की बॉल जितना रहा होगा. क्योंकि ये जगह हमेशा बर्फ से ढकी रहती है इसलिये ये लाशें इस वातावरण में स्वतः ही संरक्षित हो गयी.

ये सब देखने के बाद मैं नीचे कुंड की ओर चली गयी. यहाँ बर्फ और भी ज्यादा गहरी है. कुंड के पास पहुँच के कुंड में हाथ लगाया तो पानी बहुत सख्त जमा हुआ है. कुंड के बीच से एक तिकोने आकार का पत्थर निकला है जिसके बारे में मुझे बताया गया कि इसे भगवान गणेश का स्वरूप माना जाता है.

कुंड के चारों ओर भी कंकाल बिखरे हुए हैं. कुंड का चक्कर लगा कर मैं ऊपर आ गयी और एक जगह में बैठ गयी. अब मुझे थकावट भी महसूस हो रही है पर खूबसूरत नजारा इसे कम कर रहा है. नीला आसमान और चोटियों के ऊपर बिखरे बादल. गर्मी भी बढ़ने लगी है. अब लौटने का समय भी हो गया.

रूपकुंड के बारे में कहा जाता है कि जब शिव और पार्वती कैलाश की ओर जा रहे थे तो पार्वती को लगा की वो बहुत गंदी दिख रही हैं इसलिये उन्हें स्नान करना चाहिये. वहाँ पानी न होने के कारण शिव ने पानी का कुंड खोद दिया जिसमें पार्वती ने स्नान किया और अपना श्रृंगार किया. इसीलिये इसे रूपकुंड कहते हैं.

(जारी)

 विनीता यशस्वी

विनीता यशस्वी नैनीताल  में रहती हैं.  यात्रा और  फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी पिछले एक दशक से नैनीताल समाचार से जुड़ी हैं.

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