देयर इज़ ऐन एक्टर हू वांट्स टू बी नोन ऐज़ ए पोएट
एक दूसरा सच भी होता है जो अपराध उसके अन्वेषण और न्याय की पूरी कार्यवाही के बीच कहीं दबा हुआ होता है. इसमें व्यक्ति कभी संस्था की वजह से और अक्सर संस्थाएं व्यक्तियों की वजह से शक़ के घेरे में रहती हैं. व्यवस्था नाम की जो अमूर्त सी चीज़ है वो इन्हीं घेरों का आवरण बनती है. सबसे ऊपर ये आवरण होता है. जो दिखता नहीं पर जिसका असर सबसे ज़्यादा महसूस होता है.
नेटफ्लिक्स पर आ रही सीरीज़ `डेल्ही क्राइम’ सच्ची घटना पर आधारित है. जिस घटना ने दिल्ली से होते हुए पूरे देश को हिला दिया था. निर्भया काण्ड. अपराध जघन्य था. उस लिहाज़ से जनता, खासकर युवाओं का उसके प्रति गुस्सा और विरोध आश्वस्ति देने लायक था. ऐसा लगा था कि एक बड़ा परिवर्तन समाज की सोच और व्यवहार में आएगा. लेकिन जैसा कि अन्य आंदोलनों का हश्र होता है, ये विरोध प्रदर्शन भी मात्र पुलिस या न्यायिक प्रक्रिया की कार्य प्रणाली पर आकर ठहर गया. ये व्यवस्था ही ऐसी है. इसका आवरण आपको धुंए में उलझा लेता है, नीचे आग तक पहुंचना मुश्किल होता है, उतना ही मुश्किल जितना कि दूसरे सच तक पहुंचना.
ये ज़रूर है कि इस घटना के बाद न्याय व्यवस्था में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव हुए. वर्मा कमिटी की बहुत सी सलाहों को माना गया और रेप के प्रावधानों और धारा 354 में बहुत कठोर और सराहनीय बदलाव लाए गए. ये सीरीज़ वहां नहीं जाती. इसका मुख्य प्रतिपाद्य वो एक दूसरा सच है जो आवरण के नीचे रह गया था. वो उस नज़रिए को दिखाती है जिसे पुलिस का वर्ज़न कह सकते हैं. समाज की आंखों में बनी बनाई इमेज से थोड़ा इतर. (थोड़ा नहीं बल्कि बहुत अलग.) इमेज! कई बार बहुत सी जानकारियों का समुच्चय भी इस इमेज को तोड़ नहीं पाता. कारण वही है, आवरण.
हत्यारे ही सूत्रधार हैं ‘सेक्रेड गेम्स’ में
सच्ची घटना पर फ़िल्म बनाना एक तनी हुई रस्सी पर चलने के बराबर होता है. ज़रा सी तथ्यात्मक चूक आपको ‘इट्स जस्ट अ मीडियम ऑफ एंटरटेनमेंट’ वाले एक्सक्यूज़ के बाद भी एक तरफ धकेल कर धराशाई कर सकती है. ज़रा ज़्यादा सच घोल देने पर एंटरटेनमेंट और लोकप्रियता के अभाव की तरफ गिर जाने के खतरे बढ़ जाते हैं. सच ये भी है कि रस्सी के दो सिरे होते हैं आप किधर से चलकर किधर जाते हैं उसपर भी बहुत कुछ निर्भर करता है. ये सीरीज़ बहुत सधे कदमों से तनी हुई रस्सी पर चलते हुए बहुत एकाग्रता से और रिसर्च के साथ बनाई गई है. पुलिस के पास संसाधनों की कमी, स्टाफ के रहने खाने की बदतर स्थितियां, काम के अनिश्चित घण्टे, मीडिया, प्रबुद्ध जनता और जन प्रतिनिधियों का (अनावश्यक) दबाव ऐसे बहुत से मुद्दे हैं जिसे बहुत बारीकी से पकड़ा गया है. अमूमन इन चीज़ों का उल्लेख रचनात्मकता का बहुत गलदश्रु स्यापा बना डालता है, लेकिन यहाँ इस अति से बचा गया है. डीटेलिंग कहीं-कहीं इतनी बारीक है, जैसे कोर्ट में प्रोज़ीक्यूशन काउंसिल का ऐन मौके पर चुप रह जाना, कि ये विश्वास करना मुश्किल लगता है कि इस सीरीज़ के बनने की प्रक्रिया में किसी पुलिसवाले का रोल न हो. हालांकि इसे देखकर भी शायद लोग समझ न पाएं कि केस वर्क आउट करना, अपराधी को पकड़ना और न्यायिक प्रक्रिया द्वारा उसे सज़ा तक पहुंचाना बहुत अलग-अलग भी हो सकते हैं.
