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कुन्चा : रं (शौका) समुदाय की एक कथा

-प्रताप गर्ब्याल

सूरज ने अपने सातों अश्वों को अस्तबल में बांध लिया है किन्तु उत्ताप अभी भी बरकरार है. सांझ ढ़लने के बाद भी वातावरण में बीथीं ऊष्मा कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है. चैत्र बैशाख के इन दिनों अकसर सांझ ढ़लने के बाद भी उमस के कारण घर के अन्दर पैर रखने का भी मन ही नहीं करता… जसवा के परिवार ने कुछ ही क्षण पूर्व रात्रि का भोजन कर लिया था. परिवार क्या है, परिवार के नाम पर उनके यहां जमा कुल तीन सदस्य हैं. वह, उसकी न्हां (माँ) और उसके बा (पिता जी). उसकी माँ ने न्हूस्यिन (चौड़े पत्ते वाला एक वृक्ष) के नीचे जंगले के निकट जसवा के लिये बिस्तरा लगा दिया है. अमूमन इन दिनों उमस के कारण सब लोग खेड़े में घर के बाहर ही आंगन में चूला-चौकी करते हैं तथा खा-पी कर बाहर ही सोते जागते हैं. (Kuncha story Shauka community)

जसवा की माँ सर में हाथ फेरकर उसे पुचकारती हैं “सो जा बेटे कल स्कूल के लिये देरी हो जायेगी.”

जसवा अनमना होकर धीरे से बिस्तर से आ लगता है. वह सोने के प्रयास में अपनी आँखें जबरदस्ती भींच लेता है. अक्सर बाहर सोते समय उसे पिता जी की दी गई नसीहत याद आती है ‘जब भी हो पेड़ के नीचे ही बिस्तर लगाना चाहिये. रात में अगर बारिश भी हो जाये तो समेटने के लिये पर्याप्त समय मिल जाता है. हमारा जसवा तो वैसे भी सुबह देर से उठता है. देर से भी उठे तो आँखें चुधियांति नहीं.’

शायद माँ ने इसीलिये आज भी बिस्तर पेड़ के नीचे लगाया है. यह तो ठीक है पर पिता जी उसके लिये ऐसा क्यों कहते होंगे, मुश्किल से तो एक दो बार ही देर से उठा हूंगा. हां, यह बात अलग है कि इसके लिये माँ को हमेशा ही बहुत मेहनत करनी पडी है. 

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अब तो रात भी काफी गुजर चुकी है. आकाश में तारे अभी भी लुकाछिपी कर रहे हैं. दिन भर के खेल के थकान से चूर होने के बाद भी निद्रा रानी कहां गुम गई… पता नहीं वह इतनी देर तक उसे आज छू भी नहीं पाया. आज शाम ही को तो उन्होंने गागाछाछा (रं बाहुल्य क्षेत्र में कतार में एक के पीछे एक का कमर पकड़ कर खेला जाने वाला खेल) खेला था. खेड़ा में दीदी लोगों के पीछे-पीछे उनकी पूँछ बनकर गागाछाछा खेलना उसे बहुत भाता है. कितने ही बार उसे चोट लग चुका है किन्तु पता नहीं फिर भी क्यों बार-बार खेल में उनकी पूँछ बनने चला जाता है यह उसकी समझ से भी बाहर है.

उसके पास ही उसकी माँ और पिता जी भी लेटे हुए हैं. चाँद तारों को निहारते निहारते उसकी आँखें थक सी जाती हैं. बहुत कोशिश के बाद ही अब नींद से उसकी आँखें गोल हुई जा रही हैं.

आँखें लगने को ही थीं कि कानों में उसके माँ की फुसफुसाहट सुनाई देती है, “अगर दस लक्त्वो (पूनी) के बराबर ऊन हमारे पास और होता तो चान का जुता चुटका (रोएदार कम्बल) बुनकर तैयार हो चुका होता. अब हम कैसे कुन्चा की तैयारी करें.”

न्हा ऐसा क्यों कहती होंगी वह समझ नहीं सका. चुटका के अपूर्ण रहने से कुन्चा की तैयारी कैसे नहीं हो पाता है यह समझना उसकी सोच की परिधि से बाहर है. आसान ही तो है, तलब्नी (एक लम्बे रोए वाला हिमालयी क्षेत्र में पाये जाने वाला बैल) पर सामान लादा और कुन्चा चल दिए, इतना ही उसे पता है.

