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सुनते हैं अल्मोड़ा की हरुली का भाई किसी जिले में बड़ा अफसर है

अल्मोड़ा शहर की सरहद कर्बला से शुरू होती है कर्बला एक तिराहा है, जहां कुछ दुकानें हैं,वहीं कहीं एक जगह कैरम बोर्ड पर दोपहर बाद से हाथ आजमाते युवा है, जो शाम होते-होते कथित जोश से लबरेज हो जाते हैं, दाहिनी तरफ देवदार और चीड़ के पेड़ों से घिर गुमनाम सा कैंपस है जिसके बाहर एक बोर्ड लगा है जिसको नोटिस नहीं किया जाता. (Leprosy Mission Trust Almora)

अल्मोड़े का हरिया पेले

लेप्रोसी मिशन अस्पताल की सूचना देने वाला यह बोर्ड, दशकों से चुपचाप खड़ा है. बोर्ड के आगे एक ऐसा अस्पताल स्थित है, जिसके बारे में समाज की अपनी धारणाएं हैं, विचार हैं और उनसे भी आगे कुछ रूढ़ियां हैं. यही रूढ़ियां इस अस्पताल को नोटिस में न लिए जाने का प्रमुख कारण भी बनती है.(Leprosy Mission Trust Almora)

देवदार की उम्र दराज पेड़ों -जिन्हें अपनी उम्र का कोई ठीक-ठीक पता नहीं है-से छनकर आती धूप, हवा और एक अबूझ सुगंध की छाया में एक गिरजाघर स्थित है. देखने में बिल्कुल सत्तर के दशक के आरंभिक सालों की फिल्मों का गिरजाघर.गिरजाघर के दरवाजे पर सीधे भगवान के घर की घंटी बजाने के लिए लंबी मगर कोमल रस्सी लटकी है, जो गिरजाघर के ऊपर स्थित पीतल के बड़े घंटे से जुड़ती हैं. रस्सी का कोमल होना ध्यान देने योग्य है क्योंकि बकौल फादर, ईश्वर के घर फरियाद लेकर आने वाले में बच्चे भी होते हैं.

गिरजाघर के अंदर से बहुत हाई फाई नहीं है, करीने से बड़ी बड़ी बेंचें पड़ी हैं,जिनमें पीछे की ओर बने खानों में बाइबल और अन्य यहूदी साहित्य की किताबें कायदे से रखी गई है, सामने की ओर कुछ अनौपचारिक किस्म के वाद्य यंत्र रखे हैं. कई सारे सलीब, मोमबत्तियां और आंखों में करुणा लिए अपनी भेड़ को पुचकारता,वह महान गडरिया, जिसे दुनिया ने ईसा मसीह के नाम से जाना भी एक साफ-सुथरे फ्रेम के अंदर कैद होकर टंगा है. अब भी उसी कोमलता से मुस्करा रहा है. गिरजे के बाहर एक छोटी सी डिस्पेंसरी है, एकदम ऐतिहासिक डिस्पेंसरी. यह इतिहास के उस कोने में खड़ी डिस्पेंसरी है जिसमें लगता है कि बस कुछ ही समय में सफेद चोगे में लिपटे हुए, जंजीर से चश्मे को गले में लटकाए हुए और कमर में सुनहरी रस्सी बांधे कोई फादर अभी अभी निकलने वाले हैं, परंतु ऐसा है नहीं. एक बिल्कुल आधुनिक युवा डॉक्टर निकल कर बाहर आते हैं और बेहद सौम्य, संतुलित आवाज में आने का प्रयोजन पूछ कर वापस डिस्पेंसरी में चले आते हैं.

अल्मोड़े के पान और पान वाले

आगे दूर दूर तक फैली हुई बैरक हैं. दूर से लगता है कि यह जैसे युद्ध बंदियों की बैरक हैं. हारे हुए मुल्क के योद्धा, सिपाही अपनी अपनी जंग लड़ते लड़ते जैसे भटक गए हों और यहां आ पहुंचे हों. यहां वाकई किसी जंग की बंदी कैद है. एक ऐसी जंग जिसमें दुश्मन और लड़ाई का मैदान अपने आप में ही स्थित है. एकदम जाना पहचाना चिर परिचित.

यहां रहने वाले तमाम बुजुर्गों की उंगलियां पैरों के अंगूठे और कुछ अन्य अंग, कुष्ठ रोग के कारण सड़ गलकर गिर चुके हैं. चेहरे पर बेदाग जिंदगी का दागदार उजाला, उसकी झुर्रियों में जैसे चिपट सा गया हो. जिंदगी, उस उजाले को नहीं छोड़ रही है और उजाला जिंदगी को नहीं. उजाले और जिंदगी के बीच में फंसा आदमी, दोनों की लड़ाई का मौन साक्षी है या कहें कि दोनों की लड़ाई का युद्ध बंदी.

