मूल लेखक – चिंगिज ऐटमाटोव (Pehla Adhyapak Chingeez Aitmatov)
मूल भाषा – रूसी
हिंदी अनुवादक – भीष्म साहनी
पुस्तक परिचय – लवकुश अनंत
यह छोटी पुस्तक संघर्ष, जिजीवषा , मेहनत और लगन का सम्पूर्ण आख्यान प्रस्तुत करती है. दूइशेन, आल्तीनाई और पढ़ने की जिजीविषा रखे छात्रों की संघर्ष कथा है. हमें इस पर गौर करना होगा कि यहाँ के बच्चों में पढ़ने की जिजीविषा विकसित करने का कार्य करता है – दूइशेन और उसने अथक मेहनत से गाँव में शिक्षा की अलख जगाई.
दूइशेन एक सच्चा कम्युनिस्ट है वह ऐसा कम्युनिस्ट नहीं है जो सरकार के खिलाफ नारेबाजी करे, हड़ताल करे, लाल झंडे लहराए और क्रान्तिकारी भाषण दे. वह अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान है. यद्यपि वह स्वयं शिक्षा – पद्धतियों और नीतियों में निपुण नहीं है फिर भी उसने लगन और निष्ठा के बलबूते हमारे समक्ष एक अच्छी नज़ीर प्रस्तुत करता है.
इस छोटे उपन्यास की कहानी कई स्तरों से होकर गुजरती है. दूइशेन जिसके बारे में यह कहानी है. दूसरी है आल्तीनाई सुलैमानोव्ना जो इस कहानी को कहती है. तीसरा वह व्यक्ति जिसे आल्तीनाई यह कहानी बताती है और चौथे हैं हम पाठक जो इस कहानी में डूब जाते हैं.
कुरकुरेव गाँव जो पहाड़ियों के दामन में बसा है आज वहाँ एक स्कूल का उद्घाटन है जिसमें आल्तीनाई आमंत्रित है जो कि एक विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाती हैं, विभाग की संचालिका है और अक्सर अकादमी के काम के लिए विदेश आती जाती रहती हैं. लेकिन इसका वास्तविक हकदार तो दूइशेन है जिसने अल्तीनाई के साथ साथ इस अशिक्षित गाँव के लोगों को शिक्षा दी वही तो सच्चा अध्यापक है, इस गाँव का पहला अध्यापक है. आज दूइशेन डाकिए का काम कर रहा है और तार ला रहा ताकि समारोह में उन्हें समय पर पढ़ा जा सके. इस मौके पर उसे सब भूल गये हैं बस जो नहीं भूली वह है अल्तीनाई. भूलती भी कैसी आल्तीनाई आज जो कुछ भी है वह दूइशेन के प्रयासों का परिणाम ही तो है. पिछली सभी घटनाएँ अल्तीनाई के मष्तिष्क – पटल पर कोलाहल मचाने लगती हैं, यद्यपि वे गाँव में कुछ दिन ठहरने का ख्याल कर आई थी लेकिन उनका समारोह में भी मन नहीं लगता और वे गाड़ी पकड़ स्को की ओर रवाना हो जाती हैं.
वहां से वह पत्र लिखती हैं, जिसमें दूइशेन के संघर्षों, प्रयासों का जिक्र है.