उसके बा (पिता जी) धीमी सी लम्बी श्वांस भरते हैं. “क्या करें इस वर्ष ऐसा ही हो पड़ा. काश! जुता हुआ चुटका पूरा हो पाता…. यदि पूरा होता तो उसकी अच्छी कीमत मिल जाती. कम से कम ब्यांस के लिए कुछ दाना-पानी तो जोड़ पाते. इस साल तो दन (कालीन), चुटका सब अच्छे दामों पर बिक रहे हैं सुना.”

ओह, चान पर जुते चुटका को बेचने की बात हो रही है शायद, उसे इतना ही स्पष्ट हुआ. किन्तु चान पर जुता चुटका दाना-पानी कैसे जोड़ता है यह उसके समझ में अब भी नहीं आया. कई बार इस अधूरे चुटका के लिए माँ को बड़बड़ाते सुना है और पिता को सर खुजाते हुए धरती ताकते भी देखा है. 

“बच्चे का पाजामा भी काफी पुराना हो चुका है. तीन चार जगहों पर तो मैं पहले ही पैबन्द लगा चुकी हूं अब तो पैबन्द लगाने लायक भी नहीं है,  बिलकुल जीर्ण हो चुका है. एक जोड़ा अचकन पाजामा भी चाहिए था इसके लिए.” माँ अपनी बात रखतीं हैं. माँ की आँगड़ी पर भी तो कई स्थानों में टल्ली लगी है, वह सोचता है माँ अपनी बात भी तो करें.

फिर उसे एकाएक ध्यान आता है अचकन के बांह की सिलाई खुलने की बात तो अभी पिता जी को पता ही नहीं है. अगर पता चल जाये तो… उसके हाथ पैर ढीले पड़ गए. अनायास ही उसका हाथ बांये गाल में जा पहुंचता है. आज पाठशाला से वापसी के समय पीपल के पेड़ के चबूतरे में तिंकर के मनी बुबू बांहों में ऊन का रोला चढ़ाए योगा (एक तरह के ऊनी बूट के तले के लिए बुनी जाने वाली मोटी कताई) कात रहे थे.  पिरमू ज्यक्पा (शैतान) भी वहां गुच्चा खेल रहा था. नजरें मिलते ही “देखें, गर्ब्यांग का पहलवान ताकतवर है या तिंकर का पहलवान, दोनों एक बार तमाशा दिखाना तो” उनका इतना कहना था कि पिरमू खेल छोडकर उसका रास्ता रोकने आ गया. वह उससे दूर हटने का प्रयास करता रहा किन्तु पिरमू उसके पीछे हाथ धोकर पड़ गया. अब भी भागना तो शौच खाने के बराबर है, यह समझकर जसवा बेचारे को भी उससे भिड़ना ही पड़ा. भिड़ंत में शैतान ने उसके अचकन के बांह की सिलाई उधेड़ दी. कोई देख ना ले इस डर से कुहनी दबाये ही सीधे अपने घर आ पहुंचा. घर में पिता जी को बिना बताये ही सारा वृतांत माँ को सुनाया. माँ ने बिना अधिक तहकीकात के उसकी सिलाई कर दी तब उसके जान में जान आई. 

“अब कुछ भी हो बच्चे का ओढ़ने वाला चुटका ही बेच देते हैं. पुराना भी हो तो भी कुछ तो मिलेगा ही. इस बार तो पुराने दन चुटका भी अच्छी कीमत पर जा रहे हैं सुना, कल मैं भी मेले के लिए निकल लेता हूं…  गोकुल्या (गोकुलेश्वर). बागेश्वर मेले का समय तो पहले ही निकल चुका है.” उसके पिता जी रास्ता सुझाते हैं.

यह सब सुनकर अब जसवा के कान खड़े हो गये. 

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“बच्चे के ओढ़ने के लिए एक ही तो चुटका है उसे बेच देंगे तो वह क्या ओढ़ेगा” माँ की फुसफुसाहट अब तीव्र स्वर में परिवर्तित हो चुकी थी. उनकी मलिन मुखाकृति उसे चन्द्रमा के धूमिल प्रकाश में और भी मलिन लगने लगती है. 

“बच्चा हमारे साथ ही सोयेगा और क्या कर सकते हैं” 

“अभी तो छोटा ही है, एक दो साल बाद ही बड़ा हो जायेगा. उस समय हम क्या करेंगे.” माँ को भविष्य की चिन्ता आहत करने लगी.

