किसी भी शहर की बाहरी सीमा पर ही अगर मिठाई की दुकानें हों तो शहर की तासीर का अंदाजा लगाने में शायद ही कोई परेशानी होगी.
अल्मोड़ा के साथ कुछ इसी टाइप का वाकया पेश आता है. करबला में पुलिस की बैरियर से शहर की उत्तरी सीमा तक मिठाई की दुकान आपकी नजर से ओझल नहीं होगी.
मिठाई की बात से पहले एक फसक.
हमारे घर में जागेश्वर के पास कदौरी गांव के भैरव दत्त भट्ट आज से कोई पचीस साल पहले काम करते थे. वह जब गांव से आते, तो लगभग चटक, कत्थई बर्फी जिस पर सफेद इलायची दाने चिपके होते थे लाते. इस मिठाई को वह बाल मिठाई और हम काली सफेद बर्फी कहने वाले हुए.
“यह बाल मिठाई है बाबू साहब. हमारे यहां पहाड़ में एक विशेष प्रकार की गाय होती है, जो एक विशेष पहाड़ की विशेष प्रकार की घांस खाकर विशेष प्रकार का दूध देती है (तब हम सोचते थे कि दूध कलरफुल होता होगा), उससे एक विशेष प्रकार का खोया बनता है और उसे विशेष प्रकार के खोए से बनती है यह विशेष मिठाई जैसे बाल मिठाई कहते हैं”.
कुल मिलाकर भैरव दत्त भट्ट अपनी एक सांस में सात बार ‘विशेष’ का विशेष प्रयोग करके हम बच्चों की नजर में ‘विशेष’ बन जाते और हम कई दिन तक दांतों में चिपकने वाली मिठाई का मजा लेते .
अल्मोड़ा आकर जाना की भट्ट जी का वह आख्यान एक विशेष प्रकार की फसक था और कुछ नहीं.
अल्मोड़ा की विविधता में मिठाइयों का विशेष स्थान है. हर दुकान की अपनी विशेषता है, दुकान से ज्यादा दुकानदार की विशेषता है, कुल मिलाकर सब कुछ विशेष है अल्मोड़ा की तरह.
अल्मोड़ा की सबसे प्रसिद्ध मिठाई यहां की बाल मिठाई है जो बिना किसी ज्योग्राफिकल इंडेक्स के पूरे विश्व में प्रसिद्ध है. यूं तो बाल मिठाई पूरे कुमाऊं अंचल में अपनी ठोस आंचलिकता के साथ पाई जाती है, पर अल्मोड़े में यह आंचलिकता वैश्विक स्वरूप लेती है – एक विशेष वैश्विक स्वरूप.
अल्मोड़ा शहर में बाल मिठाई लगभग पचास से अधिक स्थानों पर उपलब्ध होती है. चटख, कत्थई बर्फी पर चिपके मोती से दाने वाली यह मिठाई काउंटर में अलग ही कंट्रास्ट पैदा करती है. इस कंट्रास्ट में इसका मीठापन हद से ज्यादा मीठा हो जाता है.
बाल मिठाई के दो अड्डे विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं – एक जोगा शाह की बाल मिठाई दूसरा खीम सिंह मोहन सिंह की बाल मिठाई. इनमें पहले बाल मिठाई निर्माता इस बात का दावा करते हैं की सन अठारह सौ पैंसठ में पहली बार बाल मिठाई का आविष्कार उनके पूर्वजों द्वारा किया गया.
बाल मिठाई के दो पार्ट होते हैं एक कत्थई रंग की बर्फी दूसरा उसके ऊपर चिपके दाने जिसे बालदाना कहा जाता है.
अमूमन स्थानीय स्तर पर पैदा किए जाने वाले खोए को तब तक घोंटा जाता है जब तक की वह कत्थई रंग ना ले ले. बाल मिठाई का खोया जागेश्वर, शीतलाखेत, लाट, चौँसली, रानीखेत के आस-पास के गांवों में स्थानीय स्तर पर पैदा किये जाने वाले गाय भैंस के दूध से बनाया जाता है जो कि रोजगार पैदा करने का एक बड़ा स्रोत है.