दूइशेन ऐसे गाँव में स्कूल खोलने का स्वप्न लिए था जहाँ लोगों के लिए पढाई और स्कूल जैसे शब्द उनकी कल्पनाओं से परे थे. जहाँ के लोगों का दायरा सीमित होता है – “हम किसान हैं, मेहनत करके जिन्दगी बसर करते हैं, हमारी कुदाल हमें रोटी देती है. हमारे बच्चे भी इसी तरह बसर करेंगे. उन्हें पढ़ने लिखने की कोई जरूरत नहीं है. पढ़ाई की जरूरत होती है अफसरों-अधिकारीयों को, हम तो सीधे-साधे लोग हैं. हमें उलटे-सीधे फेर में नहीं डालो.”(देखें पृष्ठ – 14) दूइसेन का यह सवाल कि क्या आप सचमुच अपने बच्चों की शिक्षा के खिलाफ हैं जवाब अनुकूल न मिलने पर उसके चेहरे का रंग उड़ जाता है. वह कड़क आवाज में उस पर्चे को पढता है जिसमें बच्चों की तालीम के बारे में लिखा गया है, जिसमें सोवियत सत्ता की मुहर लगी है. गाँव वाले शांत सर झुकाए खड़े रह जाते हैं वह धीमी आवाज में कहता है – “हम गरीब किसान हैं… हमें हमेशा रौंदा गया है, हमेशा हमारा अपमान किया गया हैं. अब सोवियत सत्ता चाहती है कि हम आँखे खोलें, पढ़े-लिखे. और इसके लिए बच्चों को पढ़ाना चाहिए.” (देखें पृष्ठ – 15)
दूइशेन पूरी मेहनत करके अस्तबल को स्कूल में तब्दील कर देता है जिसे लोग ‘दूइशेन स्कूल’ कहते हैं. गाँव में घर-घर जाकर बच्चों को एकत्रित करता है और पढ़ाने ले जाता है. अल्तीनाई की चाची उसके पढ़ने के खिलाफ थी लेकिन उनसे मान – मनौव्वल कर किसी तरह राजी कर लेता है. बच्चों को कॉपी, पेन्सिल और तख्ती देता है, पेन्सिल पकड़ना और तख्ती पर लिखना सिखाता है. जितनी भी जानकारी दूइशेन को है वह सब अपने बच्चों को सिखा देना चाहता है. वह बच्चों को शहर के बारे में बताता, लेनिन के बारे में बताता, परिवेशीय गतिविधियों, समुद्रों-जहाजों आदि के बारे में बताता. दूइशेन के शिष्यों में अल्तीनाई सबसे बड़ी थी वह पढने में सबसे आगे भी थी. दूइशेन ने शहर भेजकर पढ़ाने का निश्चय किया था.
सर्दी के मौसम में नाला पार कर स्कूल की ओर जाना दुष्कर हो गया. गाँव वाले चाहते तो थोड़ी मेहनत करके पुल बना देते लेकिन यह कार्य भी बच्चों और दूइशेन ने मिलकर किया. गाँव वाले उसकी इस निस्वार्थ मेहनत का माखौल उड़ाते हैं लेकिन दूइशेन अपनी धुन में मस्त भविष्य की नींव तैयार करने में व्यस्त है.
दूइशेन संघर्ष और प्रयासों के अनेक स्तरों से गुजर रहा होता है. एक तरफ अशिक्षित लोग और उनकी कुप्रथाएं. इसी अशिक्षा के चलते चाची आल्तीनाई का सौदा किसी खानाबदोश से कर देती हैं ऐसे में दूइशेन अल्तीनाई का सहारा बनता है इसके विरोध में उस पर आक्रमण होता है. “उसकी आवाज चीख सी बनकर टूट गयी. उन्होंने दूइशेन का बाजू तोड़ दिया. हाथ को छाती के साथ लगाये, दूइशेन पीछे हट गया, पर वे मतवाले सिरफिरे सांडों की तरह दहाड़ते हुए उस पर टूट गये” “मारो, मारो, सिर पर मारो, जान से मार डालो!” (देखें पृष्ठ -48)
आल्तीनाई को बचाने में दूइशेन स्वयं बुरी तरह घायल हो जाता है. अल्तीनाई को तोकोल यानी दूसरी बीबी बना उस खानाबदोश के घर पटक दिया जाता है. एक काली सी औरत जो उस खानाबदोश की पहली बीबी रहती है उसे हुक्म दिया जाता है कि अपनी सौत को समझाओ. वह काली औरत बिलकुल मूक बनी रही. उसकी आँखें और चेहरा कुछ न अभिव्यक्त करते हुए अल्तीनाई को देख रही थी. उस औरत के भी अपने संघर्ष थे. “ऐसे कुत्ते भी होते हैं जिनकी बच्चों की उम्र में ही कसकर पिटाई होने लगती है. दुष्ट लोग हाथ में आ जानेवाली हर चीज़ से उनका सिर धुनते रहते हैं और उन्हें इसका अभ्यस्त बना देते हैं.” (देखें पृष्ठ – 50)
काली औरत और कुछ हद तक अल्तीनाई की भी यही दशा रहती है. अल्तीनाई जी भर कर अपनी चाची को गालियाँ देती है. पन्द्रह वर्ष की उम्र में अल्तीनाई उस खानाबदोश भेड़िये का शिकार हो जाती है. पारंपरिक और आधुनिक स्वाद के फ्यूजन से भरी पहाड़ी चटपटी चाट
दूइशेन अपने साथियों के साथ आता है और वह अल्तीनाई को ले जाता है. लाल पगड़ी वाला खानाबदोश बांधकर घोड़े पर बिठा लिया जाता है. कोई व्यक्ति तब तक ही शोषित बन कर जीता है जब तक उसे शोषण से बाहर निकलने की परिस्तिथियों का भान न हो जाये और परिस्तिथियाँ बदलते ही वह शोषक के खिलाफ खड़ा हो जाता है. इस घटना को देखकर काली औरत का धैर्य भी जवाब दे गया वह पागलों की तरह लपककर अपने पति के पास आई और उसने उस पर पत्थर दे मारा.
