देश की आजादी के पांच महीने बाद, जनता के शासन की मांग करना और इस मांग के लिए शहादत होना, सुनने में कुछ अजीब सा लगता है. लेकिन उत्तराखंड की तत्कालीन टिहरी रियासत में 11 जनवरी 1948 को दो नौजवानों-नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी की शाहदत, रियासत में राजशाही से मुक्ति और जनता का शासन स्थापित करने के लिए हुई. देश में आजादी की लड़ाई दो मोर्चों पर लड़ी जा रही थी. एक तरफ अंग्रेजी राज से मुक्ति पाने की लड़ाई थी और दूसरी तरफ राजे-रजवाड़ों की रियासतों में इनके जुल्मी राज से निजात पाने का संघर्ष था. अंग्रेजों से मुक्ति तो 15 अगस्त 1947 को मिल गयी पर टिहरी रियासत के भीतर अंग्रेजों के चले जाने के जश्न से ज्यादा राजा के दमन से मुक्ति पाने की तीव्र खदबदाहट थी.
(Nagendra Saklani Molu Bhardari)
30 मई1930 में वर्तमान उत्तरकाशी जिले के रंवायीं क्षेत्र में तिलाड़ी में अन्यायी वन कानूनों के खिलाफ सभा करता हुए लोगों का कत्लेआम हुआ. तिलाड़ी के मैदान को तीन तरफ से शाही फ़ौज ने घेरा,जो हिस्सा फ़ौज ने नहीं घेरा था, वहाँ यमुना नदी बह रही था.मैदान में इकठ्ठा हुए लोगों के पास दो ही विकल्प बचे या तो राजा की फ़ौज की गोलियों से मरें या फिर यमुना में कूद कर.इस तरह टिहरी रियासत ने तिलाड़ी में अपना लोकल जलियांवाला बाग़ कांड रच कर,जुल्म करने के मामले में अपने औपनिवेशिक प्रभुओं की बराबरी करने की कोशिश की. 25 जुलाई 1944 को 84 दिन के अनशन के बाद श्रीदेव सुमन की शहादत हुई,जो कि राजा के अधीन उत्तरदायी शासन की ही मांग कर रहे थे.
इन बलिदानों के बीच टिहरी रियासत के अन्दर जनता पर राजशाही का दमन जारी रहा.अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो दूर की कौड़ी थी. शांतिपूर्ण सभा,जुलुस प्रदर्शन आदि का अधिकार राजदरबार में बंधक था.नाममात्र की खेती पर भी राजा की तरफ से भारी कर थोप दिए गए थे. दलदली और ढलवां भूमि जिस पर बमुश्किल ही खेती हो पाती थी,उस पर भी 75 से 80 रुपया कर लिया जाता था. जिन क्षेत्रों में आलू उत्पादन अच्छा होता था,वहां इसे बेचने का अधिकार राजा ने आलू सिंडिकेट को दे दिया था. आलू सिंडिकेट वाले किसानों से बेहद मामूली दामों पर आलू खरीदते और उन्हें बाहरी प्रदेशों में ऊँचे दामों पर बेच कर भारी मुनाफा कमाते थे. किसानों पर होने वाले जुल्म के विरुद्ध दादा दौलतराम और नागेन्द्र सकलानी के नेतृत्व में किसानों के संघर्षों को संगठित किया गया. नागेन्द्र सकलानी युवा थे.देहरादून में हाई स्कूल तक की शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही वे कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आये थे. टिहरी लौटने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से वे राजशाही के विरुद्ध चलने वाले आन्दोलनों में ना केवल शरीक हुए बल्कि उन्हें संगठित करने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी. डांगचौरा के किसान आन्दोलन में काफी समय तक पुलिस को छकाते रहने के बाद उनकी गिरफ्तारी हो सकी थी. उसके बाद लम्बे अरसे तक राजा की आतातायी कैद में उन्हें रहना पडा.राजा के जेल में कैसी नारकीय स्थितयां थी इसका अंदाजा नागेन्द्र सकलानी के कर्मभूमि साप्ताहिक में छपे पत्रों, जिन्हें प्रसिद्द इतिहासकार डा.शिव प्रसाद डबराल “चारण” ने अपनी पुस्तक-उत्तराखंड का इतिहास-भाग (टिहरी-गढ़वाल राज्य का इतिहास (1815-1949)) में उद्धरित किया है, से पता चलता है.
