अहा, वह हैदराबाद
अहा, उन दिनों का वह हैदराबाद! अंबरपेट फार्म से शाम को थका-मांदा होटल में लौटता. नहा-धोकर एबिड रोड की ओर निकल जाता. लौटते हुए कई बार ताजमहल होटल में खाना खा लेता. आठ आने में एक बार का भरपेट भोजन, संगमरमर की मेजों पर केले के पत्ते में. भात, रसम, सांभर, सब्जी, नारियल तेल, चटनी, सलाद और अंत में एक गिलास मजीगे (मट्ठा)! एक रूपए की स्पेशल थाली मिलती थी. कई बार अपने होटल के कमरे में ही हैदराबादी बिरयानी मंगा कर खा लेता. तब आठ आने में बीयर की बोतल मिल जाती थी.
सुबह अंबरपेट फार्म जाने के लिए ग्रीन होटल से कुछ दूर सड़क पर एक रेस्तरां था जिसके सामने फार्म की बस आती थी. नाश्ता होटल में कर लेता था लेकिन कभी देर हो जाने पर उस सड़क किनारे के रेस्त्रां में खा लेता. पहली बार उसमें जाने पर एक मजेदार अनुभव हुआ. हुआ यह कि रेस्त्रां में बैठते ही बेयरा आया और उसने मुझसे पूछा: “क्या हाव?”
मैंने कहा, “एक टोस्ट, एक कप काफी.”
वह जोर से चिल्लाया, “एक टोस्ट लाओ, एक कप काफी लाओ.”
देर होती देख, मैंने भीतर की ओर नजर घुमाई. देखा, वहां वही बेयरा टोस्ट बना रहा था. फिर उसने काफी बनाई और फिर टोस्ट, काफी लेकर मुझे दे दी. मुझे यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ. उससे पूछा, “अगर तुम्हें ही बना कर लाना था तो चिल्ला क्यों रहे थे?”
उसने मुस्कराते हुए इशारा करके कहा, “जोर से बोलता क्योंकि उधर मालिक बिल काटता. बनाना तो मुझे ही पड़ता.”
उसके चिल्लाने का रहस्य मैं समझ गया.
दिल्ली में जैसे रेहड़ी पर मूंगफली, चना आदि बिकता था, हैदराबाद में रेहड़ी पर जगह-जगह सूखे मेवे के ढेर लगे रहते- काजू, बादाम, पिस्ता, किशमिश, छुहारे…..और फुटपाथों पर हरे-काले अंगूरों के ढेर. एक बार कुर्ग, कर्नाटक के रहने वाले साथी उल्हास और मैं काफी अंगूर खरीद लाए. कमरे में आकर दोनों ने जमकर अंगूर खाए और सो गए. पंखे की हवा में रात में हमारा पेट बुरी तरह फूल गया था. पता ही नहीं था कि खाली पेट इतने अंगूर नहीं खाने चाहिए.
***
एक बार वहां दूर हैदराबाद में नए साल की पहली शाम थी. अगर दिल्ली में होता तो उस शाम हम तमाम लेखक रीगल सिनेमा के सामने मिलते, फिर कहीं न कहीं बैठ कर नव वर्ष की पूर्व संध्या का जश्न मनाते, टी-हाउस में जमा होते, वहां रमेश गौड़ किसी मेज पर खड़े होकर भाषण देते, कोई कुछ सुनाता, कोई कुछ. हंगामा बढ़ता तो पुलिस आकर खदेड़ती, उस भगदड़ में जिसे जहां रास्ता मिलता, उधर निकल जाता. उस रात कई दिलदार आटो और टैक्सी वाले तक भाई चारे में काफी दूर तक मुफ्त छोड़ आते थे. अगले दिन ऐसे किस्से सुने जाते थे. दिल्ली की वही शाम याद आती रही. तो, भावुक होना ही था, हुआ.
अक्सर शामें सड़कों पर घूमते हुए कटतीं. कभी नौबत पहाड़ पर चला जाता जहां से सामने हुसेन सागर में झिलमिलाती रोशनियों का स्वप्निल संसार दिखाई देता. उस पार सिकंदराबाद था जो हुसेन सागर के टैंक बंध से जुड़ा हुआ था. अकेला होता तो कभी-कभी घूमते-घामते टैंक बंध तक निकल जाता.
