बटरोही

उत्तराखंड में ओबीसी बिल के निहितार्थ: एक तत्काल प्रतिक्रिया

गलत वर्तनी वाले पंडित, घूंघट वाले ठाकुर, छोटा ‘सा’ वाले बनिये और प्रदेश की ईंट-से-ईंट जोड़ते रहे एससी-एसटी शिल्पकार क्या इस बिल का फायदा उठा पाएंगे?
(OBC Bill Uttarakhand Reference)

जिन दिनों मैं अपनी यूनिवर्सिटी के मुख्य कैंपस का डायरेक्टर था, स्टाफ़ को भेजे जाने वाली सूचनाओं में अपनी ओर से शुद्ध समझ कर ‘पांडे’ वर्तनी लिखता था; मगर बिना किसी विलम्ब के हर बार मेरी एक वरिष्ठ प्रोफ़ेसर हिंदी और अंग्रेजी दोनों में अपने नाम को शुद्ध करके मुझे वापस भेज देती थीं- ‘पाण्डेय’ और ‘Pandey’. इस बहस में पड़ना बेकार है कि इनमें से कौन-सी वर्तनी शुद्ध है और कौन-सी अशुद्ध; मैंने ही अंततः घुटने टेके और एक दिन बाकी लोगों के लिए पहली और उनके लिए दूसरी वर्तनी लिखने लगा.

अगला किस्सा भी मेरे विश्वविद्यालय का ही है. वरिष्ठ अधिकारी के रूप में एक तेज-तर्रार ठाकुर साहब की हमारे यहाँ तैनाती हुई. एक दिन कुछ नाराज लहजे में वह बोले, ‘पहाड़ी ठाकुर खुद की जाति बताने में इतना शर्माते क्यों हैं? कभी अपने को ‘राजपूत’ कहते हैं, कभी ‘क्षत्रिय तो कभी ‘सवर्ण’… मैंने कभी उन्हें अपने लिए गर्व से ‘ठाकुर’ कहते नहीं सुना. इसीलिए वो हम लोगों को ‘घूंघट वाला ठाकुर’ कहते थे.

कुमाऊँ में वैश्यों की नाम-सूचक जाति है, ‘साह’. पुराने लोग सम्मान के साथ अपने लिए ‘सौ-बणी’ (साह-बनिये) पद का प्रयोग करते थे. (आज भी कुछ लोग करते हैं) मगर धीरे-धीरे कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश लोगों ने ‘शाह’ वर्तनी अपना ली है जिसे नेपाल, हिमांचल प्रदेश और गढ़वाल में उच्चकुलीन क्षत्रियों के द्वारा प्रयोग में लाया जाता है.
(OBC Bill Uttarakhand Reference)

अब आइये हिन्दुओं के चौथे वर्ण के नामकरण पर विचार करें. 1887 में जन्मे कुमाऊँ के एक प्रगतिशील समाज-सुधारक  मुंशी हरिप्रसाद टम्टा ने अपने लोगों के लिए एक नया शब्द ईजाद किया ‘शिल्पकार’ जिसे आरक्षण का लाभ प्रदान किया गया. बाद में खुद को ठाकुर/राजपूत समझने वाली कुछ सीमान्त जातियों को भी आरक्षण का लाभ प्रदान किया गया और ये सब मिलकर आज नए उत्तराखंड की ईंट-से-ईंट जोड़कर पूरे मन से नव-निर्माण के कार्य में जुटी हुई हैं.

टम्टा जी का जिक्र आ गया है तो कुछ चर्चा राजनीति की भी होनी ही चाहिए. माननीयों के लिए इन दिनों ‘दा’ संबोधन खूब लोकप्रिय हो रहा है, जैसे भगत-दा और हर-दा. वैसे संस्कृति के क्षेत्र में शेरदा, गिर्दा, नेगीदा जैसे विशेषण भी चल पड़े हैं मगर ये वास्तव में सम्मान-सूचक हैं; हमारे दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों के आधे नाम के साथ लगने वाले ‘दा’ शब्द की तरह नहीं, जिनसे बहुधा सम्मान की अपेक्षा व्यंग्य की बू आती है.

