पहाड़ और मेरा जीवन – 38
(पिछली कड़ी: एक शराबी की लाश पर महिलाओं के विलाप ने लिखवाई मुझसे पहली कविता )
आठवीं से नवीं में आने के सफर के दौरान मुझे खुद में दो बदलाव साफ दिखाई दिए- पहला तो मैं छोटे कद और गबरू लुक से बाहर निकलकर थोड़ा लंबा और छरहरा हो गया और दूसरा कि मेरा पहाड़ी अड्याठों जैसा बर्ताव कम होने लगा. शायद मेरे भीतर छिपी संवेदनाओं ने भी बाहर आने का रास्ता तलाश करना शुरू कर दिया था तब तक क्योंकि अपनी पहली कविता के प्रकाशन के बाद कक्षा के अन्य साथियों के साथ छपने का सुख लेने का जो रोग लगा, वह आने वाले वर्षों में बेतहाशा बढ़ने वाला था.
अपनी कच्ची संवेदनाओं के पुष्पित-पल्लवित होने के बारे में ज्यादा बताने से पहले मैं यह बताना चाहता हूं कि पिछले सप्ताह अपने इस कॉलम में मैंने अपने दोस्तों प्रवीर पुनेरा और मनोज पांडे पर भी मां सरस्वती के आशीर्वाद की बात कही थी कि वे पढ़ने में तो तेज थे ही मेरी तरह कविताएं भी लिखते थे और बाकायदा प्रकाशित भी होते थे. मैंने यह भी बताया था कि मनोज पांडे तो मुझे लगभग बीस साल से नहीं मिला (किसी को उसके बारे में पता हो, तो कृपया मुझे बताए. उसने जीआईसी पिथौरागढ़ से 1987 में बारहवीं पास की थी) और प्रवीर अमेरिका में सेटल हो गया. मेरा पिछला कॉलम पढ़ने के बाद प्रवीर का मेरे पास संदेश आया जिसमें उसने खुलासा किया कि उसने लिखना छोड़ा नहीं है. निस्संदेह यह बहुत खुशी की बात है कि प्रवीर आज भी लिख रहा है.
छात्र जीवन से ही वह बेहद प्रतिभाशाली रहा है. कभी उसका बाद में लिखा हुआ कुछ पढ़ने को मिलेगा, ऐसी मेरी कामना है. बहरहाल, मुझे लगता है कि कक्षा नौ में आते-आते मेरे पैर बाजार की दुकानों और बाजार के रास्तों में घूमती लड़कियों का पीछा करने की बजाय जो एक कोने एकांत में स्थित जिला पुस्तकालय की ओर मुड़ गए, उसकी एक वजह साहित्य के प्रति मेरे मन में गहरे पैठा हुआ प्यार था, जो उम्र के साथ रूप बदलकर बाहर निकल रहा था.
जैसा कि मैं आप लोगों को पहले ही बता चुका हूं कि बहुत बचपन में जब मैं 7-8 साल का था और दिल्ली में रहते हुए हिंदी पढ़ना बोलना सीख चुका था, मैं गुड़िया, चंपक, नंदन, लोटपोट, लंबू-छोटू, चाचा चौधरी जैसी कॉमिक्स और बच्चों की किताबें बहुत पढ़ता था. बाद में इस लिस्ट में सुमन सौरभ और इंद्रजाल कॉमिक्स के अलावा अमर चित्र कथा की कॉमिक्स व राजन-इकबाल और विक्रांत के चरित्र वाले उपन्यास भी जुड़ गए. जिला पुस्तकालय ने मेरा परिचय विमल मित्र, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, प्रेमचंद, परसाई जैसे लेखकों से करवाया. कवियों में मैंने पहले रवींद्रनाथ टैगोर को पढ़ा और उनका व्यक्तित्व इतना करिश्माई लगा कि मैंने डायरी में उनकी तस्वीर बना उन्हें अपना गुरू ही मान लिया. जिस तरह एकलव्य ने जंगल में रहते हुए द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर उसके सामने धनुष-बाण चलाने का अभ्यास किया, उसी तरह मैंने भी डायरी के पहले के सामने वाले खाली पेज पर पैंसिल से बहुत समय लेकर और प्रेम के साथ और ड्रॉइंग बनाने की अपनी संभव प्रतिभा से कहीं बेहतर प्रदर्शन करते हुए अपने गुरू की बहुत ही खूबसूरत तस्वीर उकेरी और उस डायरी में बाकायदा तारीख डालते हुए उन दिनों प्रचलित कई रंग वाले बॉलपैन से रोज अलग-अलग रंग इस्तेमाल करते हुए और बेहद खूबसूरत स्कूलों में सुलेख में इस्तेमाल होने वाली जैसी लेखनी में कविताएं लिखना शुरू किया.