“तब की तब ही देखेंगे. कुछ न कुछ रास्ता तो निकल ही आयेगा तब तक.” पिता जी ने माँ को दो टूक जवाब दिया. 

पिता जी के इस तरह की हवाई बातें पहले भी माँ को अच्छी नहीं लगती थी, सो अभी भी अच्छी नहीं लगी.  

यह सब बातें सुनकर जसवा को तो जैसे सांप सूँघ गया. इस चुटके में तो उसकी कितनी ही यादें समाई हुई हैं. ठंड में उसके बदन को तपाने वाला, पढ़ते समय उसके पीठ को टेक देने वाले उसके इस प्रिय चुटके ने उसका साथ कभी नहीं छोड़ा. उसके बिस्तर में घुसने के बाद कभी छोटे बच्चों से गोपनीयता बरतने के लिये चूल्हे को घेरकर इकट्ठे बैठे बड़ों की बतियाई गई बातें भी तो इसी चुटके के अन्दर नींद में होने का बहाना करके सुना करता था. और वह ऊपर कुन्चा जाते समय मालिपा पड़ाव की बातें…  शायद ही भूल पायेगा वह. चाँदनी रात में इस चुटके के रुवों को इधर उधर हटाकर छन्नी से महीन छिद्रों से तारों को लुका-छिपी खेलते देखना कितना अच्छा लगता था उसे…  उन छिद्रों में आँखें गढ़ाए घंटों तक वह भी तो चाँद तारों के साथ खेला करता था.  भोर सवेरे पौ फटने से पूर्व जब नींद उस पर पूरी तरह हावी रहती थी उसके पिता जी इसी चुटके को शरीर से विलग कर कहा करते थे “रचिन पइकू, दगरू स्युंग्म इन. (उठो पहलवान, अब सामान बांधना हैं)” तब उसे ऐसा लगता था जैसे उसके शरीर से खाल की एक परत निकाल रहे हों. किन्तु क्या करे, उठना ही पड़ता था क्योंकि उन्हें अपने गंतव्य जो पहुंचना होता था.  ये गुदगुदाने वाले सारे अवसर इस बार के गोकुल्या मेले में सब छिन जायेंगे यह निश्चित सा ही हो गया था और क्या पता…  उसकी इस चुटके के साथ जुड़ी मिठास भरी स्मृतियां भी इस मेले में खो ही जायेंगी… उसे डर सा लगने लगा… किन्तु उसका बाल मन तब यह कहां समझता था कि स्मृतियां ही तो एक ऐसी निधि हैं जो जीवन पर्यन्त मनुष्य का साथ नहीं छोड़तीं. यह सब बातें सोच-सोच कर उसकी आँखें भर आती हैं.  

अन्तत: वह दिन भी आ गया. जसवा के पिता जी उसके चुटके को पीठ में लादे कल्या कका के साथ गोकुल्या के लिए रवाना हो  गये. जंगले से ही जितनी दूर तक आँखों की रौशनी साथ देती है नज़रों से पीछा कर उसने अपने प्रिय चुटके को अलविदा किया. पिता के एक एक कदम के ठुमक के साथ हुलकते-छलकते उसका चुटुक भी धीरे-धीरे अपने पिता की अस्पष्ट हो रही आकृति के साथ अब आँखों से ओझल हो चुका था. 

