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सड़क की भूख गाँवों को जोड़ने वाले छोटे रास्ते निगल गई

खेतों-बगीचों के बीच से गांव की तरफ जाने वाली पगडंडियों को चित्रकारों और कैमरामैनों की नजर से आपने खूब देखा होगा. हरियाली के बीच जगह बनाते हुए लोगों को उनकी मंजिल तक पहुंचाने वाले ये रास्ते मैंने उनकी कलम और कैमरे की कैद से भी बहुत आगे तक जाते हुए देखे हैं. (Road Hunger ate Villages)

बीते सालों में सड़क की भूख धीरे-धीरे इन्हें निगल रही है. रास्तों के साथ इन पर बिखरी बातें, मीठी यादें और एक पूरी परंपरा का भी अंत हो रहा है. मैंने इन रास्तों को बिल्कुल अपनी स्कूल ड्रेस की तरह महसूस किया है, जिसमें सब एक जैसे दिखते थे.

दो दिन पहले बरम में ऐसे ही रास्ते पर जब नया घर के बूबू के साथ चला तो वे तमाम पगडंडियां याद आ गईं, जहां से मैं कभी गुजरा था. अंधेरा होने के बाद कहीं लैंप तो कहीं पीली रोशनी देने वाले बल्बों के उजाले में टिमटिमाते गांव अलग ही आकर्षण पैदा करते थे. लेकिन गांव से ज्यादा खास थे ये रास्ते. गांवों में तो कुछ चीजों को लेकर भेदभाव दिखता भी था, लेकिन इन रास्तों में सब एक थे. हल्के अंधेरे में पनदा तीन बीड़ी सुलगा कर ठाकुर साहब और गुरु को साथ देता था और तीनों इसके धुंऐ में गुम हो जाते थे. सबके अपने-अपने दुख थे, लेकिन एक धार पार कर लिया जा रहा बीड़ी का स्वाद एक अलग ही उमंग पैदा कर देता था.

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इन रास्तों पर तमाम वे किस्से निपट जाते थे जिनके लिए अब महिला सेल आदि बना दिए गए हैं. खास था इन रास्तों पर बांटे जाने वाला दर्द, जो घर पहुंचने तक आपकी आधी से ज्यादा तकलीफ दूर कर देता था.

इन रास्तों पर जब नदी-नाले उफान पर होते थे तो उनका मतलब हमेशा बाधा नहीं होता था. दुश्मन भी हाथ पकड़कर इन उफनाए नालों को पार कर दोस्त बन जाते थे और फिर रास्ता उन्हें गांव में अपने-अपने घर तक पहुंचाता था.

सड़क की तरह बूबू पैदल और लौंडा गाड़ी में कभी नहीं जाता था, क्योंकि ये रास्ते किसी को इतनी जगह देते ही नहीं थे कि कोई बड़ा और कोई छोटा दिखे. इन रास्तों पर तो शर्माशर्मी ही सही बुजुर्गों का बोझ उठाना पड़ता था. ये रास्ते हैसियत भी नहीं पहचानते थे. सबको कतरा पर चलना पड़ता था. कोई किसी को ओवरटेक करने की कोशिश नहीं करता था. सबकी मंजिल एक हुआ करती थी— गांव, घर और सुकून.

अब तो सड़कों ने गांव, घर और सुकून सब रौंद दिया है. इन सड़कों से तो लोग केवल जाते हैं और फिर सालों बाद लौटते हैं लेकिन रास्तों से जाने वाले शाम को लौट आते थे.

राजीव पांडे की फेसबुक वाल से, राजीव दैनिक हिन्दुस्तान, कुमाऊं के सम्पादक  हैं.

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Sudhir Kumar

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