सवाल यह है कि यह शब्द उत्तराखंड के बाकी मुख्यमंत्रियों के लिए क्यों प्रयुक्त नहीं होता? संभव है, वर्तमान मुख्यमंत्री के लिए इसका प्रयोग इसलिए न किया जा रहा हो क्योंकि वो उम्र में ‘भुला’ हैं, मगर यहाँ भी तुरंत शॉर्टकट अपना लिया गया है. एक नया शब्द गढ़ लिया गया, ‘भगतदा का चेला’. भाषा-विज्ञान के लिहाज से यह पद सचमुच शोध का विषय है: अपने अभिधार्थ में भी और निहितार्थ में भी. आशा है उत्तराखंड के बेरोजगार शोधार्थियों के सामने इससे संभावनाओं के द्वार खुलेंगे.
(OBC Bill Uttarakhand Reference)

मुख्यमंत्री की बात छिड़ ही गई है तो उस सिरफिरे आदमी की किस्मत के तार छेड़ देने में कोई हर्ज नहीं है जिसने कई बार नया इतिहास रचने की असफल कोशिश की. सिरफिरा इसलिए कह रहा हूँ कि अनेक बार हार जाने के बावजूद वह फिर से तन कर खड़ा हो जाता था और बुढ़ापे में भी अपने रौखड़ों, गाड़-गधेरों और कुलदेवता के मंदिरों की बीहड़ चढ़ाई में दौड़ लगाने से बाज नहीं आता. आज इस उम्र में भी नहीं. मगर इससे परेशान होने की जरूरत नहीं है. अगर उन्हें इसी पलायन-शापित झाड़-झंखाड़ में दिन गुजरने में मजा आता है तो कोई और क्यों परेशान हो! जिन्दगी के जो दिन बचे हैं उन्हें अपनी मर्जी से जीने की सहूलियत देने में क्या हर्ज है. देखिये, मोदीजी के ओबीसी बिल वाले आरक्षण की बात तो उनके लिए दूर की कौड़ी है, फ़िलहाल उन्हें एक और मौका देने में हर्ज ही क्या है?

उनके सिरफिरेपन का सबसे बड़ा सबूत यह है कि एक दिन उन्हें इलहाम हुआ कि उनके प्रदेश का एक राज्यगीत होना चाहिए. इसके लिए उन्होंने अपने ही जैसे सिरफिरे, इन पंक्तियों के लेखक को राज्यगीत समिति का अध्यक्ष नियुक्त कर डाला. फिर क्या था, प्रदेश की दसों दिशाओं में हलचल मच गई. एक वरिष्ठ पत्रकार ने इस मौके पर अपने पाक्षिक अख़बार में राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान निर्माताओं का तक आह्वान कर डाला: ‘कहाँ हो रवीन्द्र और बंकिम, आओ, उत्तराखंड के लिए राज्यगीत लिखा जा रहा है, इस नौनिहाल राज्य की मदद करो.’

ऐसा नहीं है कि समिति में अनुभवहीन कवि-लेखक और संस्कृतिकर्मी थे, मुझ जैसे विवादास्पद लेखक को छोड़ भी दें, गढ़-रत्न की उपाधि से अलंकृत मधुर कंठ के बेजोड़ गायक नरेंद्र सिंह नेगी समिति के सह-अध्यक्ष थे और प्रदेश के हर कोने से चुने गए दस-बारह वरिष्ठ संस्कृति-कर्मी शामिल थे. रंगकर्मी जहूर आलम से लेकर कवयित्री दिवा भट्ट और नीता कुकरेती, स्व. हीरा सिंह राणा, स्व. रतन सिंह जौनसारी वगैरह तमाम नामी-गिरामी लोग. सब लोगों के सम्मिलित प्रयास से निर्मित गीत को आकार दिया नैनीताल के ‘देवकीनंदन पांडे’ समझे जाने वाले हेमंत बिष्ट ने और संगीतबद्ध किया ‘नेगीदा’-नरेंद्र सिंह नेगी ने.
(OBC Bill Uttarakhand Reference)

