शादी की झर-फर
अप्रैल आखीर से यज्ञोपवीत और शादी की झर-फर शुरू हो गई. 4 मई को यज्ञोपवीत संस्कार किया गया. ईजा बहुत याद आई उस दिन. मां तो बचपन में ही इस दुनिया से चली गई थी. बाकी, कुछ देर पहले बाज्यू यह कह कर याद दिला गए- “बेटा, आज तेरी ईजा होती तो कितनी खुश होती.” शकुनांखर गाए जाने लगे. मैं धोती और जनेऊ पहन कर कंधे में लटके धोती के ही भिक्षा पात्र में बड़ी और छोटी भाभी मां और अन्य माताओं से भिक्षा मांगता था, “भो गुरो, इदम भिक्षाम, मया लब्ध! माई भिक्षा दे.” फिर दरवाजे से बाहर का चक्कर लगा कर आंसू पोंछते हुए लौट आया और काशी की पढ़ाई पूरी हो गई.
पांच मई के धूपीले दिन विवाह की रस्में शुरू हो गईं. फगारियां विवाह के शकुनांखर गाने लगीं:
बट्यावा बट्यावा रामीचंदर
शकुना द्योंलो, रामीचंदर
पैंलि शकुनो घ्यों-गूड़े को
फिरी दै-दूदै को…
बारात बटियाने की तैयारी शुरू हो गई. मेरे मस्तक से कलमों के पास तक लाल और सफेद बिंदियों से मुंह-लिखाई की गई. सिर पर कागज का रंगीन मुकुट कसा गया. हाथ में रंगीन छाता पकड़ाया गया. माताएं अक्षत परख कर शुभकामनाएं देने लगीं. और, दूर सालम से आए बाजे वालों के बाजे जाग उठे. इस बीच सभी बारातियों को पिठियां लगाया गया. पूरा गांव उमड़ आया. ददा पूरी व्यवस्था देखने में व्यस्त थे.
तभी मशकबीन गला साधने लगी- अॅ अॅ अॅ….पी पीई….पिपीई!
ढोल-नगाड़े दमदमा उठे- ढम! ढम! किड़् किड़….किड़…किड़…ढम! ढढम!ढम!ढम!
धुतुरी ने धाद लगा दीः धू ऊ ऊ ऊ….धु तु तु तु….धू तू
पंडित जी ने भी शंख बजा दिया- पू ऊ ऊ ऊ ह!
सफेद घेरदार चोले, चूड़ीदार, काली मखमली वास्कट, गले में रूमाल, पिंडलियों पर कसे काले जुराबों, और सिर पर सफेद पगड़ी में सजे दोनों छ्वलैतियों ने हाथ में ढाल-तलवार लेकर कमर लचकाना शुरू कर दिया.
अब बारात हमारे पत्थर-छाई छत वाले मकान के आंगन से चलने को तैयार हो गई. ढोल-नगाड़े के स्वर बदल गए:
ड्यांग्ड़……टिक्ड़ि……..ड्यांग्ड़……ड्यांग्ड़
टिक्ड़ि…..टिक्ड़ि…..ड्यांग्ड़……ड्यांग्ड़
टिक्ड़ि…..टिक्ड़ि…..टिक्ड़ि……टिक्ड़ि
ड़यांग्ड़…..टिक्ड़ि…….ड्यांग्ड़…..ड्यांग्ड़
छवलैतिए अपनी कला दिखा रहे हैं. कुछ देर बाद ढोल-नगाड़े के सुरों ने बारात के चलने का संकेत कर दिया है:
क्यान कि क्यान क्यान क्यान
घि घ्यान घ्यान घ्यान!
मशकबीन सुरीले सुर में बज रही है और बारात कालाआगर गांव से अठारह मील दूर उत्तर दिशा में दिख रहे पहाड़ों के बीच एक चोटी पर नाई गांव की ओर चल पड़ी है… कि क्यान क्यान क्यान… घि घ्यान घ्यान घ्यान! चार मील खनस्यूं, फिर गौला नदी के किनारे-किनारे और पहाड़ पर उकाव (चढ़ाई) पार कर करायल तथा टकुरा होते हुए एक बार फिर गौला के किनारे-किनारे जमराड़ी तक ग्यारह मील. वहां से जमराड़ी का खड़ा तीन मील का उकाव और फिर नाई गांव चार मील. सब पैदल. हम्फ! हम्फ!