“हत्यारे तूने मेरा खून पिया है, मेरी जिन्दगी बरबाद की है ! मैं तुझे ऐसे नहीं जाने दूँगी.” …लीद, पत्थर, मिट्टी के ढेले जो हाथ लगता वही उठा कर मारती. सैकड़ों गालियाँ और शाप देती (देखें पृष्ठ – 53)
अल्तीनाई को शहर पढ़ने भेजने की तैयारी होने लगी. अल्तीनाई के लिए यह एक कठिन कदम जैसा था मगर आगे का उसका भविष्य इसी कदम पर निर्भर था. दूइशेन भी उसे विदा करने के दौरान बहुत दुखी था लेकिन अपने को मजबूत किए हुए था. “आल्तीनाई, मैं तुम्हें अपने पास से एक कदम भी दूर न जाने देता… पर मैं खुद पढ़ा– लिखा नहीं हूँ. मुझे तुम्हारी शिक्षा में बाधा डालने का कोई अधिकार नहीं है. तुम जाओ, यही बेहतर है…संभव है, तुम सचमुच की अध्यापिका बन जाओ, तब हमारे स्कूल को याद किया करोगी और हाँ संभव है, हंसा भी किया करोगे…” आओ हम विदा लें !” दूइशेन ने उसे बांहों में भरकर उसका माथा चूम लिया. “विदा आल्तीनाई, शुभ यात्रा, विदा प्यारी… डरना घबराना नहीं, हिम्मत से काम लेना.”
आल्तीनाई बड़े स्कूल में दाखिल हुई, शुरू में चीज़ें कम समझ आतीं लेकिन वह मेहनत करती रही ताकि अपने पहले अध्यापक को दिए वचनों को पूरा कर सके.
कुछ दिन दूइशेन से चिट्ठी-पत्री से जुड़ना रहा लेकिन वह भी एक अन्तराल के बाद बंद हो गया. वास्तव में अल्तीनाई और दूइशेन के मध्य वो अकथ रिश्ता पनप गया था जिसे हम प्रेम कहते हैं लेकिन दूइशेन ने अपने और आल्तीनाई के प्रेम को बलिदान कर दिया क्योंकि वह नहीं चाहता था कि आल्तीनाई की पढाई में बाधा पड़े.
वर्ष बीत गये आल्तीनाई ने मास्को में अपना पहला शोध-प्रबंध प्रस्तुत किया. अपनी जन्मभूमि के दर्शन की लालसा लिए गाँव आई. लेकिन दूइशेन वहाँ नहीं मिला. वह फ़ौज में चला गया था.
