उत्तराखंड का परम्परागत परिधान आदर्शतः वहां के वासिंदों की जीवन शैली के साथ ही वहां की प्रजातीय समुदाय की विशिष्ट संस्कृति को भी प्रतिबिंबित करता है. रंगवाली पिछौड़ा उत्तराखंड के कुमाऊं संभाग का एक परम्परागत परिधान है जिसको कोई विशेष धार्मिक एवं सामाजिक उत्सव जैसे परिणय, यज्ञोपवीत, नामकरण संस्कार व तीज-त्यौहार आदि में ओढ़ा जाता है. यह परिधान कुमांऊ की परम्परा को जीवन्त बनाए हुए है और यह यहाँ की सांस्कृतिक पहचान के रूप में मजबूती से जुडा़ हुआ है. रंगवाली पिछौड़ा महिलाओं द्वारा ओढ़ना कुमाँऊनी परिणयोत्सवों में अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि ये शगुन के साथ-साथ वहाँ की विशिष्ट परम्पराओं का भी द्योतक होता है.
उम्र की सीमा से परे रंगवाली पिछौड़ा को कुमाऊं की हर एक महिला, चाहे वो नवयौवना हो या फिर बुज़ुर्ग, द्वारा विशिष्ट अवसर पर ओढ़ा जाता है. शादी-शुदा महिलाओं में इस परिधान का एक विशेष अभिप्राय होता है और यह उनकी सम्पन्नता, उर्वरता और पारिवारिक ख़ुशी का प्रतिरूपण करता है.
रंगवाली पिछौड़ा कुर्मांचल के समृद्ध ट्रेडिशनल कल्चर का एक आदर्श नमूना है. रंगवाली पिछौड़ा सिर्फ दुल्हन का ही प्रतीकात्मक स्वरुप नहीं होता वरन शादी-शुदा महिलाओं के लिए भी विभिन्न सामाजिक एवं धार्मिक उपलक्ष्यों के अवसर पर इसका ओढ़ा जाना एक रीति-रिवाज़ का द्योतक है.
कुमाऊं की रीति-रिवाज़ में प्रत्येक नवयौवना को उसके पाणिग्रहण के शुभ-अवसर पर दी गयी मनभावन पारम्परिक परिधान रंगवाली पिछौड़ा उनके जीवन की एक अमूल्य निधि होती है. यहाँ की परम्परा में प्रत्येक महिला द्वारा ओढी गयी रंगवाली पिछौड़ा उनकी एक उत्कृष्ट अनमोल धरोहर होती है क्योंकि इससे उनके स्वयं के परिणय की अनेको सुखद संस्मरण और स्मृतियाँ जुडी रहती है और यही कारण है कि रंगवाली पिछौड़ा उनके पास आजीवन रहती है. प्रायः प्रत्येक नवयौवना को रंगवाली पिछौड़ा उसके मायके की ओर से भेंट स्वरुप प्रदान की जाती है पर दुल्हन को अपनी ससुराल की ओर से भी यह उसकी सास द्वारा प्रदत्त की जाती है.
पारम्परिक रूप से रंगवाली पिछौड़ा हस्त-निर्मित होता है जिसे वानस्पतिक रंजकों से रंगा जाता है, तत्पश्चात उस पर बूटियां व अन्य आकृतियां हाथों से उकेरी जाती हैं. इनके निर्माण में केवल दो रंग सुर्ख लाल व केसरिया ही प्रयुक्त होते हैं क्योंकि भारतीय सभ्यता में इन दोनों रंगों को मांगलिक माना गया है. सुर्ख लाल रंग ऊर्जा व वैभवमय दाम्पतिक जीवन का सूचक माना जाता है और केसरिया रंग पवित्र धार्मिकता एंव सांसारिक सुखों का द्योतक होता है. इन दो रंगों का संयुग्म महिला को अपने वैवाहिक जीवन में सौभाग्य प्रदान करता है. हालाकि रंगवाली पिछौड़ा एक सामान्य कपड़ा ही होता है पर इसके रूपांकन का आभास एक उत्सवमय प्रतीक प्रस्तुत करता है.
रंगवाली पिछौड़ा एक दुपट्टा या स्टोल होता है जो कि आम तौर पर सफ़ेद मलमल या वायल का कपडा होता है जिस पर पारम्परिक रूपांकन कर उसे नयनाकर्षक, चुम्बकीय और मनमोहक स्वरुप दिया जाता है. रंगवाली पिछौड़ा को पारम्परिक लोक-कला दर्शाते हुवे रूपांकित किया जाता है. सफ़ेद मलमल या वायल के स्टोल को पहले हलके केसरिया/ लड्डू रंग में रंगोया जाता है और उसे रात भर सूखने को छोड़ दिया जाता है, फिर उस पर पारम्परिक लोक-कला को चित्रित किया जाता है. सम्पूर्ण स्टोल पर सुर्ख लाल (क्रिमसन) रंग के असंख्य बूटियों को अंकित करते है. स्टोल के मध्यवर्ती भाग में एक बृहद स्वास्तिक को आलेखित किया जाता है और जिसके चारों वृत्त-खण्डों (क्वाड्रंट्स) पर क्रमशः सूर्य, शंख, घंटी एवं लक्ष्मी को उकेरा जाता है. स्वस्तिक के मध्य में ॐ आलेखित किया जाता है. स्वस्तिक को सिर्फ बूटियों से ही नहीं बनाया जाता वरन इसमें फूल-पत्तों को भी उकेरा जाता है. इन प्रतीकों का एक विशेष महत्व होता है. ये किसी भी स्त्री की सम्पन्नता, उर्वरता और पारिवारिक ख़ुशी को प्रतिरूपित करता है.