इतनी शिद्दत और तैयारी से कविता की शरण में जाने का शीघ्र ही सकारात्मक परिणाम देखने को मिला- मेरी कविताएं स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रकाशित होने लगीं. उन्हीं दिनों मैंने शायद जिला पुस्तकालय से अपने ही पहाड़ के सुमित्रानंदन पंत की कविताओं की किताब ली थी, तो जल्दी ही मेरी चेतना पर पंत जी की कविताओं का हल्लाबोल हो गया और मैंने उनकी ही स्टाइल में दो-चार कविताएं लिख मारीं. ये कविताएं भी मैंने इधर-उधर प्रकाशित होने जरूर भेजी होंगी क्योंकि मेरे पास आज भी पिथौरागढ़ से ही उन दिनों प्रकाशित पहले रंगीन पाक्षिक पत्र ‘जनजागर’ का मुखपृष्ठ रखा हुआ है, जिसमें उन दिनों के प्रतिभाशाली संपादक श्री महेंद्र सिंह मटियानी ने अपनी दूरदृष्टि से भरी संपादकीय टिप्पणी के साथ मेरी कविता प्रकाशित की थी.
इस कविता का शीर्षक था – ‘मौन कवि: प्रकृति’ अब चूंकि मैं कई वर्षों से अखबार में काम कर रहा हूं, शीर्षक को देखकर मुझे थोड़ा अटपटा लग रहा है कि कवि कहना क्या चाह रहा है. वह प्रकृति को मौन कवि मान रहा है या वह जो कवि मौन हो गया उसे प्रकृति समझ रहा है. बहरहाल मैं यहां आपके लिए पूरे सम्मान के साथ श्री महेंद्र सिंह मटियानी की संपादकीय टिप्पणी दे रहा हूं (ताकि आप भी समझ सकें कि हिंदी कविता में थोड़ा बहुत भी कुछ कर पाने के लिए कम उम्र में ही प्रतिभा दिख जानी चाहिए), यह बताते हुए कि बाद के वर्षों में मैंने उनके साथ कई मंचों से एक साथ कविताएं पढ़ीं और उनकी कुमाऊंनी की कविताओं का प्रशंसक भी बना –
सुन्दर चन्द ठाकुर, वय 18 वर्ष की यह काव्य रचना न केवल उनके अन्दर के उभरते कवि का साक्ष्य बनती है बल्कि इस छोटी वय में ही अपने समवयस्कों से कुछ अलग प्रकार के उनके सोच को भी इंगित करती है. अपने महसूस किए को व्यक्त कर पाने की छटपटाहट में होना रचनधर्मिता की पहली शर्त होती है. हम इस उम्मीद और शुभकामना के साथ सुन्दर जी की यह रचना प्रकाशित कर रहे हैं कि उनके अन्दर अंकुरित हो रही यह छटपटाहट घनी छांव का माध्यम बने- सम्पादक
संपादक की ऐसी टिप्पणी पढ़ने के बाद जाहिर है कि आपके मन में कविता पढ़ने की भी जिज्ञासा हो रही होगी. मैं ज्यादा नहीं, पहले दो पैरा यहां दे रहा हूं –
हिमाच्छादित हिमालय की तिरछी ढाल, कौन करे अब इसका मौन निमंत्रण स्वीकार
परिवर्तन कैसा यह नदी की दिशा में, क्यों प्रकृति अभी भी कर रही श्रृंगार
वृक्षों पर लिपटी लताएं, पत्तों का मौन हास, प्रकृति ले रही अब र्ग्घ शान्त नि:श्वास
कौसानी की नीरवता में है शान्त समीर का वास, धरती के निर्मल स्पर्श का कौन करे आभास
इस कविता को पढ़ते हुए मुझे लगता है कि मैंने यह पूरी तरह सुमित्रानंदन पंत की शैली के प्रभाव में आकर लिखी होगी. पंत जी की कविताओं के प्रभाव को महसूस करने के लिए बहुत जरूरी है कि पढ़ने वाला कम से कम एक साल पहाड़ में रहे ताकि वह चारों ऋतुओं में दिखने वाली उसकी अलग-अलग छटा का साक्षी बने. लेकिन छंदबद्ध कविताएं मुझे पसंद होने के बावजूद मेरे कविता कर्म की जमीन नहीं बन पाईं क्योंकि जल्दी ही नई कविता मेरी संवेदनाओं का मुक्ति मार्ग बनने वाली थीं. वे दूसरे किस्म के कवि और दूसरी चिंताओं पर लिखी कविताएं थीं, जो आने वाले समय में मुझे प्रभावित करने वाली थीं. पर मैं यहां बता देना चाहता हूं कि कविताओं की ओर पूरी तरह मुड़ने से पहले मैंने गद्य को भी आजमाया. साहित्य के क्षेत्र में संभव हुई अपनी इस छोटी-सी यात्रा का विवरण मैं बाद में दूंगा क्योंकि सदगुरु निवास में बड़े भाई के साथ अकेले रहते हुए जीवन के दूसरे संघर्षों की इतनी सारी घटनाएं और इतने लोग हैं, जिनके बारे में बताना मुझे ज्यादा जरूरी लगता है.
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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