जसवा के पिता जी घर से तो बाहर निकल आये किन्तु दुख और चिन्ता की गठरी भी उनके साथ-साथ चली आई. कुन्चा जाने की बात का स्मरण होते ही माथे की लकीरें और गहरी हो गई. कितना कठिन है कुन्चा की तैयारी करना और कुन्चा जाना… धनाढ्य लोगों के लिए तो चहल-पहल और मस्ती ही मस्ती है किन्तु उन जैसे गरीब गुरबा लोगों के लिए तो गले की फाँस से कम नहीं है… उसके मन में एक टीस सी उठी. नज्यंग् मालिपा के इतने दुरूह रास्तों में बिना अच्छे जानवरों के साथ कुन्चा जाने की कल्पना करना भी कितना कष्टकर है यह उससे अच्छा कौन समझ सकता था. घने काले बादलों की तरह मन में घुमड़ते बबंडर को वह किसी तरह इधर उधर हटाता है… अभी तो बस इस चुटके की अच्छी कीमत मिल जाए…, अपना ध्यान वह इस ओर केन्द्रित करता है. तीस रुपये के करीब तो मिल ही जाने चाहिए. यदि तीस मिल जाते हैं तो वापसी में अस्यिन्गडा से बीस सेर गेहूं, चार सेर के करीब काली दाल और आधा पउवा घी भी खरीदकर ले जाना होगा. बाजार में कमतोल लाला की दूकान से थोड़ा सा चावल और थोड़ा तेल भी खरीद लेंगे. जसवा के लिए कुमैया के दूकान से एक जोड़ी अचकन पाजामा तथा जसवा की माँ के लिए आँगड़ी का कपडा भी ले लेंगे. जसवा की माँ ने अपने टल्ली लगे आँगड़ी के विषय में तो उसे कभी कुछ कहा नहीं किन्तु मुझे ही तो उनका ध्यान रखना होगा ना… घरवाली के टल्ली से छपे आँगड़ी का ध्यान आते ही उसका सर लाचारी से नीचे झुक जाता है…  उस दिन चिन्तामनी (चिन्तामणी) के दूकान के सामने वाले रास्ते से गुजरते समय बच्चा जलेबी खाने की तीव्र इच्छा जाहिर कर रहा था, इस बार उसकी यह इच्छा भी पूरी कर ही देते हैं… चालीस के करीब मिल जाएँ तो… तब तो और छोटी-मोटी आवश्यकता की चीजें भी खरीद लेंगे, मन में इस प्रकार की कई बातों का कारवां चलने लगता है. इन सामानों को पीठ में लादकर दो-तीन बार ब्यांस पहुंचाने भी तो जाना होगा. एक ही तलब्नी बेचारा न्हज्यंग् मालिपा के उन खराब रास्तों पर क्या-क्या ढो सकेगा. पूरे रास्ते भर उसके मन में इस प्रकार के प्रश्नोत्तर का दौर चलता ही रहता है. 

उसके दूसरे दिन सुबह वे लोग बरम्यिड्या धुरा पहुंच गये. जसवा के पिता जी ने पीठ में लदा बोझ एक चौड़े से पत्थर के ऊपर रखा. चोटी में चलने वाली ठंडी बयार के स्पर्श ने कुछ ही देर में चढ़ाई चढ़ते समय माथे से गालों को भिगोते हुए गरदन तक बह आए पसीने को सोख लिया. बोझ के भार तले दबकर पसीने से पीठ में चिपक आया कुर्ता भी आजा़दी पाकर खिल सा गया. जसवा के पिता जी पास ही एक हल्के ढालानी घास के मैदान में हाथ-पैर फैलाकर लेटते हैं और खुले आकाश की ओर ताकते हैं. आज आकाश में एक भी कतरा बादल नहीं है. घर से चलते समय मन में उमड़ आई आशंका, अनिश्चितता और असुरक्षा के काले बादल भी पहाड़ की ठंडी हवाओं का सानिध्य पाकर एक बार के लिए खुद-ब-खुद विघटित होकर विलीन हो गये …. ठीक वैसे ही जैसे शनि द्की वक्र गति का प्रक्षेप अंजनी कुमार का नाम जपने मात्र से ही विलीन हो जाता है. वह एक पैर बडी सी शिला के ऊपर रखकर पहाडी के दूसरी तरफ नीचे की ओर झांकता है. संकरी टेढ़ी-मेढ़ी पगडन्डी कहीं चीड़ के झुरमुट की ओट में छुप जाती है, कहीं पहाडी के बीच गधेरों में खो जाती है और कहीं उस पार सर निकालती दिखती है. बीच में कहीं भी लोगों की बस्ती का नाम तक नहीं. यह सर्पीली पगडंडी अन्ततः एक लम्बे से खुले मैदान से जा मिलती है. दूर पूरब से लहराकर आती एक छोटी सी नदी इस मैदान का सीना बीचों-बीच चीरते हए नीचे पश्चिम की ओर पहाड़ियों की ओट में छुपने जाती हुई उसे ऐसे प्रतीत होता है जैसे कोई उच्छृंखल बच्चा कहीं से आकर उत्पात मचाने के बाद भागकर अपने माँ के आँचल में छुपने जा चला हो. यही चमल्या के किनारे बसा गोकुल्या है शायद, वह अन्दाजा लगाता है. 