जब गाँव के फंक्शन में आल्तीनाई मंच पर थी और दूइशेन चिट्ठियां बाँटने आया तो आल्तीनाई को गहरा आघात हुआ. उसे यह महसूस हुआ कि इस सम्मान का असली हकदार वह नहीं अपितु इस गाँव का पहला अध्यापक ‘दूइशेन’ है. आज के नौजवान यह नहीं जानते कि अपने ज़माने में दूइशेन किस ढंग का अध्यापक था. दूइशेन ने ही इस गाँव में स्कूल और शिक्षा की नींव डाली. अल्तीनाई निश्चय करती है कि वह जाएगी और अपने पहले अध्यापक से मिलेगी उनसे क्षमा मांगेगी. और कुरकुरेव वासियों के सामने यह सुझाव रखेगी कि वे नये छात्रावास का नाम दूइशेन के नाम पर रखें.
यह लघु उपन्यास हमें यह बताता चलता है कि एक शिक्षक का सम्पूर्ण कर्त्तव्य क्या है ! कैसे एक अच्छे भविष्य-निर्माण के लिए शिक्षक को नित प्रयासरत रहना चाहिए. एक हद तक ज्ञान का भंडार होना जरुरी है लेकिन यह भी ठीक नहीं कि शिक्षक ज्ञान के बोझ तले दब जाये. दूइशेन सीमित ज्ञान का व्यक्ति है लेकिन उसमें अपने कर्म के प्रति गहरा लगाव और निष्ठा है. वह उतना सब कुछ अपने बच्चों को सिखा देना चाहता है जितना वह जानता है. अपने देश के लिए अच्छे नागरिक तैयार करने का ख़्वाब लिए दूइशेन नित कर्मरत है.
हमारे ज्यादातर अभिभावक और शिक्षक संसाधनों के अभाव की बात करते हैं. दूइशेन यह दिखा देता है कि संसाधनों के अभाव में भी कैसे अपने कार्यों को जारी रखा जाये. एक अध्यापक का यही स्वप्न होता है कि उसके बच्चे अच्छे मार्गों पर चलें, बड़ी कामयाबियों को प्राप्त करें. दूइशेन की आँखों में यही स्वप्न है और वह इसके लिए कठिन मेहनत भी करता है और उसके बच्चे भी कड़ी मेहनत करते हैं. अगर शिक्षक बच्चों के प्रति संवेदनशील होगा, निरंतर संवाद करेगा, बच्चों के घरेलू परिवेश से वाकिफ होगा और उनसे आत्मिक व्यवहार करेगा तो निश्चित ही बच्चों का विश्वास अपने अध्यापक पर बनेगा और उन्हें यह एहसास हो जाएगा कि यह अध्यापक जो कुछ भी कर रहा है उनके भले के लिए ही कर रहा है. तो वह निश्चित ही सीखने को प्रयासरत होंगे. दूसरी बात यह है कि शिक्षक के प्रति समुदाय का नजरिया कैसा है ? अगर किसी गाँव के स्कूल में कोई नया शिक्षक आता है तो समुदाय उससे कैसा व्यवहार करता है? स्कूल के प्रति समुदाय का नजरिया क्या है ? क्या समुदाय स्कूल से अपनत्व रखता है आदि प्रश्न ऐसे हैं जिन पर विचार करना चाहिए. ऐसे में शिक्षक का यही कर्त्तव्य बनता है कि वह अपने कर्म में जुट जाये और बदलाव की नज़ीर प्रस्तुत करे.शिक्षक की जिम्मेदारी इसलिए भी बढ़ जाती है कि आज भी अनेक गांवों में लोग शिक्षा और स्कूल के महत्त्व से अनजान ही हैं.
हमने अपने पूर्वजों, अध्यापकों आदि के संघर्षों को आज भुला दिया है इस किताब के माध्यम से हम उनके संघर्षों की कल्पना कर सकते हैं और उन्हें नमन कर सकते हैं जिन्होंने पहले-पहल हमारे समुदाय को शिक्षा और स्कूल के महत्त्व से परिचित कराया.
लवकुश अनंत अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, पिथौरागढ़ में कार्यरत हैं
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निसंदेह ये चिन्गिज़ ऐतमातोफ की सबसे बेहतर उपन्यसिका में से एक है और दिल के बेहद करीब। मुझे जमिला ज़्यादा पसंद है क्योंकि वो विवहिता नारी के विद्रोह की कहानी है जिसने पितृ सत्तातमक समाज के विरुध जा के अपने प्रेम को चुनने की हिम्मत दिखाई