स्क्रीनप्ले बहुत कसा हुआ लिखा है कहानी भटकती नहीं बहुत तेज़ चलती है और दर्शक को अपने साथ इंडिया गेट, थाना कार्यालय, कोर्ट और अस्पताल बार-बार ले जाती है लेकिन इतनी सजगता के साथ कि भटकाव नहीं होता. कहानी का सूत्र नहीं छूटता. डायलॉग्स वैसे ही हैं, कम और नपे तुले. मेट्रो के दर्शकों के हिसाब से भाषा अंग्रेजी का भी प्रयोग थोड़ा ज़्यादा है. (तथाकथित) पुलिसिया भाषा का प्रयोग सावधानी के साथ कम से कम किया गया है.
अगर आप रो नहीं सकते तो आपको हंसने का कोई हक़ नहीं
आदिल हुसैन के पास बार-बार होठ सिकोड़ने के अलावा कोई काम नहीं है फिर भी वो कमिश्नर के ओहदे की मैनिपुलेटिव एबिलिटी को दिखाने में सक्षम रहे हैं. अगर कोई वाकई पुलिस की बेबसी को अपने चेहरे, बहुत गहरे तक बेधती ख़ामोश सी आंखों और नपे-तुले संवाद से उजागर करता है तो वो हैं भूपेंद्र सिंह यानि राजेश तैलंग. राजेश बहुत सहज हैं, सशक्त हैं, शानदार हैं. क़ाबिल, ईमानदार और प्रोफेशनल के लगभग असम्भव मिश्रण वाले पुलिसवाले के किरदार को बखूबी निभा पाए हैं. यहाँ क़ाबिल अक्सर ईमानदार नहीं रह पाता, ईमानदार अक्सर हठी और अव्यवहारिक होते-होते अनप्रोफेशनल हो जाता है. तीनों को साधने वाला अक्सर नॉन डी एफ (हाइली टेक्नीकल वर्ड फ़ॉर `नॉट डाइरेक्ट फ़ील्ड’ पोस्टिंग) शाखाओं में स्थापित हो जाता है. ये व्यवस्था ही ऐसी है. अपने रजत-श्याम वर्ण बालों की तरह ही व्यवस्था के इस अंदरूनी काले-सफेद-सलेटी सच को बहुत शिद्दत से उभार देते हैं राजेश.
लेकिन शेफाली शाह! उफ़्फ़! उनकी बड़ी-बड़ी लाल और गीली आंखों को देखकर `दिल धड़कने दो’ फ़िल्म का इन्हीं का एक सीन याद आता है जब वो क्रूज़ में हताशा, गुस्से, खीज और बेबसी में केक मुंह में ठूँसती हैं. उस कैरेक्टर के लिए वो अकेला साइलेंट सा सीन चरम बिंदु था. इस कैरेक्टर के लिए अम्बेसडर की सीट पर दो और लोगों के साथ बैठकर उस रेप विक्टिम को याद करके आंखों का डबडबा जाना. शेफाली आँखों की भाषा गढ़ना जानती हैं. सीरीज़ में हर किरदार अपने निजी और सार्वजनिक जीवन के द्वैत और द्वंद्व को जी रहा है. डीसीपी वर्तिका चतुर्वेदी अपनी पुत्री का इस ब्लडी कंट्री को छोड़कर बाहर जाने के सवाल का जवाब ढूंढना इस सीरीज़ का हासिल है.
थोड़े-बहुत एनालिटिकल ग्लिच हैं जैसे ट्रेनी आई पी एस ऑफिसर का पूरा स्केच गड़बड़ है. या पुरुष मुख्यमंत्री का होना सच से एकदम पलट जाने जैसा है. लेकिन जो सन्देश ये सीरीज़ देना चाहती है उसमें इस बातों से कोई ख़ास नकारात्मक असर पड़ता नहीं. बहुत इशारों में ही सही ये सीरीज़ कहती है कि पुलिस पर बात हो, अपराध नियंत्रण पर बात हो, अन्वेषण पर बात हो तो समग्रता से हो. पूरी न्यायिक व्यवस्था पर बात हो. सामाजिक ढांचे में अपराध की स्वीकृति की बात हो. अपराध के प्रति समाज के प्रत्यक्ष और परोक्ष व्यवहार की बात हो.
`डेल्ही क्राइम’ उस जघन्य अपराध को बार-बार भोगने के लिए देखनी चाहिए. इसे देखना ज़रूरी है. इसलिए नहीं कि हत्या, रेप जैसे सदियों पुराने अपराध हैं तो उनके बरक्स अब नई पीढ़ी के जागरूक आंदोलन भी हैं, इसलिए नहीं कि कानून के लंबे हाथ थोड़ा घूम कर अपराधी की गर्दन तक पहुँच ही जाते हैं, बल्कि इसलिए कि सच का एक दूसरा पक्ष भी होता है जो कि इतना काला नहीं है. कहा न सीरीज़ पुलिस वर्ज़न ऑफ द स्टोरी है. और राजेश तैलंग का प्रदर्शन कारियों के लिए कहा गया एक वाक्य `ये लोग इतनी जल्दी बैनर्स कहाँ से बनवा लेते हैं’ इस वर्ज़न का आप्त वाक्य!
वैसे नेटफ्लिक्स पर इसके पोस्टर में शेफाली बड़ी-बड़ी बोलती आंखों के साथ मौजूद हैं. इतना ही काफी है इसे देखना शुरू करने के लिए!
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अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).
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