इस ऊंची पहाड़ी से गोकुल्या कुछ अलग सा ही दिखता है. तंग्तंग्ती, देथला के रास्ते तो वह दो-तीन बार पहले भी आ चुका है किन्तु इस मार्ग से प्रथम बार ही है. चमल्या के वार-पार केले के वृक्षों से लदी बस्तियों में पत्तों के बीच से झांकते छोटे-छोटे मकान उसे सुबह की ओस से धुले तरोताज़ा दिखते हैं. सूरज के ताप में भाप छोडती छतों के नीचे कमेड से लिपे चमचमाते मकानों की दीवारों ने उसकी आँखों में भी एक बार के लिए तो चमक ला दी. उस मैदान में कई स्थानों से उड़ते धुंए ने उसे मेला स्थल होने का संकेत दे दिया. हां, यही तो है वह मेला स्थल. वह अतीत के मेला स्थल से तुलना करने करता है. उसे कुछ बदला-बदला सा लगता है यह स्थल. शायद समय के अन्तराल ने उसके साथ इसे भी नहीं छोडा है, वह सोचता है. 

दूर, उस मैदान के एक ओर जमीन में पसरे श्वेत तम्बुओं का झुन्ड उसे किसी मैदान में उग आए कुकुरमुत्तों की तरह दिखता है. यही रं लोगों की दूकानें है शायद… उसने अन्दाजा लगाया. ढ़लान उतरते समय उसके पैर खुद-ब-खुद उठते ही चले गये. दिन में भोजन के समय वे गोकुल्या पहुंच गये.  

आज गोकुल्या मेले में बहुत चहल-पहल है. कहीं पर लोगों को खुल्लम-खुला बेरोकटोक जुआ खेलते देखता है, कहीं जलेबी, बरफी की दुकानों में वलन वलनस्या (रं बोली में रं समुदाय के अतिरिक्त लोकल के पुरुष स्त्री के लिए प्रयुक्त होने वाला शब्द) लोगों को मधुमक्खियों के साथ भिनभिनाते हुए उसका रसास्वादन करते देखता है, कहीं घोड़े खच्चरों का मोल-भाव होते उसे दिखता है तो कहीं चूड़ी, कंगन के फड़ में चटक लाल साड़ी-जम्फर में लिपटे वलनस्या लोगों को सर से सर मिलाते हुए रीबन, जूड़ा, चिमटी खरीदते हुए वह देखता है. वलनस्या बेचारियां का भी बंग्बा (चौदास) की औरतों की तरह कमर के नीचे का पिछला हिस्सा बारहों मास या तो हरी धरती से चिपका रहता है या फिर विकट पहाडियों में या ऊंचे वृक्षों की पतली डालियों में घास, लकडी की खोज में अपनी जान का सौदा करते बीतता है. सजने-संवरने का अवसर उनका या तो गौरा जैसे तीज त्यौहार या फिर ऐसे ही छोटे-मोटे मेले-वेले में होता है. सो अभी भी इन्होंने अपनी समझ के अनुसार खुलकर मन से श्रृंगार किया है. बालों में चपचप तेल चुपड़े लाल-हरी साड़ियों में लिपटे झुंड में एक दूसरे का हाथ पकड़ कर इधर-उधर थिरकते वलनस्या लोग एक बार के लिए तो उसे आकाश में सतरंगी इन्द्र धनुष के अवतरित होने का भान देता है. 

रं लोगों की दूकानें दूसरी तरफ है. कल्या कका और जसवा के पिता जी ने भी मिलकर एक ओर तम्बू गाड़ दिया. बिक्री के चुटके, चादर और कालीनों को तहकर करीने से लगा दिया. खरीददारों के मांग के अनुसार कल्या कका इन वस्तुओं को दरी में बिछाकर दिखाते रहे और बेचते रहे. जसवा के पिता जी ने भी जसवा का पुराना चुटका तह लगाकर दूसरे तरफ रख दिया.  

दूसरे दिन भोजन काल तक कल्या कका के दो चुटुक, एक कालीन, तीन चादर अच्छे कीमत पर बिक गये. कल तक तो उसके चुटुक को पूछने वाला एक भी ग्राहक नहीं पनपा  किन्तु अभी-अभी एक अधेड सा वलन उनके दूकान में आ धमका है. उस अधेड़ वलन ने कल्या कका की ओर मुड़कर पूछा, “दादी, थुल्मा छ त बेच्चो की? (भैया, चुटका है क्या बेचने के लिए?)

