नेपाल में कालापानी क्षेत्र को लेकर भारत के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों के बीच चीन पर भी नेपाल ने उसकी जमीन पर अतिक्रमण करने का आरोप लगाया है. नेपाल में चीन की विस्तारवादी नीति और उसके बढ़ते दखल के खिलाफ आवाज उठने लगी है. सबसे पहले गत 12 नवम्बर 2019 को नेपाल में अनेक स्थानों पर विरोध प्रदर्शन हुए . लोगों ने प्रदर्शन के दौरान चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के पुतले जलाए. प्रदर्शनकारियों ने ” चीन वापस जाओ ” के नारे लगाए. उन्होंने चीन द्वारा नेपाल के 36 हेक्टेयर जमीन को वापस करने की मांग की, जिस पर चीन ने कब्जा किया हुआ है. प्रदर्शन के दौरान लोगों के हाथों में चीन विरोधी पोस्टर थे. नेपाल की जमीन पर चीन के कब्जे को लेकर लोगों में बहुत गुस्सा है. वे इस बारे में चीन से दो टूक बात करने के लिए नेपाल सरकार पर दबाव डाल रहे हैं. (Nepal Accuses China of Territorial Encroachment)
इसके बाद से नेपाल के अनेक शहरों में चीन के विरोध में प्रदर्शन हो चुके हैं. चीन विरोधी इन प्रदर्शनों में ” चीन वापस जाओ ” के नारे ही लगाए गए हैं. चीन के विरोध में ये प्रदर्शन नेपाल के सर्वे विभाग की एक रिपोर्ट के बाद हुए हैं.
उल्लेखनीय है कि नेपाल के सर्वे विभाग की पिछले दिनों एक रिपोर्ट जारी हुई है. जिसमें कहा गया है कि चीन ने सीमावर्ती क्षेत्रों में नेपाल की 36 हेक्टेयर से अधिक भूमि पर अवैध तौर पर कब्जा किया हुआ है. सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, चीन ने नेपाल के हामला जिले में भगदारे नदी के पास लगभग 6 हेक्टेयर और करनाली जिले में 4 हेक्टेयर जमीन पर कब्जा कर लिया है. जिसे वह अब तिब्बत का हिस्सा बता रहा है और उस जमीन को खाली करने को तैयार नहीं है. इसी तरह संजेन नदी और जाम्भू खोला में भी उसने 6 हेक्टेयर से अधिक जमीन पर कब्जा कर लिया है. जिसे वह दक्षिण तिब्बत का हिस्सा बता रहा है. अपने मानचित्र में भी चीन ने इन क्षेत्रों को तिब्बत का हिस्सा दिखाया है.
चीन एक ओर नेपाल की भूमि पर अतिक्रमण कर रहा है, दूसरी ओर अपने आर्थिक हितों के लिए नेपाल में भारी निवेश करने की नीति पर भी चल रहा है. गत 13 अक्टूबर 2019 को चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने नेपाल की यात्रा की थी और नेपाल के ढांचागत विकास के लिए पूरी उदारता के साथ 3,430 करोड़ रुपए की वित्तीय मंजूरी भी दी जिससे नेपाल व चीन के द्विपक्षीय सम्बंधों को मजबूती मिलनी स्वाभाविक है. साथ ही इससे नेपाल में भारत विरोधी भावनाओं के बढ़ने की भी आशंका है. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपनी नीति से भारत के पड़ोसी नेपाल को भारत से नीतिगत तौर पर दूर रखने की नींव रखने की कोशिश की है. वे पिछले दो दशकों में नेपाल की यात्रा करने वाले चीन के पहले राष्ट्रपति थे. इस दौरान नेपाल व चीन के बीच कई करार हुए. नेपाल में चीन का बढ़ता दखल भारत के लिए भी चिंता की बात है.