जमराड़ी का उकाव ही चढ़ रहे थे कि न जाने कहां से खर्वान (साफ) आसमान में एक घुमंतु बादल घिर आया और शायद हमें देख कर बस थोड़ी देर रूक कर झमाझम बूंदें बरसा दीं. साथ चलते लोग कहने लगे- चलो, यह भी अच्छा शकुन हो गया. चीड़ों के पेड़ों से भरी उस खड़ी धार में चढ़ाई चढ़ते रहे, चढ़ते रहे. एकाध जगह थोड़ा विश्राम किया और फिर चल पड़े. चीड़ों की धार के बाद आया पलना-का-पानी जहां पानी की पतली धार से तुड़-तुड-तुड़़ पानी गिर रहा था. आसपास गीली जमीन और घास पर सैकड़ों छोटी-छोटी जोंकें लप-लपा रही थीं.
वहां से बांज, बुरांश, काफल और अंयार के पेड़ शुरू हो गए. अब रास्ता तिरछा था. आगे जाने के बाद सभी बाराती जमा हो गए और दूकानों के पास समतल जगह में ‘ड्यांग्ड़-ड्यांग्ड़… टिक्ड़ि… टिक्ड़ि’ के बाजे पर छ्वलैतियों ने नाच कर ढाल-तलवार के कई करतब दिखाया.
शाम ढले नाई गांव पहुंच गए. बारातियों की भीड़ घर के आंगन में जमा हो गई. बाजे वाले डट कर बाजे बजाने लगे. आंगन में छ्वलैतियों ने हवा में ढाल-तलवार लहराते हुए जम कर छोलिया नृत्य दिखाया.
इसी बीच बाज्यू बोले, “ग्यस है, ग्यस?” वे पैट्रोमैक्स खोज रहे थे.
“ग्यस किलै?” क्यों, पैट्रोमैक्स क्यों चाहिए? किसी घराती ने पूछा.
“वहां गांव में कह आया हूं मैं कि बारात पहुंच जाने पर ग्यस हिला कर इशारा करेंगे कि पहुंच गए हैं. तुम लोग भी घर के पास से ग्यस हिलाना.”
बाज्यू ने दो-तीन लोगों के साथ सामने की धार (पहाड़ी) से हमारे गांव-घर की ओर जलता पैट्रोमैक्स हिला कर इशारा किया कि बारात पहुंच गई है. तभी वहां से भी पैट्रोमैक्स हिलाया गया. संदेश पहुंच गया.
नाई गांव के उस उत्तरमुखी पहाड़ पर घर के आंगन में मई के महीने में भी बर्छी की तरह ठंडी हवा चल रही थी. ब्योली (वधू) के पिता जी ने मुझे घोड़े में से उतारा और स्वागत की धूलि-अर्ग रस्म शुरू हुई. जूता, जुराब उतार कर चौकी पर खड़ा हुआ. शरीर ठंड से थर-थर कांप रहा था और धूलि-अर्ग में पानी से मेरे पैर पखारे जा रहे थे. कहां दिल्ली की लू के थपेड़े और कहां उस गांव में ठंड से कंपकंपाता शरीर! खैर धूलि-अर्ग के बाद भीतर जाकर गर्म-गर्म चाय मिली तो जान में जान आई.
दिन भर लगभग अठारह मील पैदल चलने की थकान भी थी और विवाह का रोमांच भी. भूख भी लग आई थी. कुछ देर बाद भोजन की थाली परोस दी गई. मैंने एक समझ कर पूड़ी उठाई तो पता चला वे तो कागज जैसी पतली और बहुत चौड़ी तीन-चार पूड़ियां हैं. तब किसी ने कहा-पुरुषों के हाथ की बनी पूड़ियां हैं ये. हमारे गांव के कुछ आदमी बनाते हैं ऐसी पूड़ियां और वह भी चकला-बेलन से नहीं, हाथ से. हम बराती सुन कर हैरान! हाथ से इतनी पतली पूड़ियां? किसी ने कहा, गज़ब ही ठैरा महराज.
विवाह का मूहूर्त शुरू होने वाला था जो खुद ब्राह्ममुहूर्त में ही पड़ रहा था. खाना बन ही रहा था और कई लोग अब भी खा रहे थे. तभी पंडित जी ने कहा, “ब्योली को भी मंडप में लाने की तैयारी करें.”
“ब्योली? ब्योली ने तो अभी तक कुछ खाया भी नहीं है,” किसी ने कहा तो पंडितजी बोले, “हद है, अरे तो उसे जल्दी से खाना खिलाओ और फिर यहां मंडप में लाओ.” ब्योली मंडप में लाई गई और दोनों ओर के पंड़ितों ने विवाह की रस्में पूरी कराईं. सप्तपदी में सात फेरे लेते हुए संकल्प लिए गए. पंडितजी ने सप्तर्षि तारामंडल के वसिष्ठ तथा अरुंधती दोनों तारों की तरह सदा साथ रहने का आशीर्वाद दिया.
