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आख़िर किस मिट्टी के बने होते हैं कमान्डो

2008 के मुम्बई हमले के बाद हमारे साथी और वरिष्ठ पत्रकार-सम्पादक सुंदर चंद ठाकुर ने अपने एक कमांडो मित्र पर यह लेख लिखा था. यह बताना अप्रांसगिक नहीं होगा कि सुंदर चंद ठाकुर स्वयं एक फौजी रह चुके हैं. यह लेख पहले कबाड़खाना ब्लॉग पर छपा था. वहीं से साभार – सम्पादक

तीन दिन पहले तक वह लेफ्टिनंट कर्नल मेरे लिए सिर्फ बचपन का एक दोस्त था. ऐसा दोस्त जिसके साथ मैंने स्कूली दिनों में रिपब्लिक कैंप समेत एनसीसी के कई कैंप किए थे. जिसके साथ सीडीएस की लिखित परीक्षा दी थी और पास होने के बाद ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकैडमी में ट्रेनिंग भी ली. एक छोटी सी जगह से निकलकर एक साथ फौज में अफसर बनने के अहसास ने हमारी दोस्ती को कभी कम नहीं होने दिया.

आज मुझे फौज छोड़े ग्यारह साल हो गए, मगर वह अब भी सेना में अपनी खास स्टाइल से काम कर रहा है. मगर आज वह, जिसे उसके चाहने वाले लब्बू (बदला हुआ नाम) पुकारते हैं, सिर्फ मेरा दोस्त नहीं रहा, वह पूरे हिंदुस्तान के लिए निडर समर्पण की मिसाल बन गया है. मुंबई में नरीमन हाउस में अपनी कमांडो ट्रेनिंग और बचपन से उसमें दिखने वाली शातिर समझ के बूते पर उसने ऑपरेशन ब्लैक टॉरनेडो को एक सफल मिशन में तब्दील कर दिया.

27 नवंबर की पूरी रात उसके घरवालों की तरह ही मैं भी बेसब्र रहा. टीवी पर लगातार दिख रहे सीन तने दहलाने वाले थे और नरीमन हाउस के बारे में जो भी सुनने को मिल रहा था, कैसे आतंकवादियों ने उसे अपना कमांड सेंटर बनाया हुआ है, उन्होंने वहां कितनी भारी मात्रा में असलाह-बारूद जमा करके रखा गया है और किस तरह अपनी सुरक्षा के लिए उन्होंने इमारत के भीतर बंधक बना रखे हैं, ऐसी सूचनाओं के बीच वह ऑपरेशन इतना आसान भी नहीं लग रहा था. बेसब्री में, संकोच करते हुए मैंने आधी रात के बाद उसे फोन लगा ही दिया – ‘यार, अब तू डिस्टर्ब मत कर. मुझे काम करने दे.’ उसने कहा और फोन काट दिया.

सुबह जब उठा तो देखा कि नरीमन हाउस की छत पर हेलिकॉप्टर से और कमांडो उतर रहे हैं. मैंने ऐसे दृश्य की कल्पना नहीं की थी. मैं अगले कई घंटे फ्रीज होकर टीवी के सामने बैठा रहा. तब मुझे उसकी पत्नी का ख्याल आया, मगर मेरे पास उसका फोन नंबर ही न था. मैंने संदीप की मां को फोन लगाया तो मालूम चला कि उन्हें इस बात की खबर ही नहीं थी कि उनका बेटा मुंबई में कितने खतरनाक ऑपरेशन का नेतृत्व कर रहा है.