उक्त पत्रों के अनुसार जेल में ऐसे फटे-पुराने कम्बल दिए जाते थे, जिन पर गंदगी के चलते मक्खियाँ भिनभिना रही होती थी.इसी तरह के कपडे पहनने को भी दिए जाते थे. भीषण ठण्ड में कपड़ों के अभाव में बंदी सो भी नहीं पाते थे. नागेन्द्र सकलानी अपने एक पत्र में लिखते हैं कि “ऐसा प्रयत्न किया जाता था कि राजनीतिक बंदी दरबार के सम्मुख घुटने टेक दे.” शाह वंशीय टिहरी के राजाओं की न्याय व्यवस्था कितनी अन्यायकारी थी, इसका अंदाजा जेल में रहते हुए नागेन्द्र सकलानी और दादा दौलत राम द्वारा 10 फरवरी 1947 को किये गए अनशन की मांगों से लगाया जा सकता है. किसानों आन्दोलन के दौरान छीनी गयी संपत्ति की वापसी और अन्य मांगों के साथ उनकी एक मांग यह भी थी कि या तो उनपर लगाए गए आरोप वापस हों या फिर उनपर लगे अभियोगों की सुनवाई ब्रिटिश अदालत में हो.जिन अंग्रेजों के न्याय के पाखण्ड को भगत सिंह और उनके साथी पहले ही बेपर्दा कर चुके थे, टिहरी रियासत के राजनीतिक बंदी यदि उन अंग्रेजों की अदालत में इन्साफ पाने की कुछ उम्मीद देख पा रहे थी तो इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि टिहरी रियासत की अदालतों में राजा की स्वेछाचारिता के अलावा न्याय की कोई अन्य कोटि रही ही नहीं होगी.बहरहाल नागेन्द्र सकलानी और दादा दौलत राम के उक्त अनशन का समाचार फ़ैलने पर बड़ी राजनीतिक हलचल हुई.देशी राज्य लोकपरिषद, कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी, टिहरी राज्य प्रजामंडल और प्रवासी गढ़वालियों की संस्थाओं ने तत्काल राजनीतिक बंदियों की रिहाई की मांग की. मजबूरन राजा को घोषणा करनी पड़ी कि 21 फरवरी 1947 को राजनीतिक बंदियों को मुक्त कर दिया जाएगा.
(Nagendra Saklani Molu Bhardari)
20 फरवरी 1947 को ब्रिटेन की संसद में तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने जून 1948 से पहले भारत से अंग्रेजी राज के रुखसत होने का ऐलान कर दिया था. जिस समय जवाहरलाल नेहरू के आह्वान पर देसी राज्यों की कई रियासतों के प्रतिनिधि संविधान सभा में हिस्सा लेने आ रहे थे,लगभग उसी वक्त टिहरी के राजा ने “टिहरी गढ़वाल मेंटेनेंस ऑफ पब्लिक ऑर्डर एक्ट” पर दस्तखत कर दिए. इसके तहत राजदरबार के किसी भी कर्मचारी को राज्य की व्यवस्था भंग करने वाले को गिरफ्तार करने का अधिकार दे दिया गया था.स्पष्ट तौर पर यह राजशाही के विरुद्ध उठने वाले प्रतिरोध को कुचलने के लिए किया गया था. जहां राजा देश में चल रही बदलाव की लहर को अनदेखा करते हुए अपना दमनकारी शासन कायम रखना चाहता था, वहीँ प्रजा हर हाल में राजशाही की गुलामी से मुक्ति पाना चाहती थी.
जनता की इस मुक्ति की चाह और नागेन्द्र सकलानी जैसे नेतृत्वकारियों के साहस का परिणाम था कि टिहरी रियासत के भीतर सकलाना से शुरू होकर जगह-जगह आजाद पंचायतें कायम होने लगी.इन आजाद पंचायतों ने राज कर्मचारियों को खदेड़ दिया,पटवारी चौकियों पर कब्जा कर लिया,शराब की भट्टियां तोड़ डाली और राजधानी टिहरी पर कब्जा करने के लिए सत्याग्रही भर्ती करने का ऐलान किया. कीर्तिनगर में ऐसी ही आजाद पंचायत के गठन के लिए कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से नागेन्द्र सकलानी और त्रेपनसिंह पहुंचे थे.10 जनवरी 1948 को नागेन्द्र सकलानी की अगुवाई में कीर्तिनगर में सभा हुई और वहां राजा के न्यायालय पर कब्जा कर, उसपर राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर आजाद पंचायत की स्थापना की घोषणा कर दी गयी.11 जनवरी को राजा के सब डिविजनल ऑफिसर(एस.डी.ओ.) और पुलिस सुपरिंटेंडेंट के नेतृत्व में पुलिस ने न्यायालय पर कब्जा करना चाहा.लोगों ने उन्हें बंधक बनाने की कोशिश की. एस.डी.ओ. के आदेश पर आंसू गैस के गोले लोगों पर छोड़े गए.क्रुद्ध जनता ने राजा के न्यायालय भवन पर आग लगा दी. आग लगी देख एस.डी.ओ. और पुलिस सुपरिंटेंडेंट जंगल की तरफ भागने लगे. नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी उन्हें पकड़ने दौड़े तो एस.डी.ओ. ने उनपर गोली चला दी,जिससे दोनों शहीद हो गए.