तब तक सुबह हो गई थी. आज ब्योली को लेकर बारात को लौटना था. इसलिए बारातियों के लिए चाय-पानी, नाश्ते, खाने का इंतजाम सुबह से ही शुरू कर दिया गया. दस बजे के आसपास ब्योली की विदाई की रस्म शुरू हो गई. मैं वर था लेकिन विदाई के भावुक क्षणों में मेरा भी गला बार-बार भर आ रहा था. ब्योली की विदाई के लिए पालकी आ गई. ब्योली को जब पालकी में बैठाया गया तो दीदियों, बहिनों, आमा, ईजा सभी का रोना शुरू हो गया. मैं चुपचाप मकान की बगल में कच्चे रास्ते पर थोड़ा आगे निकल गया और ओट में फफक कर आंसू बहाने लगा.
दुर्गोन की रस्म पूरी करने के लिए ब्योली के साथ बारात घर से निकल कर कुछ दूर तक आई लेकिन उसके बाद विदाई के लिए फिर उसे घर में ले जाया गया. विदाई हुई. महिलाएं रो रही थीं. ससुर जी को भी आंखें पौंछते देखा. पालकी में वधू को लेकर हम बारात के साथ अपने गांव की ओर वापस लौटे. मैं भी बारातियों के साथ पैदल ही चल रहा था. आते समय पहाड़ का जो उकाव (चढ़ाई) था, अब वह उतार हो गया था. उतार में कच्चे, पथरीले रास्ते पर पालकी वालों के लिए ब्योली की पालकी को संभाल कर ले जाना मुश्किल हो रहा था. इसलिए उसे पालकी से उतार कर घोड़े पर बिठाया. घोड़ा और भी चतुर निकला. वह सड़क के एकदम किनारे पर चलते हुए तिरछी आंख से पीठ पर बैठी ब्योली को भी देखता था. उतार होने के कारण घोड़े के पैर भी लचक रहे थे. ऊपर से रात भर की जागी ब्योली को नींद के झौंके आ रहे थे. अतः सावधानी के लिए वधू को घोड़े की पीठ पर से उतार लिया गया और वह भी हमारे साथ पैदल चलने लगी.
जमराड़ी, टकुरा पार कर करायल पहुंचे और ऐड़ी थान के पास धार पर विश्राम किया. जब खनस्यूं पहुंचे तो मुझे गौला के पार रौखड़ में दोस्त बटरोही जैसा दिखाई दिया. पास आया तो देखा बटरोही ही है. मैंने निमंत्रण का कार्ड तो भेज दिया था लेकिन यह पता नहीं था कि जंगलों से घिरे पहाड़ के कच्चे रास्ते पर मीलों पैदल चल कर वह यहां मेरी बारात में पहुंच जाएगा. तब न मोटर रोड थी और न गौला नदी पर पुल. अपने लेखक दोस्त को वहां देख कर मन बहुत खुश हुआ. वह भी बारात के संग सामने हमारे गांव के पहाड़ की ओर चल पड़ा. हमारी चींटियों जैसी कतार हमारे गांव के पहाड़ की चढ़ाई चढ़ने लगी.
आधा पहाड़ ही चढ़े थे कि शाम ढल गई और अंधेरा घिरने लगा. उसी अंधेरे में हम आगे बढ़ते रहे. ब्योली मेरे साथ-साथ चल रही थी. मेरे गांव के उस उकाव में खरड़-खरड़ पत्थरों की बड़ी भरमार थी. अंधेरे में चलते हुए पैर मुड़ने का डर था. ददा समझ गए. मुझसे बोले, “हाथ पकड़ कर सहारा दो.”
मैंने बहुत झिझकते हुए ब्योली का हाथ पकड़ा. उस दिन जीवन में पहली बार किसी बड़ी लड़की का हाथ पकड़ा तो पूरा शरीर ही जैसे झनझना उठा. मन बहुत खुश भी हुआ कि अब मेरे पास भी एक ऐसी अंतरंग दोस्त है, जिससे मैं अपने दिल की हर बात कर सकूंगा, अपने सुख-दुख सुना सकूंगा. बहरहाल, दिन भर की लंबी पैदल यात्रा के बाद हम घर पहुंच गए. मेरा विवाह सम्पन्न हो गया.