“छै छै (है है)” कल्या कका तह किए हुए चुटकों की ओर उँगली दिखाकर उत्तर देते हैं.

“ध्यखा त धंइ. (दिखाइये तो फिर)”

कल्या कका अपने दोनों चुटकों को दरी में फैलाकर दिखाते हैं “हेरै. एकदम फसक्लास छै. थुल्मा ता इयो मेलामा कतीपै पायल्वो पर एस्वो तात्वो गरन्या लाम्वो रुवा वाला तुमील्ये कां लंग् नपा. (देखिये, एकदम फर्स्ट क्लास है. चुटके तो इस मेले में कई मिलेंगे किन्तु ऐसा गरम लम्बे रुवा वाला आपको कहीं नहीं मिलेगा)”

“कति कति का हुन (कितने कितने के हैं) ” उस ग्राहक ने चुटके के रुवों को उंगलियों से मसलकर जांचते हुए पूछा.

“इयो तीन बिस्यी क्व, इयो तीन बीस्यी पांच क्व (यह साठ का है और यह पैंसठ का)”

“योत झिक्कइ म्हंगो होइग्यो नमाइ कम्ति दाम को नाइथी त तम खांइ. मुखांइ त झिक्क पोइसा नाइथी. (यह तो कुछ ज्यादे ही दाम के हो गये. कुछ कम कीमत के नहीं हैं क्या आपके पास)”

तुम अपना चुटुक दिखा दो कहकर कल्या कका जसवा के पिता जी की ओर इशारा करते हैं. 

“इयो दुइ बीस्यी दस मा ल्हीजा (इसे पैतालीस में ले लो)” जसवा के पिता जी चुटके को दरी में फैला देते हैं. 

वह वलन ग्राहक चुटके को दोनों तरफ उलट-पलट कर देखता है  “एक बीसी दस दिनाउ (तीस ले लीजिये)”

जसवा के पिता जी सोचते हैं एक ही बार में तीस देने के लिए तैयार हो गया, इससे अधिक कीमत भी मिल सकती है. 

” नह्वअ़. एतिमा ता नद्युंग् (नहीं इतने में तो नहीं दूंगा)”

“दिन्या भया दे,  अइल्लइ खनखन प्वंइसा गन दिनांउ (देना है तो दीजिये, अभी खनखन नकद गिन देता हूं.)”

“नह्वअ नह्वअ, ततिमा ता नानु आसन लंग् नआ पइ थुलमा कस्व्अ द्यैल्व्अ ठारिन्छै. (ना ना, इतने में तो छोटा आसन भी नहीं मिलता है फिर इतना बडा चुटका कैसे दे देंगे सोचते हो)” जसवा के पिता जी का लोभ बढ़ जाता है. वह मोल-भाव करते हैं. 

ग्राहक को न जाने क्या सूझा एकाएक दूकान छोडकर चला गया. चलो कोई बात नहीं अभी तो मेले के कई दिन बचे है. अन्त तक इससे अधिक देने वाला कोई न कोई तो मिल ही जायेगा उसे विश्वास सा हो गया. ग्राहकों के साथ व्यस्त रहने के कारण उन्होंने विलम्ब से भोजन किया. भोजन के पश्चात जसवा के पिता जी चमल्या में पानी भरने चला गया. अच्छी कीमत मिल गया तो ब्यांस के लिए कुछ और छोटी मोटी आवश्यक वस्तुएं भी खरीद लेगा.. उसके दिमाग को फिर से इन बातों ने घेर लिया. रास्ते भर कुछ इस तरह के गुणा भाग उसके मस्तिष्क में चलता ही रहता है. इसी धुन में वह बाल्टी नदी में डुबोता है. अनायास ही नदी में उठी लहर से बाल्टी में एक झटका लगता है. यदि थोड़ी सी असावधानी और होती तो बाल्टी हाथ से छूट ही जाती. मन में सोचता है वह भी कितना बेहोश हुआ जा रहा था.