पिछौड़ा के मध्यवर्ती भाग में स्थित प्रतीकों के विशिष्ट अभिप्राय होते हैं. स्वस्तिक देवी-देवताओं का प्रतीक होता है जो कि मनुष्य में कर्मयोग की भावना को दर्शाता है जिसकी कि चारों भुजाएं खुशहाली और सम्पन्नता की द्योतक होती है. स्वस्तिक के ठीक मध्य स्थित ओम चैतन्य और आध्यात्मिक अस्तित्व का द्योतक माना जाता है. स्वस्तिक के प्रथम भाग में स्थित सूर्य, पुत्र के सुख और सम्पन्नता को दर्शाता है, द्वितीय वृत्त-खण्ड में स्थित घंटी स्वयं की सम्पन्नता का सूचक होता है तृतीय व चतुर्थ वृत्त-खण्डों (क्वाड्रंट्स) में स्थित शंख व लक्ष्मी क्रमशः धार्मिकता व वैभव का सूचक है.
इस बृहद गूढ़ अवधारणा को चारों ओर से चमकीली किनारी से सुसज्जित किया जाता है. जिसके वास्ते इस अवधारणा को सुनहरे या रजत रंग के चमकीले झालर की किनारी से शोभित किया जाता है जो कि इसे सोने पर सुहागा के स्वरुप को निरूपित करता है. अतः इस परिधान के चारों ओर गोल्डन या सिल्वर कलर के चमकीले किनार इसे अत्यधिक मनभावन व आकर्षक बना देती है.
आजकल पिछौड़ा के बॉर्डर्स को अतिरिक्त साज़-सज्जा देने हेतू बेल-बूटेदार कपड़ों या फूलदार आकृति से अलंकृत किया जाता है साथ ही उनमें एक्सक्लूसिव लुक देने के लिए अतिरिक्त साज़-सज्जा जैसे ऊपरी भूषणों युक्त फूलदार आकृति, विभिन्न किस्मों की छँटाई, ज़री वर्क, मनके या सितारों आदि से भी विभूषित किया जाने लगा है.
किसी तीज-त्यौहार के अवसर या अन्य उपलक्ष्यों पर इस परिधान से सुसज्जित महिलाओं का सामूहिक प्रभाव देखते ही बनता है जोकि दिलों-दिमाग पर अपनी एक विशिष्ट अनुभूति का एहसास कराता है और जिसका सामूहिक प्रभाव विस्मयकारी और अवर्णनीय है. रंगवाली पिछौड़ा कुमाऊं में किसी विशिष्ट पारिवारिक लम्हों जैसे परिणय, नामकरण, यज्ञोपवीत संस्कार व तीज-त्यौहार आदि में ओढ़ा जाता है. यह परिधान कुमांऊ की परम्परा को जीवन्त बनाए हुए है और यह यहाँ की सांस्कृतिक पहचान से मजबूती से जुडा़ हुवा है.
रंगवाली पिछौड़ा का प्रचलन सिर्फ और सिर्फ कुमाऊं में ही है और बाह्य लोग इससे अनभिज्ञ होते हैं हांलाकि बाहरी लोगों को यह विशिष्ट परिधान बहुत लुभाता और आकर्षित करता है. हांलाकि वर्तमान में रंगवाली पिछौड़ा के प्रतिरूप पॉवरलूम निर्मित या कहिये कि डुप्लीकेट ने मार्किट में अपनी घुसपैठ बनायीं हुई हैं. आजकल की तीव्र भागम-भाग वाली ज़िन्दगी में लोगों के पास समय की कमी के चलते विवशतः उन्हें इन रंगवाली पिछौड़ा के प्रतिरूप से ही काम चलाना पड़ रहा है. इस रंगवाली पिछौड़ा के प्रतिरूप से काम तो चल जाता है पर इससे वो निखार नही आता जो कि परम्परागत हस्त-निर्मित परिधान में दिखाई पड़ता है.
मूल रूप से अल्मोड़ा के रहने वाले डा. नागेश कुमार शाह वर्तमान में लखनऊ में रहते हैं. डा. नागेश कुमार शाह आई.सी.ए.आर में प्रधान वैज्ञानिक के पद से सेवानिवृत्त हुये हैं. अब तक बीस से अधिक कहानियां लिख चुके डा. नागेश कुमार शाह के एक सौ पचास से अधिक वैज्ञानिक शोध पत्र व लेख राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय जर्नल्स में प्रकाशित हो चुके हैं.
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पिछौड़ा उत्तराखण्ड का एक पारम्परिक परिधान
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