तब मुझे एहसास हुआ कि वह बिल्कुल भी नहीं बदला. स्कूल के दिनों में भी वह ऐसा ही बेपरवाह हुआ करता था. मैंने उसकी पत्नी से बात की. ‘भैया, इन्हें तो ऑपरेशन पर जाने में ही ज्यादा मजा आता है. शादी के बाद जम्मू-कश्मीर में थे तो एलओसी पर रोज गश्त लगाते थे. ‘ऐक्शन’ उनकी खुराक बना हुआ था.’ वह जरूर कुछ परेशान लगी. मगर अच्छी बात यह थी कि उसने टीवी का कनेक्शन हटाया हुआ था. मैंने उसे ज्यादा कुछ नहीं बताया, बस लब्बू की तरह ही बेपरवाह होने की कोशिश करते हुए कहा – ‘वह लब्बू है! कल सुबह तक मुस्कराता हुआ तुम्हारे सामने होगा.’ लेकिन मुझे यह देखकर खुद पर बहुत गुस्सा आया कि वाक्य पूरा करने तक मेरी आवाज भीग गई थी.

टीवी पर इसके बाद शुरू हुआ दुनिया का सबसे भयानक लाइव शो. खासकर नरीमन हाउस में स्थिति सबसे विकट लग रही थी, क्योंकि वहां कमांडोज को बेहद संकरी जगह पर काम करना पड़ रहा था और यह अंदाजा नहीं था कि आतंकवादी कितनी संख्या में पांच मंजिला इमारत में कहां, और कितने आधुनिक हथियारों के साथ छिपे हुए हैं. मैं दिन भर रुक-रुक कर यह ऑपरेशन देखता रहा. लड़ाई जितनी लंबी खिंच रही थी, बेसब्री उतनी बढ़ रही थी. बाद में टीवी पर सीधी लड़ाई दिखाना बंद कर दिया गया था. घंटों बाद एक चैनल पर फ्लैश आया – नरीमन हाउस में दो आतंकवादी ढेर. फिर धीरे-धीरे ऑपरेशन ब्लैक टॉरनेडो की पूरी दास्तां सामने आने लगी. देर रात एनएसजी के डीजी प्रेस कॉन्फ्रेंस करते दिखे और उन्हीं के पीछे मुस्कराता खड़ा दिखा लब्बू. डीजी से ही मालूम चला कि इस पूरे ऑपरेशन की कमान लब्बू के हाथ में थी.

अब एक बार फिर मैं उससे बात करने को इतना अधीर था कि आधी रात बाद मैंने उसे फोन लगा ही दिया. ‘यार, 50 घंटे से सोए नहीं और अब लेटा हूं तो नींद ही नहीं आ रही.’ ‘तो क्या कल तक लौट आओगे?’ मैंने उससे पूछा. ‘बशर्ते कि कल और कोई ऐक्शन न करना पड़े.’ उसने कहा. मैंने ज्यादा बातें नहीं की. अगले दिन मालूम चला कि कमांडोज अब ताज होटल जा रहे थे. उन्हें वहां पूरे होटेल की छानबीन करनी थी. टीवी से ही मालूम चला कि वे शाम होने तक ताज की सफाई में लगे रहे, जहां उनके सामने पड़ी थीं लाशें, साबुत ग्रेनेड और जगह जगह छोड़ी गई विस्फोटक सामग्री. उन्हें इस सबको नष्ट करना था, इस खतरे के बीच कि कहीं आतंकवादियों ने कोई आईईडी जैसा कुछ न छिपा रखा हो.

मुंबई अब शांत हो चुकी है और उसकी पत्नी भी अब खुश है. मैं गुजरा वक्त याद करते हुए लब्बू के बारे में सोच रहा हूं. लेकिन मेरी सोच में कुछ फर्क आ गया है. यह निकर पहनकर स्कूल जाने के दिनों, कॉलिज में लड़कियों से चक्कर चलाने के किस्सों, अकैडमी में कड़ी ट्रेनिंग के बीच खास किस्म के रोमांच और फिर विवाहित होने के बाद सपरिवार किसी रेस्ट्रॉन्ट में खाना खाने का सुकून देने वाली दोस्ती ही नहीं रह गई थी, बल्कि अब मेरे मन में उसके लिए बेहिसाब सम्मान का भाव भी आ गया है. मैं सोच रहा हूं कि वह लौटकर आएगा तो उसे जरूर सैल्यूट मारूंगा और पूछूंगा – यार, तुम कमांडो आखिर किस मिट्टी के बने होते हो?

सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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