9 अगस्त कीई सुबह का सूरज निकलता उससे पहले अंग्रेजों ने ‘ऑपरेशन जीरो आवर’ के तहत कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को या तो गिरफ्तार कर लिया या फिर नज़रबंद. आन्दोलन संभालने के बारी अब युवाओं के कंधे पर थी. देश भर में युवा कांग्रेसियों ने जो आन्दोलन छेड़ा वह अभूतपूर्व था पर कुमाऊं में जो हुआ वह रौंगटे खड़े करने वाला था.
(Quit India Movement in Kumaon)
9 अगस्त 1942 को अल्मोड़ा, नैनीताल, गढ़वाल तथा देहरादून जिलों में जगह-जगह जुलूस निकले और हड़तालें हुई. नगरों और कस्बों से निकली आज़ादी की यह गर्माहट अब पहाड़ के गावों की फ़िजा को इस कदर गर्म किया था कि लोगों ने वहां एक प्रकार से ब्रिटिश सत्ता का अस्तित्व मानने से इंकार कर दिया था.
कुमाऊं में अनेक नेता और कार्यकर्ता भूमिगत हो गये और भूमिगत रहते हुये ही अपने-अपने क्षेत्र में आन्दोलन का संचालन करने लगे. पोस्टर, पुस्तिका, पम्पलैट छाप गांव-गांव तक वितरित किये गये. इस बार कार्यकर्ता आगजनी और सरकारी संपत्ति नष्ट करने से भी पीछे नहीं हटे.
(Quit India Movement in Kumaon)
नैनीताल, पौड़ी, पिथौरागढ़ और देहरादून में 9 अगस्त के दिन से शुरु ब्रिटिश सत्ता का यह विरोध दिनों दिन बढ़ता रहा. इस बार गावों में शहादतों का सिलसिला सामने आया. देघाट, टोटासिलंग, खोराकोट, सालम और सल्ट संघर्ष के क्षेत्र थे. 12 अगस्त को चनौदा, 16 को काली कुमाऊं और 25 अगस्त को दरकोट मुनस्यारी में अंग्रेजो भारत छोड़ो का नारा लगा, लोगों ने शपथ ली और अंग्रेजी कानून तोड़ने की अपील की गयी.
आंदोलन के दौरान इस क्षेत्र की सबसे महत्तवपूर्ण घटनाएं सालम क्रांति, सल्ट क्रांति, देघाट गोली काण्ड और बोरारौ में स्वायत्तशासी सरकार की स्थापना थे. अगले दो सालों तक चले इस विद्रोह का दमन अंग्रेजों ने बेहद क्रूरता के साथ किया. पहाड़ के रहने वालों ने गोली खाई, लाठी खाई, सामूहिक जुर्माना झेला पर आज़ादी के लिये आवाज उठाना कभी बंद नहीं किया.
(Quit India Movement in Kumaon)
भारत छोड़ो आन्दोलन और कुमाऊं की भूमिका का सम्पूर्ण इतिहास यहां पढ़ें:
भारत छोड़ो आंदोलन और कुमाऊं के वीर
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