गीत पर कोई टिप्पणी करने का यह मौका नहीं है. मैं भी अब बूढ़ा हो गया हूँ, इस उम्र में खामखाह अपने लिए झिमौड़ों का पूला आमंत्रित नहीं करना चाहता. हालाँकि हम लोगों में से किसी ने भी अपने इस परिश्रम के लिए कोई पारिश्रमिक नहीं लिया, मगर उन लोगों का मैं जरूर शुक्रगुजार हूँ, जिनकी कृपा से यह अद्भुत संगीतबद्ध गीत-रचना इसके कल्पनाकार की तरह समय-चक्र के ब्लैकहोल में गुड़प्प होकर रह गई. शायद यही इस प्रदेश की नियति का कड़वा सच है कि कोई भी संभावनाशील सिर धरती के गर्भ से अंकुरित होने की कोशिश करता है तो अपने ही लोगों के द्वारा उसे उसी जगह पर तत्काल दफन कर दिया जाता है. सारे सिरों को एक-के-बाद क़त्ल कर दिया जायेगा तो कब तक उस बंजर धरती पर नयी पौध अंकुरित होगी? एक दिन तो उसे ऊसर होना ही है.  

जिन्दगी के इस आखिरी मोड़ पर बार बार यह बात मन को घेर लेती है कि इस अभागे प्रदेश के गर्भ में से युग-युगों से जाने कितनी जातियां और सम्प्रदाय अंकुरित होते रहे हैं, आज भी हो रहे हैं, मगर हमारी इस धरती की तो कभी कोई जाति नहीं रही. न चातुर्वर्ण, न मनुवादी और न ओबीसी. ऐसा क्यों है कि किसी भी मुद्दे पर थोड़ी-सी भी हलचल होती है तो सारे लोग एकजुट होकर उसे ध्वस्त करने में जुट जाते हैं.

यह झूठ है कि यहाँ के मूल निवासी गलत वर्तनी वाले पंडित, घूंघट वाले ठाकुर, छोटा ‘सा’ वाले बनिये और प्रदेश की ईंट-से-ईंट जोड़ने वाले एससी-एसटी शिल्पकार हैं. इन सभी लोगों ने, जिनमें नए लोग जुड़ते चले गए, इस धरती को रहने लायक बनाया है. आज वह जैसी भी है, इन्हीं लोगों की कोशिशों से बनी सुन्दर रचना है, इसे उसमें रहने वाले लोग ही नहीं संवारेंगे तो कौन-सी बाहरी ताकत ऐसा कर पायेगी?

क्या लोकसभा में इतने भारी मतों से पारित बिल का फायदा इस प्रदेश के वासियों को मिल पायेगा? बाकी तो भाई, मोदीजी जानें या हरदा; हमारे लिए तो दोनों आदरणीय हैं. एक हमारे हरदा हैं और दूसरे हमारे मोदीजी. दोनों चिरजीवी हों.
(OBC Bill Uttarakhand Reference)

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘

फ़ोटो: मृगेश पाण्डे

 हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन. 

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

इसे भी पढ़ें: इंदु कुमार पांडे: नौकरशाह नहीं, नौकरी-पेशा सदाशयी इन्सान

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

नेत्रदान करने वाली चम्पावत की पहली महिला हरिप्रिया गहतोड़ी और उनका प्रेरणादायी परिवार

लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…

1 week ago

भैलो रे भैलो काखड़ी को रैलू उज्यालू आलो अंधेरो भगलू

इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …

1 week ago

ये मुर्दानी तस्वीर बदलनी चाहिए

तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…

2 weeks ago

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

2 weeks ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

3 weeks ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

3 weeks ago