टैंक बंध के भीतर, नीचे की ओर सीढ़ियां उतरती थीं जो लेक साइड बार एंड रेस्तरां में पहुंचाती थीं. वहां हुसेन सागर के ठीक ऊपर, किनारे की खिड़की के पास की टेबल पर अकेले बैठ कर पानी में रोशनियां देखना बहुत अच्छा लगता था. वहां अक्सर एक व्यक्ति आता था- चमड़े की काली जैकेट, काले दस्ताने, आंखों पर गहरे रंग का चश्मा, सिर पर हैट. वह बैसाखियों के सहारे चलता आता- खट्, खट्, खट्…. और बार के काउंटर के पास पहुंच कर अचानक उछलता और सामने हमारी ओर मुंह करके खड़ा हो जाता. दोनों कुहनियां बार काउंटर पर टिका देता. मैं किनारे की किसी खिड़की के पास बैठ कर बीयर पी लेता था. बार में आए उस चरित्र को दो-एक बार देख कर मेरे मन में एक कहानी जन्म लेने लगी. उस अनजान शहर में कौन था वह अजनबी? होटल में आकर लिखना शुरू किया….
वह अजनबी
“क्या मैं आपका परिचय पा सकता हूं?”
“अच्छा, बड़ी खुशी हुई आपसे मिलकर. तशरीफ रखिए न. मेरा ख्याल है, आपको जल्दी नहीं होगी क्योंकि जल्दी में रहने वाले लोग अक्सर इस बार में नहीं आते. पिछले कुछ दिनों से मैं यही बात सोच रहा था. यहां लोग रात-रात तक बैठे रहते हैं- बातें करते हुए, गपशप लड़ाते हुए. आपको भी मैंने दो-एक बार यहां देखा था लेकिन संकोची आदमी हूं न, इसलिए बातचीत न कर सका. आपको देखते ही मैं प्रभावित हो गया था क्योंकि आपकी तरह के विशेष व्यक्तित्व स्वयं ही मेरा ध्यान खींच लेते हैं. और लोगों के बारे में तो मैं नहीं जानता लेकिन छोटे कद में भी आदमी ऐसे विशिष्ट व्यक्तित्व का हो सकता है, यह बात आपको देख कर साबित हो जाती है. मुझे अब भी याद है, जिस दिन पहली बार मैंने आपको इस बार में देखा था, आप चमड़े के यही दस्ताने पहने हुए थे और छड़ी आपके साथ में थी. आप उठ कर जब बाहर जाने लगे, तब मुझे मालूम हुआ कि आप लंगड़ाते हैं. बुरा न मानें आपका कद, चाल-ढाल और लगड़ाना सभी ने मुझे काफी प्रभावित किया था और मैंने तभी तय कर लिया था कि इस शहर में रहते मैं आपसे मिलूंगा जरूर. इस शहर में मैं पहली बार आया हूं, अभी कुछेक ही दिन हुए हैं.”
“आप लीजिए प्लीज, असल में दो-एक पैग तक तो मैं फार्मल ही रहता हूं हालांकि फार्मेलिटी से मुझे बहुत चिढ़ है. अभी तीसरे-चौथे पैग में आप देखेंगे कि मैं आपसे ‘आप’ और ‘प्लीज’ कहना छोड़ दूंगा. उस समय आप देखेंगे कि मैं आपका कितना करीबी और बेतकल्लुफ दोस्त बन गया हूं. आशा है आप उस हालात में मुझे एक अलग और अपरिचित व्यक्ति के रूप में नहीं देखेंगे. दरअसल नार्मल होने पर आदमी कई बेहूदी हरकतें फार्मेलिटी के तौर पर करता है बल्कि कई बार तो न चाहते हुए भी उसे वैसा करना होता है. अब आप सोचिए कि यदि मैं अपने पिता या किसी अन्य संबंधी के साथ पी सकता तो बड़ी आसानी से कुछ समय के लिए उस संबंध की जकड़न समाप्त हो जाती और हम एक दूसरे से सिर्फ व्यक्ति के रूप में मिल पाते. सच पूछिए तो आदमी बेहद चालाक आदमी होता है. उसे ऐसी हालात में पकड़ कर उससे बड़े बेहतरीन तरीके से मिला जा सकता है. उसके व्यक्ति रूप से मिलने का मजा ही दूसरा है.”