दिन भर की कड़क धूप से तप्त धरती ने सम्पर्क में आई हवाओं को उकसाना आरम्भ कर दिया. अवांछित ऊष्मा के संचरण से त्रस्त हुई हवाएं भी क्रुद्ध होकर धूल-मिट्टी उड़ाती अपनी नागवारी का इजहार करने लगी, कुछ ही देर में सारा वायुमण्डल धूल-धूसरित हो उठा. अत्यधिक आवाजाही से मेले में लोगों के पैरों तले दबी-कुचली मिटटी भी क्रुद्ध हवाओं का साथ पाकर रह-रह कर मेलादार्सियों की आँखों में गोले बारूद की छितरनों की तरह धूल की शक्ल में बरसने लगी. जसवा के पिता जी ने बांहों से अपने आँखों को ढंकने का असफल प्रयास किया. कुछ देर तक तो उड़ती धूल-मिट्टी के कारण उसकी दृष्टि छिन सी गई. वह बाल्टी जमीन में रखकर अपने हाथों से आँखों को रगड़ने लगता है.  रास्ते में उसके कानों में एक अस्पष्ट सी आवाज टकराती है. ‘कइ सौका मूल्या को दुकान हो, आगो लाग्यो भन्नान. (जाने किस शौका की दूकान है आग लग गई बताते हैं.)’

उसके हाथ पैर अनिष्ट की कल्पना से ही ढीले पड़ गये. निकट पहुंचने पर वास्तव में उनकी ही दूकान से धुआं उठता उसे दिखता है. भीड़ में कई लोग पानी, मिट्टी डालकर अग्नि शमन करते दिख जाते हैं. यह देखकर उसके आँखों के सामने अंधेरा छा गया. झटपट दौड़कर वह हाथों की पानी की बाल्टी जसवा के जलते चुटके के ऊपर उड़ेल देता है. कुछ प्रयास से चुटके पर लगी आग तो बुझ गयी किन्तु उसके साथ ही उसके आशा भरोसा और अरमानों का चिराग भी बुझ गया. वह व्याकुल हो कर अपने अधजले चुटके को अर्द्धविक्षिप्त सा कई बार उलटा-पलटा कर देखने लगता है. इसका एक किनारा तो पूरा ही जल चुका था, साथ ही बीच में भी अनेकों स्थान पर छोटे-छोटे छेद हो गये थे. उसको अब ये छिद्र मुँह चिढ़ाते से लगने लगे. अब ऐसा जला हुआ चुटका कौन खरीदेगा… उसका मन रो उठा.

उस दिन की रात उसे चन्द्रमा की दुधिया प्रकाश में भी अमावस की काली रात लगने लगती है. निंद्रा रानी भी रूठकर ना जानें कहां चली गई… सुबह तक भी उसे लौट कर नहीं आना था… नहीं आई. विपदा के क्षण सब व्यक्ति का साथ छोड देते हैं, कहावत उसने सुन रखी थी. उसे हर बार की तरह इस बार भी सत्य जान पड़ती है. ऐसे समय जड़ चेतन सब ही तो उसे कष्टकारक लगते हैं. उस दिन निद्रा ने भी उसे त्याग दिया. खुली आँखों के साथ ही वह पूरी रात गुजारता है. उसके मन में कई तरह के विचारों का हुजूम सा उठता है. काश! मैंने उसी समय इसे तीस रुपये में ही बेच दिया होता… मेरी तो मति ही मारी गई थी, वह अपने आप को धिक्कारता है. अब सारी समस्या तो यह है कि कुन्चा की तैयारी कैसे करें, ब्यांस के वे छ: माह बिना पर्याप्त रसद के कैसे काटें.  ब्यांस में बै, छुमा की भी तो आधी-आधी थैलियां ही बची हैं, उससे आखिर कब तक चलेगा. ( बै-फांफर, कुटु की एक प्रजाति) (छुमा-गेहूं की उच्च स्थानों में उगने वाली एक प्रजाति). इस बैरी भाग्य ने भी ढूँढ-ढूँढ कर उसे ही सताना था, वह कोसता है. जसवा की माँ को कैसे मुंह दिखाएं वह सोच में पड़ गया. घर से चलते समय जसवा का निराशा से बुझा मासूम बेबस चेहरा उसके आँखों के सामने बार-बार नाचने लगता है. उसकी हाय लग गई शायद वह सोचता है. 

दूसरे दिन भोर उगने से पूर्व ही जसवा के पिता जी अकेले धारचूला के लिए निकल पड़े. अब वहां रह कर भी उसका कौन सा कार्य सधना था. पीठ में आग से छलनी हो चुका चुटका लादे किसी हारे हुए जुवारी की भांति मुंह लटकाये उसी दिन रात्रि धारचूला उपत्यका जा पहुंचता है. मन ही मन सोचता है ठीक ही हुआ जो रात में आ पहुंचा. कम से कम पड़ोसियों से साक्षात होने से तो बच गया अन्यथा उनके प्रश्नों का क्या उत्तर देता वह….

