प्रागैतिहासिक काल-
गढ़वाल और कुमाऊँ की पहाड़ियों और उनके तलहटी क्षेत्रों में प्रागैतिहासिक काल के संबंध में अभी तक अधिक कार्य नहीं हुआ है. प्रागैतिहासिक काल इतिहास का वह काल है जिसके संबंध में किसी भी प्रकार के लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं होते हैं. सामान्य शब्दों में कहें तो आदिमानव काल ही प्रागैतिहासिक काल है.
पिछले तीन दशकों में इस क्षेत्र में प्रागैतिहासिक मानव की गतिविधियों के साक्ष्य मिले हैं. उत्तराखण्ड की प्राकृतिक स्थिति आदि मानव के लिये बहुत बढ़िया थी. उसके निवास हेतु यहाँ उपयुक्त गुफाएं शैलाश्रय यहाँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थे. खाने-पीने के लिये जंगली फल और पानी की भी यहां कमी नहीं थी.
अल्मोड़ा में सुयाल नदी के दायें तट पर स्थित लखु-उड्यार के चित्रित शैलाश्रय मध्य हिमालय की पहाड़ियों में खोजे गये पहले प्रागैतिहासिक गुहा चित्र हैं. इनकी खोज महेश्वर प्रसाद जोशी ने 1968 में की थी. इस गुहा में चित्र, स्तर-विन्यास की दृष्टि से तीन रंगों के हैं- सबसे नीचे काला, ऊपर से कत्थई लोहित तथा सबसे ऊपर सफ़ेद. इसका प्रमुख विषय संभवतः समूहबध्द नर्तन है. पशुओं में एक लम्बा पशु और अनेक पैर वाली छिपकली सी दिखायी देती है. इसके अलावा लहरदार रेखाओं और बिंदु समूहों से निर्मित ज्यामितीय चित्रण भी हुआ है.
लखु-उड्यार की खोज के बाद सुयाल नदी के ऊपरी क्षेत्रों कसारदेवी, पेटशाल, फड़कानौली, फलसीमा, ल्वेथाप और पश्चिमी रामगंगा घाटी में महरू-उड्यार में भी चित्रित शैलाश्रय प्राप्त हुये. गढ़वाल में अलकनंदा घाटी में डुंगरी और पिंडर घाटी में किमानी में ऐसे शैलाश्रय मिल चुके हैं. डुंगरी में ग्वरख्या उड्यार के शैलचित्रों का मुख्य विषय पशुओं को हांका देकर भगाना अथवा घेरना हो सकता है. किमनी में खोजे गये शैलाश्रय में मानव और पशु आकृतियाँ अंकित हैं जो हल्के सफ़ेद रंग से चित्रित है.
यमुना घाटी में कालसी के पास, अलकनंदा घाटी में डांग और स्वीत, अल्मोड़ा जनपद में पश्चिमी रामगंगा घाटी और नैनीताल में खुटानी नाला से पाषाणकालीन उपकरण प्राप्त हुये हैं. इनमें पूरा पाषाण से नव पाषण काल तक प्रयोग में लाये जाने वाले उपकरण’ जैसे हथ-कुठार, क्षुर, खुरचनी, छिद्रक, चीरक, छेनी, अनी आदि मिले हैं. इसके अलावा उत्तरकाशी जनपद में डरख्याटी गाँव के टटाऊँ महादेव और चमोली में भेत एवं ह्यूण गाँवों से भी क्रमशः अंडाकार और चपटे प्रस्तर उपकरण मिले हैं जिनकी प्रमाणिकता अभी तक सिध्द नहीं हुई है.
डॉ यशवंत सिंह कठोच की पुस्तक उत्तराखण्ड का नवीन इतिहास के आधार पर
पिछली कड़ी उत्तराखंड का इतिहास – भाग 1
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…
View Comments
Useful information