“हां लीजिए, प्लीज. अरे आप मेरे अतिथि हैं. जी हां, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. मैं आपके शहर में हूं तो इसका मतलब यह नहीं कि मैं आपका अतिथि हूं. इस बात में मेरी आस्था नहीं है.”
“हां, तो मैं कह रहा था कि मैं काफी दिनों से आपसे मिलने की बात सोच रहा था. कुछ समय पहले मैं ऊपर टैंक बंध पर घूम रहा था कि आप पर नजर पड़ गई. आप बार की सीढ़ियों पर उतर रहे थे. यहां बार में उतरते हुए लगता है जैसे नीचे बांध के पानी में उतर रहे हो. पहली बार मुझे यह काफी मजेदार बात लगी थी. जिस व्यक्ति के मन में बांध के पानी की छत पर रेस्त्रां खोलने की बात आई होगी वह सचमुच काफी दिलचस्प आदमी रहा होगा…काश तुम मेरा छोटा सा शहर देखे होते. पहाड़ों के बीच मकानों की कतार, बाजार और खूबसूरत झील आपके इस कृत्रिम सागर से काफी छोटी होगी वह झील. उसके किनारे पर भी एक रेस्त्रां है, झील के पानी की छत पर…अच्छा, अब जरा खिड़की से सामने देखिए तो, वहां दिखाई दे रहा है सिर्फ पानी का एक खामोश फैलाव. अच्छा, सच बताइए, क्या आपने कभी यहां आकर सोचा है कि हम रेस्त्रां में बैठे हैं और हमारे सिर ऊपर बांध की पूरी तीन मील लंबी सड़क पर लोग चहलकदमी कर रहे हैं. अक्सर में सामने खिड़की के पास की कुर्सी पर बैठता हूं और चुपचाप सागर में उल्टे लटके हुए जगमगाते शहर को देखता रहता हूं. मैंने अपने शहर की झील में पहली बार शहर को उल्टा लटकता हुआ देखा था.”
“हां तो दोस्त, मैंने कहा था न कि तीसरे-चैथे पैग के बाद मैं औपचारिकता के बाड़े से उलांच मार कर बाहर कूद आऊंगा. और, लो मैं आ गया. तो, अब सुनो”…
नहीं जानता, वह कहानी पूरी क्यों नहीं हुई. सन् 1968 में लिखी उस अधूरी कहानी के वे पन्ने आज भी मेरी फाइल में मौजूद हैं. मुझे बस इतना याद है कि उस चरित्र में मैं एक छोटे से गांव से शहर आकर वहीं अटक गए आदमी के दुख-दर्द और उसके अकेलेपन की बात करूंगा लेकिन लगता है मैं खुद उसी अकेलेपन में खोता चला गया.
हैदराबाद में रहते हुए कभी-कभार छुट्टी के दिनों में सालारजंग म्यूजियम, गोलकुंडा का किला, चिड़ियाघर, राष्ट्रपति निलयम और नागार्जुन बांध देखने का मौका मिल जाता था. सालारजंग म्यूजियम की चीजें देख कर आश्चर्य चकित रह जाता कि कैसे एक व्यक्ति ने इतनी चीजों का विशाल संग्रह तैयार किया होगा. म्यूजियम से निकलने से पहले उस घड़ी को देखना एक अद्भुत अनुभव होता था, जब केवल कल-पुर्जों से चलने वाली उस घड़ी में से दरवाजा खोल कर एक नन्हा आदमी आकर हथौड़ी से पांच बजे के पांच घंटे बजाता था.