पेशावर विद्रोह के नायक कामरेड चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में दोनों शहीदों का जनाजा टिहरी ले जाया गया और राजाओं के शमशान घाट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया. अपने पुत्र मानवेन्द्र शाह को गद्दी सौंप कर भी राज्य पर नियंत्रण रखने वाले राजा नरेन्द्र शाह को टिहरी के अन्दर नहीं घुसने दिया गया. टिहरी में प्रजामंडल के नेतृत्व में अंतरिम सरकार गठित हुई और 1949 में टिहरी का भारत में विलय हो गया. कामरेड नागेन्द्र सकलानी और कामरेड मोलू भरदारी (ये कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीद्वार सदस्य थे) की शहादत टिहरी राजशाही के ताबूत में अंतिम कील साबित हुई.
(Nagendra Saklani Molu Bhardari)
यह विडम्बना ही कही जायेगी कि जिस राजशाही से मुक्ति पाने के लिए इतनी शहादतें और कुर्बानियां हुई, पहले लोकसभा चुनाव में उसी राजपरिवार की राजमाता कमलेन्दुमती शाह टिहरी संसदीय सीट से लोकसभा में जनता की प्रतिनिधि हो गयी. फिर दूसरी लोकसभा से चौथी लोकसभा तक और दसवीं लोकसभा से चौदहवीं लोकसभा में अपने जीवन के अंतिम समय तक मानवेन्द्र शाह, जिनका राजपाट बचाने के लिए नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी की ह्त्या हुई,वे “जनता का प्रतिनिधित्व” करते रहे. पंद्रहवीं लोकसभा में टिहरी सीट के लिए हुए उपचुनाव में उनकी बहु मालाराज्लाक्ष्मी शाह सांसद हो गयीं. वे वर्तमान में भी सांसद हैं. मानवेन्द्र शाह की राजनीतिक यात्रा तो आजादी की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस और आज राष्ट्रभक्ति की सबसे बड़ी झंडाबरदार भाजपा के अवसरवाद को भी साफ़ करती है.
दूसरी से चौथी लोकसभा यानि 1957 से 1970 तक मानवेन्द्र शाह कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा पहुंचे और दसवीं लोकसभा यानि 1991 से चौदहवीं लोकसभा में अपने जीवन के अंतिम दिनों तक भाजपा के टिकट पर लोकसभा पहुँचते रहे. एक तरफ देश के लिए कुर्बान होने वालों की हिमायत और दूसरी तरफ जलियांवाला बाग़ काण्ड की छोटी-बड़ी प्रतिकृति रचने वालों को जनता का प्रतिनिधि बनवा देने, दोनों विपरीत ध्रुवी कामों को इन्होने बखूबी साधा हुआ है. यह हमारे लोकतंत्र का विद्रूप ही कहा जाएगा कि रियासतों-रजवाड़ों के राजा-महाराजा, आजादी के बाद लोकतंत्र के राजा हो गए.
नागेन्द्र सकलानी ने राजा के मातहत उत्तरदायी शासन और सभा, जुलूस, प्रदर्शन आदि करने की मांगों तक ही स्वयं को सीमित नहीं रखा बल्कि उस समय राजशाही द्वारा लगाए तमाम तरह के कर और अकाल की मार से कराह रही आम जनता तथा किसानों के साथ न केवल उन्होंने स्वयं को एकताबद्ध किया बल्कि आगे बढ़कर उनका नेतृत्व किया. राजशाही को उखाड़ फैंकने और आजाद पंचायतों की स्थापना के अगुवा नेता तो वे थे ही. कामरेड नागेन्द्र सकलानी और मोलू भरदारी की शहादात ना केवल टिहरी रियासत के विरुद्ध निर्णायक शहादत थी, बल्कि यह जनता की मुक्ति के संघर्ष और भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन की बलिदानी, क्रांतिकारी परम्परा का भी एक स्वर्णिम अध्याय है.
(Nagendra Saklani Molu Bhardari)
इन्द्रेश मैखुरी का यह लेख नुक़्ता-ए-नज़र से साभार लिया गया है. नुक़्ता-ए-नज़र इंद्रेश मैखुरी का ब्लॉग है..
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