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भाबर नि जौंला…

मौसमी परिवर्तनों के चलते आई कठिनाइयां रहीं हों या रोजगार, काम-धाम की तलाश, शीत ऋतु शुरू होते ही परंपरागत पर्वतीय समाजों में हिमालय के वाशिंदे फुटहिल्स पर फैले भाबर में सदियों से ऋतु-प्रवासन करते आए हैं. यहां दिन में अच्छी धूप खिलती है, जंगल, नदी, उपजाऊ धरती . चार-छह महीनों के प्रवास पर आए मनुष्य को इससे ज्यादा क्या चाहिए. वह जंगलों में पशुचारण करता. लगे हाथ ईंधन की लकड़ी इकट्ठा करता. टेंपरेरी बसासतों की काम भर की घेरबाड़ में साग-भाजी, थोड़ा बहुत अनाज की पैदावार भी कर लेता. (Bhabar Ni Jaunla)

हल्के-फुल्के अंदाज में उन्हें ‘घमतपुवा’ भी कहा जाता था. भाबर में वनों के आसपास खत्ते, झाल, टोंगिया प्रत्ययधारी जितनी भी बसासतें हैं, सभी इसी ऋतु-परिवर्तन की लीगेसी हैं.

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नरेंद्र सिंह नेगी जी के ‘भाबर नि जौंला’ शीर्षक से हाल ही में जारी गीत में एक नवविवाहित युगल में इसी बात को लेकर विमर्श चलता है. पति कहता है कि कुछ काम-धाम करने भाबर चले जाते हैं. वहीं पत्नी ‘भाबर नि जौंला’ की टेक लगाए रखती है और यही ठहरने के समर्थन में अपनी कोमल भावनाओं का इजहार करती है—

यहां पहाड़ों पर भारी शीत हो गई है. चार-छह महीनों के लिए भाग्यवान! भाबर चले जाते हैं.

तुम्हारे प्रेम में शीत ऋतु क्या सारी उमर भी यही कट जाएगी हे प्रेमी! यहीं ठहर जाते हैं प्रेमी! भाबर नहीं जाते.

दिन तो धूप तापकर कट जाएंगे शाम को अंगीठी सेंकेंगे हे सुंदरी!

घी चुपड़ी रोटी खिलाऊंगी प्रेम का छौंका लगाए साग में, मीठी-मीठी मनोहारी बातें ओढ़ेंगे-बिछाएंगे.

पुरुष इन रोमानी बातों में नहीं आता. वह जीवन के यथार्थ धरातल पर खरी बातें करते उसे बरजता है और काम की बातें करता है—

तेरी चिकनी-चुपड़ी बातों से पेट नहीं भरेगा हे भाग्यवान! प्रेम की माला जप-जप के जिंदगी नहीं कटेगी, रोजगार खोजेंगे वहां से कुछ कमाकर लाएंगे.

वहीं नवविवाहिता पहाड़ पर ही रुकने को तरजीह देती है और सुझाव देती है कि यहीं खेती करेंगे. किचनगार्डन में उगाई ऑर्गेनिक सब्जी बाजार में बेचेंगे. गाय-भैंस पालेंगे हे प्रेमी! घी-दूध का व्यापार करेंगे.

क्या धरा है उस माळ-भाबर (तराई-भाबर) में, यही कमाएंगे, खर्च करेंगे.

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(गीत का संदेश और प्रासंगिकता इसी अंतरे में समोई हुई है, जहां गीतकार नायिका के मुख से प्रवासन, विस्थापन के बजाय गांव में ठहर वहीं आत्मनिर्भर होने का संदेश देते नजर आते हैं.)

तत्कालीन पुरुष गृहणी को एक बार फिर मनाने की कोशिश करता है—

ग्रीष्म ऋतु ठंडे पहाड़ों में काटेंगे, मौज मनाएंगे घर-गांव में, चातुर्मास (बरसात के सीजन) डांडा-छानियों में रहेंगे. शीतकाल में खिली-खिली धूप वाले भाबर में रहेंगे. वहां बड़े-बड़े हाट-बाजारों में लत्ते-कपड़ों का मोलभाव करेंगे.

(गौरतलब है कि सीमित आमदनी वाला पुरुष, कपड़े खरीदने की नहीं वरन् मोलभाव करने की बात करता है. ऐसे ही स्थलों पर गीतकार की सूक्ष्म संवेदनाएं उभरकर सामने आती है.) (Bhabar Ni Jaunla)

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. ‘काफल ट्री’ के नियमित सहयोगी.

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Sudhir Kumar

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