गोलकुंडा गया तो किले के मुख्य द्वार पर ही एक चरवाहा बच्चा मिल गया था जो अपनी बकरियां चरा रहा था. पैंट पीछे से फटी थी. उसने हमसे पूछा, “गाइड चाहिए?” हमने कहा, “कहां है गाइड?” बोला, “मैं हूं.” हमें उसका यह कहना अच्छा लगा. हमने उसे साथ ले लिया. उसने ताली बजा कर दिखाया कि यहां मुख्य द्वार से ऊपर चोटी पर राजा को कैसे किसी के आने की खबर मिल जाती थी. फिर वह दूसरों से सुना और रटा हुआ टुकड़ा-टुकड़ा इतिहास सुनाता रहा. ऊपर जाकर उसने एक टूटी-फूटी जगह पत्थर पर राजा की तरह शान से बैठते हुए कहा, “राजा यहां बैठता था हुजूर और उसके दरबारी वहां खड़े रहते थे.” उसने सामने इशारा करके बताया. गोलकुंडा किले में हमें सबसे खास वही बच्चा लगा था.
***
दिल्ली में शाम को रेल में बैठने पर तीसरे दिन सुबह सूर्योदय के काफी देर बाद हैदराबाद पहुंचते थे. इस यात्रा मे तरह-तरह के लोग मिलते थे. एक बार की यात्रा में प्रथम श्रेणी के दो बर्थ वाले कूपे में मुझे नीचे की बर्थ मिली. सहयात्री कोई फ्लाइट लेफ्टिनेंट शर्मा थे. मैं कूपे में घुसा-चैक की कमीज, जींस, बूट, थोड़ा लंबे बाल, दाढ़ी और पीठ पर कैनवस का हैवर सैक. परिचय हुआ तो बोले, “मैं तो आपको हिप्पी समझ रहा था. हम अच्छे दोस्त बन गए. दुनिया भर की बातें करते रहे. रात के अंधेरे में ट्रेन तेजी से चलती जा रही थी….छुक….छुक….छक… छक, छुक-छुक….छक-छक…कि किसी स्टेशन पर रुकी. दरवाजा खोल कर देखा, ग्वालियर स्टेशन था. देख ही रहे थे कि प्लेटफार्म पर दो युवतियां बदहवाश इधर से उधर दौड़ रही थीं. चिल्ला रही थीं, “हमारा सामान! कुछ सामान छूट गया है दूसरी ट्रेन में!”
ट्रेन ने सीटी दी और आगे सरकने लगी. वे भागते-भागते दरवाजा खोलने के लिए कह रही थीं लेकिन, शायद किसी ने खोला नहीं या दरवाजे बंद रहे होंगे. हमने चिल्ला कर कहा, “आइए, यहां आ जाइए.” वे आईं और परेशान मुद्रा में बैठ गईं. उनके पास एक-एक बैग था. हमने उनसे बात की तो पता लगा, उनका बाकी सामान कुली ने किसी और ट्रेन में चढ़ा दिया था. जब तक पता लगा सामान सहित ट्रेन चल पड़ी. वे क्रिसमस के ठीक पहले के दिन थे. दोनों अध्यापिकाएं थीं. ग्वालियर में एन सी सी के प्रशिक्षण कैंप में आई थीं. गौरी मंगलौर से और एलिस अनंतपुर से. एलिस ज्यादा दुखी इसलिए थी कि भाई-बहिनों के लिए उसने क्रिसमस के जो उपहार खरीदे थे, वे भी सामान के साथ ही खो गए. हमने उन्हें ढाढस बंधाया. आगे चल कर टी.टी. ने उनके लिए सीट का इंतजाम कर दिया. अगले स्टेशन पर गौरी दूसरे डिब्बे में चली गई. एलिस काफी देर तक मेरे साथ बैठी बातें करती रही और फिर चली गई. एकदम सुबह सिकंदराबाद स्टेशन आया. फ्लाइट लेफ्टिनेंट शर्मा वहां उतर गए. तभी हाथ में बैंजो लिए एलिस भीतर आई और बोली, “हैदराबाद इज अवर लास्ट स्टेशन. वी डोंट नो ह्वेन वी विल मीट अगेन.” (हैदराबाद हमारा अंतिम स्टेशन है. पता नहीं फिर हम कब मिलेंगे.) उसने कहा, “मैं बैंजो ले आई हूं. उस पर एक धुन सुनाऊंगी.”
“अच्छा, कौन-सी धुन?”
“बताऊं?”
“ओं”
( जारी है )
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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