अब बारी बाल दाने की. बकौल बागेश्वर के केशव भट्ट, जो कि पत्रकार और मिठाई विक्रेता का स्थानीय स्तर पर विशेष कॉन्बिनेशन हैं, के अनुसार – “पहले पहल बाल दाना भी पहाड़ पर स्थानीय स्तर पर बनता था इसमें चीनी की चाशनी जिसे बक्खर कहते हैं, में पोस्तदाना मिलाकर बाल दाना तैयार किया जाता था. परंतु कालांतर में वन विभाग द्वारा लकड़ी कटान पर रोक लगाने के कारण निर्माण लागत बढ़ गई, फिर डीजल और केरोसीन की भट्टी पर बालदाना बनाया गया, लेकिन उसमें वह मजा नहीं आया. धीरे-धीरे बाल दाना बनाने का कारोबार रामनगर, काशीपुर, हल्द्वानी, जैसी जगहों पर स्थानांतरित हो गया जहां बिजली चालित भट्टियों में निर्माण लागत कम आने के कारण उत्पादन अधिक तेजी से फैला और वहीं से पहाड़ पर बाल दाने की आपूर्ति होने लगी”.
बाल दाने की भी दो किस्में होती हैं. एक मोटा बाल दाना दूसरा बारीक बालदाना. बारीक बालदाना बनाने में पोस्त दाने की खपत ज्यादा होने के कारण उसकी कीमत थोड़ी ज्यादा रहती है पर उसका स्वरूप अधिक चित्ताकर्षक रहता है.
अल्मोड़ा की बाल मिठाई का डिब्बा भी स्थानीय स्तर पर निर्मित होता है जो कि हल्के लाल रंग में बना होता है. जिस पर स्पष्ट सूचना होती है अल्मोड़ा की प्रसिद्ध बाल मिठाई.
फ्रिज में रखी हुई ठंडी बाल मिठाई खाने वाले के दांतो के लिए एक परीक्षा होती है. दांत टूटने या हिलने का खतरा भी बना रहता है. आज भी लखनऊ और दिल्ली स्थित कुमाऊनी मानस के लिए बाल मिठाई से बड़ा स्नेह का उपहार कुछ नहीं हो सकता है. कभी ले जा कर तो देखिए.
बाल मिठाई के बाद जो दूसरी महत्वपूर्ण मिठाई अल्मोड़ा की मिठाई घरों की शान है उसे सिंगौड़ी कहा जाता है. हरे और सफेद रंग की कंट्रास्ट वाली इस मिठाई को मालू के पत्ते में इस तरह से लपेटा जाता है कि यह आइसक्रीम के कोन की तरह दिखती है. अल्मोड़ा आकर पता चला कि सिंगौड़ी में मावे के स्वाद से ज्यादा पत्ते का क्रेज होता है.
सिंगौड़ी पर्वतीय अंचल की स्थानीय रूप से वैश्विक मिठाई है, बनाने का तरीका बाल मिठाई से थोड़ा भिन्न है. थोड़ा ड्रेस कोड को मानने वाली वैल गेटअप की मिठाई सिंगौड़ी का परिधान या आवरण मालू नामक पेड़ के पत्ते से बनता है. मालू के पत्ते से बनाए गए शंक्वाकार कोन में भरी हुई ताजी मिठाई खाने के बाद सलीके से पत्ते चाटने का मजा मिठाई खाने से ज्यादा महत्वपूर्ण है.
मालू के पत्ते यूं तो साल भर आसानी से उपलब्ध रहते हैं परंतु वर्ष में कुछ समय ऐसा भी होता है जब इसकी उपलब्धता कम हो जाती है तब चूर के पत्ते से काम चलाया जाता है. बकौल केशव भट्ट – “पुराने बुजुर्ग हुक्का पीते खांसते, खंखारते हुए कहते हैं कि बेटा सिंगोड़ी तो टिहरी की हुई – वह टेहरी जो झील में डूब गई” इस प्रकार सिंगोड़ी दो भिन्न सांस्कृतिक मंडलों के बीच हरित परिधान में लिपटे हुए सांस्कृतिक दूत का कार्य करती है जो बाल मिठाई से थोड़ा कम मीठी होती है.