बटरोही से साथियों के बारे में कुछ बातें हुईं. थके हुए थे. खाना खाकर सो गए. सुबह फिर मैं और बटरोही खेत की मेंड़ पर, धूप में बैठ कर काफी देर तक बातें करते रहे. उसने नैनीताल को लौट जाने की बात की. मैंने दो-एक दिन रूकने को कहा लेकिन उसने कहा-विवाह हो गया है. अब लौट जाना चाहिए. और, वह उसी अनजान सड़क से नैनीताल को लौट गया, जिससे आया था. पहाड़ों को पार करता, रास्ता पूछते हुए वह दोपहर बाद बस तक पहुंचा होगा. मैं रह-रह कर उसके बारे में सोचता रहा. बिना बस के उतनी दूर मेरे गांव तक पैदल पहुंचना तब कोई आसान काम नहीं था. लेकिन, मेरे इस लेखक दोस्त ने वहां तक आने की हिम्मत दिखाई थी.
हम आठ-नौ दिन गांव में घर पर रहे और उसके बाद पत्नी के साथ ससुराल को रवाना हुआ. बाज्यू कहने लगे- मैं भी साथ जाऊंगा. ददा कालेज को लौटने से पहले उन्हें समझा गए थे कि ये दोनों सयाने बच्चे हैं, खुद चले जाएंगे. लेकिन, बाज्यू का मन साथ चलने का था तो वे आगे-आगे चले. हम दोनों देर शाम वहां पहुंचे. तीन-चार दिन वहां रह कर एक दिन मुक्तेश्वर से पहले लेटीबूंगा में पत्नी के मायके में रूके. फिर पत्नी के छोटे चचा जी के साथ दिल्ली को रवाना हुए. रात राजपुरा, हल्द्वानी में अपने रिश्तेदार ठेकेदार रामसिंह मेवाड़ी जी के घर पर बिताई.
गृहस्थ जीवन शुरू करने के लिए अगले दिन ट्रेन से दिल्ली को रवाना हुए. साथ में गृहस्थी का सामान यानी बाल्टी सैट में दो थालियां, दो गिलास, एक लोटा, चार कटोरियां, दो भगौने, डाडू (करछुल), पनेऊ (पलटा) और एक कुकर. हौलडौल में दरी, गद्दा, चादर और रजाई. इस लटि-पटी के साथ हल्द्वानी से ट्रेन पकड़ी. शादी का नया जोश था. प्रथम श्रेणी के टिकट खरीदे कि नई वधू को प्रथम श्रेणी में आराम से दिल्ली ले जाऊंगा, लेकिन प्रथम श्रेणी के डिब्बे में चढ़े और सीट ढूंढी तो कुछ पता ही नहीं लगा. गैलरी में घूम-घूम कर पूछता रहा, कैबिनों के दरवाजे खटखटाए, लेकिन किसी ने कुछ नहीं बताया. न केयरटेकर का अता-पता था. थक-हार कर गैलरी में ही होल्डाल पर नववधू को बैठाया. मजबूर होकर देखता रहा. जिससे पूछता, वह कहता भीतर उनकी अपनी रिजर्व सीटें हैं. तभी एक केबिन का दरवाजा खुला. भीतर से एक दिव्य मूर्ति स्वामी जी निकले. मैंने उनसे प्रार्थना की. वे बिना सुने टायलेट की ओर चले गए. लौटे तो उनके चेलों ने कहा भीतर वे लोग बैठे हैं, दरवाजा मत खटखटाना. मैं किताबों में पढ़े स्वामी-संन्यासियों के वर्णन याद करने लगा कि उनमें कितनी दया-ममता होती है. यहां सब कुछ उसका उल्टा दिख रहा था. हो सकता है, केबिन के भीतर वे तब भी अपने चेलों को दया-ममता का प्रवचन दे रहे हों.
ट्रेन हापुड़ में रूकी. बहुत गर्मी थी. मैंने अपने जोश में कहा, सामने पीने के पानी के नल से भाग कर लोटे में पानी भर लाता हूं. पानी भर ही रहा था कि पीछे से तेज आवाज कानों में पड़ी, “ट्रेन चल पड़ी है.” नववधू चिल्ला रही थी.
मैं बदहवाश होकर ट्रेन की ओर भागा और चलती ट्रेन के दरवाजे का डंडा पकड़ लिया. भीतर आकर सोचता रहा- हे भगवान, अगर अभी ट्रेन छूट गई होती तो नववधू और उसके चाचा का क्या होता? वे कहां जाते? उन्हें तो यह भी पता नहीं था कि दिल्ली में कहां जाना है?
“तो यह कहो, शादी के बाद शहर का अनुभव ट्रेन से ही शुरू हो गया?”
“होई, लेकिन यह तो शुरूआत थी.”
“शुरूआत? दिल्ली में तो फिर जमी होगी गृहस्थी?”
“द कहां, तब तक नई उड़ान भरने के लिए एक चिट्ठी पहुंच गई- पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय से. सुनोगे वह किस्सा?”
“किले नैं, ओं”
( जारी है )
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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