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मृत्यु के अंधकार में कैसे दिखे जीवन की रोशनी

कोरोना की दूसरी लहर इतनी खतरनाक होगी, किसी ने कल्पना नहीं की थी. पहली लहर में भी लोग कोरोना का शिकार बनकर हमारा साथ छोड़ गए थे, लेकिन तब जाने वाले लोगों में हमारे अपने खास-परिचित गिने-चुने ही निकलते थे. लेकिन दूसरी लहर में ऑक्सिजन को लेकर जैसा हाहाकार मचा और बड़ी संख्या में बहुत करीब से जानने-पहचानने वाले युवतर लोग भी देखते ही देखते हमें छोड़कर चले गए, तो मन में जिंदगी को लेकर संशय उठने लाजमी थे. जो लोग कोरोना से जान लगाकर लड़ने के बाद बचकर घर आ रहे हैं, उनके मन पर अस्पताल से बाहर आने के बाद भी मृत्यु का खौफ दिखाई दे रहा है. ठीक होकर घर आने के बाद भी लोग मर रहे हैं.
(Mind Fit 41 Column)

कोरोना हमारी लड़ाई के लिए म्यूकरमाइकोसिस जैसी नई और खतरनाक बीमारी ले आई है. एक तरह यह सब और दूसरी ओर अपनी जिम्मेदारियों से बचती अक्षम सरकार, वैक्सीनेशन की बहुत धीमी रफ्तार और वैक्सीन लेने की समयावधि को लेकर सरकार के भ्रामक बयान, इन सबके बीच लोगों के लिए अपनी जिंदगी में खुशी की वजह तलाश पाना मुश्किल हो रहा है. बहुत से लोग गहरे अवसाद की गिरफ्त में जा रहे हैं.

अपनी मन:स्थिति को बेहतर बनाने के लिए हमें अपने सोचने के ढंग को थोड़ा बदलना होगा. यह समझने की बात है कि दुख कभी भी घटनाओं में नहीं होता, बल्कि घटनाओं को लेकर हमारे सोचने के ढंग में होता है. निश्चय ही हममें से ज्यादातर ने अपने जीवनकाल में कोरोना जैसी कोई और महामारी नहीं देखी. लेकिन अगर हम इतिहास की ओर लौटें, तो पाएंगे कि ज्यादा नहीं सिर्फ सौ साल पहले ही 1920 में दुनिया स्पेनिश फ्लू की चपेट में आई थी. उस वक्त पूरी दुनिया में लगभग 50 करोड़ लोग इस बीमारी के प्रभाव में आए थे और अनुमान है कि 5 से 10 करोड़ लोग मारे गए थे.

भारत में इस महामारी का सबसे ज्यादा प्रकोप देखा गया, जहां एक करोड़ से ज्यादा लोग मारे गए. स्पेशनिश फ्लू की तुलना में अगर हम कोरोना को देखें, तो अब तक भारत में इससे करीब 3 लाख लोग मारे जा चुके हैं. जाहिर है कि 1918 में मेडिकल साइंस ने बहुत तरक्की नहीं की थी और लोगों के पास आज की तरह आधुनिक सूचना तंत्र भी नहीं था और ज्यादातर लोग सांस न ले पाने और निमोनिया के कारण मारे गए थे, निश्चित रूप से तब लोग आज के मुकाबले कहीं ज्यादा भयाक्रांत हुए होंगे. सिर्फ स्पेनिश फ्लू क्यों, पिछले 3 हजार सालों में मानव सभ्यता ऐसी दर्जनों महामारियों को झेल चुकी है. इतिहास इसका गवाह है कि 2 साल उसका प्रकोप झेलने के बाद दुनिया स्पेनिश फ्लू से भी मुक्त हुई और तब एक नया जीवन शुरू हुआ. इसीलिए हर व्यक्ति के लिए मन में यह यकीन रखना बहुत जरूरी है कि कोरोना की काली छाया भी देर-सबेर निकल ही जाएगी.
(Mind Fit 41 Column)

हमारे चारों ओर जब मृत्यु बहुत ज्यादा संख्या में घटित होने लगती है, तो उसका भय चला जाता है. मृत्यु को हम जितना देखते हैं, उतना हम उसकी अनिवार्यता को समझते हैं. मृत्यु के दुख से उबरने के लिए जीवन की निरंतरता पर भरोसा बहुत जरूरी है. कोरोना काल में भी दुनिया में रोज लाखों बच्चे जन्म ले रहे हैं. जीवन खुद को अपने तरीके से मजबूत बना रहा है. कोरोना वायरस ने दुनियाभर के डॉक्टरों को इसके काम करने के तरीके को जानने और उससे बचाव करने को लेकर जितना समझदार बना दिया है, वह उल्लेखनीय है. निश्चय ही अपने प्रियजनों को खोकर हम एक कीमत तो चुका ही रहे हैं, लेकिन पृथ्वी पर मनुष्य जीवन इस तरह कीमत चुकाते हुए ही विकास के ऊंचे पायदानों की ओर बढ़ा है.

जीवन के स्वभाव में ही है कि वह उतार-चढ़ाव लिए हुए आगे बढ़ता है. लहरों की तरह. लहर अगर नीचे गिरती है, तो अगले ही पल वह ऊपर भी उठती है. 1920 के स्पेनिश फ्लू के बाद अगले दशक में न सिर्फ विश्व की जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ी, बल्कि मेडिकल क्षेत्र में क्रांतिकारी विकास हुआ. कोरोना महामारी के बाद ऐसे ही सकारात्मक बदलाव आने तय हैं. यह भी तो एक सकारात्मक बदलाव ही है कि हम अपने स्वास्थ्य के प्रति, अपनी इम्यूनिटी और फेफड़ों की ताकत को लेकर अब पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा जागरूक हो गए हैं. दुनियाभर के लोगों में आया यह जागरण कहीं न कहीं जिंदगी को और रोशन बनाने वाला है.
(Mind Fit 41 Column)

-सुंदर चंद ठाकुर

इसे भी पढ़ें: कोरोना को हराने के बाद रहें सावधान और इस तरह पाएं तंदुरुस्ती

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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे. सुन्दर ने कोई साल भर तक काफल ट्री के लिए अपने बचपन के एक्सक्लूसिव संस्मरण लिखे थे जिन्हें पाठकों की बहुत सराहना मिली थी.

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