नेपाल में चीन के बढ़ते राजनैतिक दखल पर वरिष्ठ पत्रकार केएस तोमर कहते हैं कि जिनपिंग की यात्रा के दौरान नेपाल के अखबार उनके देश की चीन समर्थक भावनाओं से अटे हुए थे. नेपाल की मीडिया ने उस समय चीन के राष्ट्रपति के हवाले से एक चीनी कहावत का जिक्र किया था – “ज्वाला तभी तेज होती है , जब उसमें हर कोई लकड़ी डालता है. अब इसमें सहयोग करने की बारी नेपाल की है.” उस समय नेपाल की राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी ने भी कहा था कि नेपाल वन चीन पॉलिसी पर यकीन करता है. हम अपनी जमीन पर चीन विरोधी किसी भी तरह की गतिविधि नहीं चलने देंगे. उनका स्पष्ट इशारा तिब्बतियों की ओर था. चीन के राष्ट्रपति का वह नेपाल दौरा भारत आने के तुरन्त बाद हुआ था.
के. एस. तोमर आगे कहते हैं कि नेपाल के सम्बंध में हमारी दशकों पुरानी विदेश नीति पर निगाह डालें तो पता चलता है कि पहले कांग्रेस की क्रमिक सरकारों और अब एनडीए की सरकार के समय भारत के पास नेपाल से निपटने का कोई व्यवहारिक व यथार्थवादी दृष्टिकोण रहा ही नहीं. नेपाल ने हमेशा भारत के बड़े भाई वाली भूमिका का विरोध किया और इसी वजह से वहां पिछले कुछ वर्षों में भारत विरोधी भावनाओं ने जन्म लिया. चीन तीन कारणों से दक्षिण एशिया में भारत के छोटे पड़ोसी देशों को आकर्षित करने की कोशिसों में लगा है. पहला , कुछ सामरिक कारणों से महत्वपूर्ण है. नेपाल की सीमा तिब्बत के क्षेत्रों से लगी हुई है जिस पर चीन का कब्जा है और जो अपेक्षाकृत बहुत शान्त है. इसके बाद भी चीन को हमेशा यह आशंका रहती है कि तिब्बती राष्ट्रवाद कभी भी जोर मार सकता है. दूसरा, नेपाल इस क्षेत्र में भारत के साथ संतुलन स्थापित करने का अवसर देता है. नेपाल के भारत के साथ पिछले कुछ वर्षों से उतार-चढ़ाव वाले रिश्ते रहे हैं. जिसकी वजह से बीजिंग को काठमांडू एक साझेदार के तौर पर दिखाई देता है.
तीसरा है , बेल्ट और रोड परियोजना के कारण चीन के हित नेपाल से जुड़े हुए हैं. जहाँ उसने श्रम और पूँजी का निर्यात किया है. चीन नेपाल के साथ कई परियोजनाओं पर बात भी कर रहा है. जिनमें ल्हासा और काठमांडू के बीच रेल मार्ग बनाने, संसद भवन का निर्माण करने और एक राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय की स्थापना करना शामिल है. चीन के साथ साझेदारी बढ़ाने में नेपाल के अपने हित हैं. ऐसा करने से भारत को नेपाल की ओर अधिक ध्यान देने को मजबूर होना पड़ेगा. वरिष्ठ पत्रकार तोमर कहते हैं कि भारत ने जब 2015 में नेपाल की कथित तौर पर नाकाबंदी की तो उसके बाद ही वहॉ भारत विरोधी भावनाएँ और मजबूत हुईं. चीन ने जिस तरह से नेपाल के साथ अपने सम्बंध मजबूत करने की ओर कदम बढ़ाए हैं, वे भविष्य में भारत के लिए सुरक्षा सम्बंधी परेशानियां बढ़ा सकते हैं जो भारत के लिए बड़ी चुनौती के तौर पर सामने आ सकता है.
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काफल ट्री के नियमित सहयोगी जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं. अपने धारदार लेखन और पैनी सामाजिक-राजनैतिक दृष्टि के लिए जाने जाते हैं.
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