वार-पार अभी सारा धारचूला शान्त है. इस नीरवता में काली नदी की अनवरत गर्जना उसे भयंकर लगने लगती है. कभी-कभार दूर किसी दूसरे खेड़े से कुत्तों के भौंकने की आवाज इस निस्तब्धता को भेद देती है. ऐसा लगता है ये कुत्ते काली से होड़ कर रहे हैं और इनकी  तीखी आवाज काली के शोर को भी दमित कर उभर आने में सक्षम हो रही है. 

आज शायद थोड़ी सी बारिश भी हुई है. ठंडी-ठंडी हवाएं इसका प्रमाण दे रही हैं. घर के निकट पहुंचते ही उसके पैर मन मन भर भारी हो जाते हैं. आँगन में पांव रखने के बाद वह अपने मकान की ओर ताकता है. धीरे से पीठ में लगा चुटके का बोझ जंगले के ऊपर उतारता है फिर एक सहमी सी चोर दृष्टि खेड़े में इधर से उधर तक फैंकता है. खेड़े से कोई आवाज नहीं आती… शायद बारिश के कारण आज सभी घर के अन्दर ही बन्द हैं, वह अन्दाजा लगाता है. चलो ठीक ही हुआ मन ही मन में सोचता है और धीरे-धीरे घर के दरवाजे की ओर कदम बढ़ाता है.   दरवाजे के फूस से बने कपाट की पतली झिर्रियों से छनकर आती मशाल की रश्मियों की टूटी-टाटी छितरनें उसके हाथ में सधे अधजले छिद्रयुक्त चुटके पर पड़ता है. चुटके पर नज़र पड़ते ही उसका मन रो उठता है. 

बाहर दरवाजे के पास किसी व्यक्ति की आहट पाकर जसवा की माँ घर के भीतर से ही पूछती है, 

” बाहर कौन है? “

“मैंअ्…. ” उसका धीमा स्वर अन्दर ही अन्दर घुटकर रह जाता है. उसे ऐसा लगता है जैसे उसका जीभ तालू से जा चिल्पकी है.  

अरे, यह तो जसवा के पिता जी की आवाज है. झट से माँ ने दरवाजे से फूस का कपाट एक ओर खिसका कर दरवाजा खोल दिया… वह हतप्रभ सी एकटक अपने पति को ताकती रह जाती है. उनको तो नियत अवधि के अनुसार तीन-चार दिन के बाद ही लौटना था… फिर इतने जल्दी कैसे… इतनी रात में चेहरे से उड़े रंग के साथ अकस्मात् अपने पति को घास के लुट्टे (घास की ढ़ेरी) की तरह सामने निश्चल पाकर उसके हाथ-पैर सुन्न से हो गये. मुंह से कुछ न कहते हुए भी जसवा के पिता जी की सावन-भादो में घिर आए बादलों भरी आकाश सी डबडबाई आँखें बहुत कुछ कह गईं… जसवा के पिता ने हाथ में पकडे चुटके को एक ओर फैंका और कटे वृक्ष की तरह बिस्तर में जा गिरा. बगल में गहरी निद्रा में समाये अपने पुत्र के चेहरे की ओर वह देखता है. बच्चे का मासूम चेहरा देखकर उसका हृदय और भी भारी हो जाता है. आँखों में कैद अश्रु सागर अचानक स्नेह की हल्की थपकी पाकर पलकों के मजबूत बांध को तोड़ता हुआ गालों को भिगो देता है.  

काफी समय बीतने के बाद मन अब थोड़ा हल्का हो चुका था. अब जाकर उसने वहां का सारा वृतांत अपनी धर्मपत्नी को यथाघटित सुनाया. उस चन्द्रमा की द्युति भरी काली रात उन्होंने एक दूसरे की छाती से लगकर ही काटी. किन्तु यह सब करके भी क्या हो सकता था… उनके दुख का पहाड़ तो अब भी यथावत ही था. बल्कि यह बढ़कर और भी ऊंचा हो गया था. ऐसा लगा जैसे उनका मुँह चिढ़ाकर कह रहा हो ‘ लो, अब मुझे पार कर दिखाओ तो जानूं. अब करो कुन्चा की तैयारी…’ 

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Sudhir Kumar

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