जिंदगी का नाम संघर्ष है. जब तक हम जिंदा हैं, हमें संघर्ष करते रहना होगा. सिर्फ मृत व्यक्ति को कोई संघर्ष नहीं करना पड़ता. इसीलिए दूसरों को कभी जज न करें. एक मुस्कराते चेहरे के पीछे कितनी पीड़ाएं छिपी हैं, हमें नहीं मालूम होता. दुनिया में कोई कैसा भी हो, अमीर या गरीब, जिंदा है, तो उसके जीवन में संघर्ष होंगे ही. और जो संघर्ष करता हो, उसे जजमेंट की नहीं, आपकी सहानुभूति की जरूरत होती है. बात को बुद्ध की एक कथा से समझाते हैं –
(Mind Fit 22 Column)
एक बार गौतम बुद्ध अपने शिष्य आनंद के साथ यात्रा पर निकले हुए थे. दोनों बहुत थक चुके थे और सूर्यास्त से पहले अगले नगर पहुंच जाना चाहते थे. वह हर संभव तेज चलने की कोशिश कर रहे थे. बुद्ध स्वयं बहुत बूढ़े हो गए थे और आनंद तो उम्र में उनसे और बड़े थे. उन्हें चिंता हो रही थी कि कहीं जंगल में ही रात न बितानी पड़ जाए. एक खेत के करीब से गुजरते हुए उन्होंने खेत में काम कर रहे एक बूढ़े किसान से पूछा – यहां से नगर कितनी दूर है?
बूढ़े किसान ने जवाब दिया – ज्यादा से ज्यादा दो मील दूर होगा बस. तुम लोग आराम से पहुंच जाओगे.
बुद्ध बूढ़े किसान की बात सुनकर मुस्कराते हैं. बूढ़ा भी मुस्कराता है. आनंद को उनके मुस्कराने की वजह समझ नहीं आती.
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दोनों आगे चलते हैं. दो मील गुजर जाते हैं, लेकिन नगर का नामोनिशां नहीं दिखता. तभी उन्हें जंगल में सूखी लकड़ियां बटोरती एक महिला दिखती है. वे उससे नगर के बारे में पूछते हैं.
महिला जवाब देती है – बस, दो मील और चलना है. पहुंच ही चुके हो.
वह भी बुद्ध की ओर देखकर मुस्कराती है. बुद्ध भी मुस्कराते हैं. आनंद असमंजस भरी नजर से देखता है. वे फिर आगे चलना शुरू करते हैं. दो मील और गुजर जाते हैं, लेकिन नगर अब भी दिखाई नहीं देता. उन्हें एक तीसरा आदमी दिखता है. आनंद उससे नगर के बारे में पूछता है.
बस दो मील और. एकदम पहुंच ही गए हो आप लोग – वह आदमी जवाब देता है. बुद्ध से नजर मिलने पर वह भी मुस्कराता है. आनंद को मुस्कराने का यह रहस्य समझ नहीं आता. वह अपने कंधे से पोटली नीचे उतारते हुए बोलता है – ‘मैं अब यहां से एक कदम भी आगे नहीं जाने वाला. मैं बूढ़ा हूं और थक गया हूं. मुझे लगता है कि जिंदगीभर भी चलते रहो, तो भी ये दो मील कभी पूरे नहीं होंगे. आपको एक बात मुझे बतानी ही होगी कि हम जिससे भी सवाल पूछ रहे हैं, आप उसका जवाब सुनकर मुस्करा क्यों रहे हो. आप उन्हें नहीं जानते, वे आपको नहीं जानते, फिर आप लोगों के बीच क्या चल रहा है?’
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बुद्ध मुस्कराते हुए कहते हैं – असल में हमारा पेशा एक जैसा है. मैं भी उसी पेशे से हूं, जिसमें दूसरों को प्रोत्साहित करते रहना पड़ता है. सिर्फ दो मील और, थोड़ा-सा और, बस थोड़ा-सा और. मैं अपनी पूरी जिंदगी यही करता रहा हूं. मैं जानता हूं कि थोड़ा-थोड़ा चलते हैं, तो लोग अंतत: मंजिल तक पहुंच ही जाते हैं. अगर किसी थके हुए मुसाफिर को बताओ कि मंजिल अभी 15 मील दूर है, तो वह नहीं चल पाएगा. पर वह बस दो मील, बस दो मील करते हुए दो सौ मील भी चल लेगा. मैं उन लोगों के साथ हंसा, क्योंकि मैं इस गांव में आया हुआ हूं और इन लोगों को जानता हूं. मैं जानता हूं कि नगर दो मील दूर नहीं है, लेकिन मैं चुप रहा.
‘तो आप लोग मुझसे झूठ बोल रहे थे?’ आनंद ने अचरज से पूछा.
‘नहीं ये तुम्हारा हौसला बढ़ा रहे थे. पहले बूढ़े किसान ने तुम्हें दो मील चलाया, फिर उस महिला ने तुम्हें दो मील चलाया. उस तीसरे आदमी ने भी तुम्हें दो मील चलाया. सोचो कि तुम दो-दो मील करते हुए छह मील चल गए. कुछ लोग और मिलते, तो वे तुम्हें नगर तक ही पहुंचा देते. लेकिन तुमने अब अपनी पोटली नीचे रख दी है. अब कोई बात नहीं. हम इस बड़े पेड़ के नीचे ठहर सकते हैं. क्योंकि मैं जानता हूं कि नगर अब भी यहां से सिर्फ दो मील नहीं है’, बुद्ध मुस्कराते हुए आनंद के साथ नीचे बैठ गए.
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इस कथा से सीख मिलती है कि हमें एक-दूसरे को प्रोत्साहित करते हुए आगे बढ़ना चाहिए. दुनिया में हर इंसान लंबी यात्रा पर निकला हुआ है. सब थके हैं. सबको आगे भी लंबी यात्राएं करनी हैं. राह में बहुत अड़चनें हैं. दुख और पीड़ाएं हैं. हम उन्हें क्यों कहें कि यात्रा बहुत लंबी है. हमें तो उन्हें यही कहना चाहिए कि दोस्त बस थोड़ा-सा और चलो. मंजिल बस आ ही गई. यह झूठ बोलना नहीं है. यह प्रोत्साहित करना है. यह दया दिखाना है, सहानुभूति दिखाना है. यह उसे भरोसा देना है. अगर हम सब ऐसे ही एक-दूसरे को प्रोत्साहित करते हुए, एक-दूसरे को भरोसा देते हुए आगे बढ़ते रहे, तो मंजिलें हम सबके कदम जरूर चूमेंगी. सब जीवन का आनंद ले पाएंगे.
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे. सुन्दर ने कोई साल भर तक काफल ट्री के लिए अपने बचपन के एक्सक्लूसिव संस्मरण लिखे थे जिन्हें पाठकों की बहुत सराहना मिली थी.
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