अल्मोड़ा की बाल और सिंगौड़ी के बाद नंबर आता है चॉकलेट बर्फी का. काफी हद तक बाल मिठाई की मौसेरी बहन कह सकी जाने वाली इस मिठाई का आकार ‘घनाकार’ होता है जिस पर बाल दाने नहीं चिपके होते हैं. बाकी निर्माण प्रक्रिया और स्वाद लगभग अगल-बगल का होता है सो इस पर और नहीं क्योंकि जीवन सिंह की दुकान में खेंचुवा दो बजे के बाद नहीं मिलेगा.
अल्मोड़ा में जैसा कि पहले कह चुका हूं कि मिठाई से ज्यादा मिठाई के दुकानदार अधिक प्रसिद्ध है. उनकी प्रसिद्धि का ताज है जीवनसिंह की दुकान और उनका खेंचुवा.
खेंचुवा यूं तो पिथौरागढ़ जनपद के डीडीहाट का मूल निवासी हुआ पर लेखक और खम्सिल बूबू (बूबू माफ करना) की तरह अल्मोड़ा के मोह में फंस गया. खेंचुवा एक विशेष प्रकार की अनगढ़ किस्म की सेमी सॉलि़ड मिठाई है जो बहुत कम दुकानों पर मिलती है, मैदानी इलाकों के बिल्कुल ताजे कलाकन्द की तरह की मिठाई.
इस लिहाज से अल्मोड़ा में दो खेंचुवे प्रसिद्ध हैं – पहला रैमजे इंटर कॉलेज से आगे जीवन शाह की दुकान का खेंचुवा, दूसरा स्टेशन के पास खीम सिंह-मोहन सिंह का खेंचुवा.
अपने खिंचाव के गुणधर्म के कारण इस मिष्ठान का नाम संभवतः खेंचुवा पड़ा होगा ,ऐसा मेरा मानना है. पर खिंचाव ऐसा कि जीवन शाह की दुकान पर दो बजे के बाद खेंचुवा नहीं मिलता. दुकानदार को पता है कि इस खास मिठाई के दीवाने शाम तक आने वाले होंगे. पर नहीं जी! एक बार खेंचुवा खतम तो खतम.
खेंचुवा पर अब और खिंचाव ठीक नहीं इससे ज्यादा खींचा तो टूट जाएगा.
मिठाइयां हर शहर, हर सभ्य समाज और हर गांव घर और दीन दुनियां के बीच खिड़की की तरह होती हैं. मिठाई से लोगों की आदतें, उनकी संस्कृति ,उनका स्वाद, स्वभाव, काफी हद तक उनके विचारों का उद्घाटन संभव है. अल्मोड़ा जैसा ठोस सांस्कृतिक नगर बहुत ज्यादा मिठाइयों को स्पेस नहीं देता. उसकी स्पष्ट वजह खुद अल्मोड़ा ही है जो अपने सॉलिड अल्मुड़ियापन को खाँटी अंदाज में अपनी मिठाइयों के माध्यम से भी प्रकट करता है. अल्मुड़ियों को समझने का एक आसान सा जरिया है यहां की मिठाइयां.
बाल मिठाई हो या सिंगोड़ी हो या खेंचुवा, सब की सब यहां का सांस्कृतिक चरित्र उजागर करने वाली चीज़ें हैं. अंत का परिणाम एक अद्भुत आनंद प्रदान करने वाली ताजी अलहदा किस्म की मिठास होती है जो एक अपूर्व संतुष्टि का एहसास देती है. यही तो अल्मोड़ा है – मीठा और टिकाऊ अल्मोड़ा.
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jisne almora na dekha ho use bhi almora se lagav ho jaaye... behtareen sir
ShUkriya preeti ji
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BHUT SUNDAR SIR
PROUD TO BE A ALMORIYA
बहुत ही रोचक वर्णन।
बहुत ही मीठा वर्णन। जैसे अल्मोड़ा की सड़कों पर घूम रहे हों और मन है कि शोकेस से झांकती हर मिठाई की ओर खिंचा जा रहा हो।
मै पौडी गढ़वाल के सल्ट क्षेत्र का हु तथा ननिहाल अल्मोड़ा जिले के भ्यारी गांव मे है । अल्मोड़ा के लेख आत्मीय लगते है तथा काम काज जिविका के लिए केन्द्र सरकार मे राजस्थान मे निवास कर रहे है , ईश्वर की इच्छा होगी तो शीघ्र अल्मोड़ा आने की इच्छा पुरी होगी ।