इनमें राम सिंह बिष्ट, जानकी, खुशहाली राम, पार्वती, सलमा, मीना बेनसन, माइकल, प्रीतम, राजू से लेकर न जाने कितने लोग हैं जिनके नाम पता नहीं चल पाए. सब अपने-अपने घरों से दूर, अपने अपने ईजा, बाबू, बुबू, आमा से दूर. खेतों से दूर. नौले से दूर. बाखली से दूर. पहाड़ से दूर. बाघ बकरी मुर्गी से दूर. सपनों से दूर अपनों से दूर.

यह दूरी सब की कमर तोड़ चुकी है. इसके अलावा उपेक्षा ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है उनकी कमर तोड़ने में. हालांकि इनमें से ज्यादातर महंगाई को जिम्मेदार मान कर कुछ छुपाने की असफल कोशिश करते हैं, पकड़े जाते हैं. पकड़े जाने पर कई पोपले मुंह एक साथ ठठ्ठा मारने की असफल प्रयास करने में लग जाते हैं.

ऐसा नहीं है कि इनमें सारे अनाथ और परिवार हीन हों.ज्यादातर के घर हैं, बच्चे हैं पर समाज के किसी अज्ञात डर से उन्हें छोड़ा गया है. यह समाज अक्सर हमारे साहस, हमारी नैतिकता, मूल्यों को बिना बताए खा जाता है और न जाने कितनी बार ऐसी कही अनकही, अनगढ़ मान्यताओं के दलदल में फंसा देता है जहां से निकलने में पुश्तें लग जाती हैं.

अल्मोड़ा के फालतू साहब और उनका पीपीपी प्लान

भर्ती मरीजों (मरीजों से बेहतर होगा ट्रस्टीयों) की एक नियमित दिनचर्या है. अस्पताल और डिस्पेंसरी प्रबंधन द्वारा समय से दवा, समय से नाश्ता, समय से भोजन का पूरा इंतजाम है. पर पूर्ण रूप से दान पर चलने वाली यह संस्था अक्सर खर्च पूरे करने की दौड़ में हाँफने लगती है.

माइकल जो कि नैनीताल जिले से हैं पचपन वर्षीय युवा है, रसोई की जिम्मेदारी संभालते हैं. बिल्कुल आर्मी मेस की तरह. इसी तरह शालिनी बेंजामिन सब को उठाने, नहलाने, प्रार्थना के लिए घेरने और दवाई खिलाकर नाश्ता कराने का काम देखती हैं. और भी लोगों के काम बटे हुए हैं.

यह पूरा परिसर जो सैकड़ों देवदारू और उससे भी ज्यादा चीड़ के पेड़ों से घिरा हुआ है, आसपास के भूमाफिया की निगाह में है. कई बार कई तरफ से कब्जा करने के प्रयास भी होते रहे हैं. फिर भी इस परिसर के बीचोबीच जिंदगी की जंग में कथित तौर पर हार चुके या मजबूती से लड़ते हुए युद्ध बंदी बना लिए गए लोगों का एक ऐसा गांव है जहां सब अपने हैं सब निराले, हैं, सब विविधता पूर्ण हैं.उनकी अपनी दुनिया है जिसमें, हंसी चुटकुले, ईमानदारी पूर्ण जिम्मेदारी, उनकी लड़ाई झगड़े और सामूहिक रूप से आंसू छिपाने का प्रयास भी शामिल है.

कभी कभी किसी के जन्मदिन या किसी के बच्चे का जन्मदिन या बच्चे के बच्चे का जन्मदिन या अन्य किसी अवसर पर लोग अच्छा खाना, अच्छा संगीत और कुछ देर को झूठा आनंद देने के लिए आते हैं. पर शाम से जैसे एक सन्नाटा और उस सन्नाटे में मंद मंद चलने वाली हवा दूर पहाड़ के कुत्तों के भौंकने की आवाज के साथ कोरस मिलाते रहते हैं. वार्ड नंबर सात में बिस्तर पर बैठी हुई हरुली की मां, दूर बेरीनाग के किसी गांव का कोई भूला बिसरा विवाह गीत गाते गाते अपने दूरलोक की स्मृतियों में गोते लगाती रहती है. सुनते हैं हरुली का भाई किसी जिले में बड़ा अफसर है.

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विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं

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