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भिटौली से जुड़े कुमाऊनी लोकगीत

कुमाऊँ में प्रथा है कि चैत महिने में कन्या का भाई उसके लिए भेंट लेकर जाता है, जिसमें अपनी सामर्थ्य के अनुसार पक्वान, वस्त्राभूषण इत्यादि होते हैं. यह यहाँ की अत्यन्त प्राचीन प्रथा है, जो पर्वतीय नारी के जीवन से जुड़ी है. चैत के महिने में कन्या अपने भाई की निरन्तर प्रतीक्षा करती रहती है. इसी प्रसंग को लेकर लोकगीतों में मनोरम कल्पनायें की गई.
(Kumaoni Folk Song related Bhitauli)

जब कफुवा (पक्षी) इस ऋतु में कूजता है तो लड़की उससे कहती है- ओ कफुवा ! तू मेरे मायके में जाकर कूज. मेरी माँ जब तेरा कूजना सुनेगी तो चैत का महिना जानकर भाई को मेरे घर भेजेगी

बास भया कफुवा मैती का देशा
ईजू मेरी सुणली भै भेटूं लगाली…

जब घुघुती (पक्षी) बोलता है, तो ससुराल में लड़की को अपने भाई की याद आ जाती है. वह घुघुती से कह उठती है

हो, घू घू घू घू घुघुती चड़ी
तेरी माया लै यो खाई पराणी मेरी…
त्वीले डान-कान उड़ि-उड़ि जंगल गजायो
 फुलि गेछ दैणा, बैंणा म्यरो भाई निआयो…
(Kumaoni Folk Song related Bhitauli)

जब घर के आगे तड़के ही कौवा बोलने लगता है तो बहन समझ जाती है कि माँ भाई को मेरे पास भिटौली देने जरूर भेजेगी, क्यों कि अब ऋतु आ गई

ऋतु ऐ गे रणामणी, ऋतु ऐ गे रैंणा.
डालि में कफुवा बासो, खेत फूलो दॆणा.
काव जो कणाँण आज रत्तै ब्याण.
खुट को तल मेरो आज जो खजाँण.
इजू मेरी भाई भेजली भिटौली दिणा.
ऋतु ऐ गे रणामणी, ऋतु ऐ गे रैंणा.

(Kumaoni Folk Song related Bhitauli)

इसी तरह भाई को याद कर बहन को हिचकियाँ भी आने लगती हैं और उसके चूल्हे में आग भुरभुराने लगती है

उड़ि-उड़ि दूर-दूर घुरघुरैंछी,
बाटुइ लागेंछी आग भुरभुरैंछी.

यही नहीं भाई भी तो पीड़ा से व्यथित हो उठता है और अपनी बहन से मिलने को, उसे भिटौली देने को आतुर हो उठता है. वह माँ से कहता है

बतै दियो इजू मेरि बैणी को देशा
कै दिशा हो ली बैणी हमारी…
पका मेरि इजू, लाडू की छापरी
मैं त जानूँ आब बैंणी का देशा.

(Kumaoni Folk Song related Bhitauli)

ज्यों ही भाई बहन के घर पहुँचता है तो बहन हर्षा तिरेक से आँसू बहाने लगती है और भाई बहन को समझाता है

न रवे हो न वे बैंणी हमारी
भोल जूंलो हम मैती का देशा.

यह समझाते हुए वह आगे कहता हैकफुवा कूजने लगा है. सरसों फूल गई है. देख मेरी बहन, बसन्त ऋतु आ गई है. माँ कह रही थी कि सभी बहनें आईं परन्तु तुम नहीं आईं. तेरी याद आने पर माँ की आँखें छलछला आई

कफुवा बासण फैगो, फुलि गोछ देणा
ओ मेरी बैणा, ओ ऐ गे ऋतुरैणा…
इजुलि कुनैछी दिदी सबै बैंणी ऐंना
जब तेरी नराइ लागी, आँसु भरी ऐना.

जिस बहन का भाई भिटौली लेकर आने में देर लगा देता है तो वह बड़ी असमंजस की स्थिति में पड़ जाती है और कह उठती है

देराणी जेठाणी को आलो बालो ऐ रौछ,
म्यार भै लै के अबेर लगैछ?

बसन्त ऋतु के इन गीतों में सर्वत्र हर्ष, उमंग, और उत्साह की भावना दिखाई देती है. चैत की भिटौली के बहाने बेटी मायके जाकर अपनी माँ को भेटना चाहती है

फागुन ल्है गोछ आब लागि गोछ चैत
चेलि-बेटि सब आब जाण चानीं मैंत.
किलमोड़ी फुलण फै गे फुलिगे हिसोई
के भली मानीछ बलि चैत कि भिटोई.

हमारे कुमाऊँ की एक प्राचीन परम्परा है कि चैत के महिने में कन्या का भाई भेंट लेकर उसके ससुराल जाता है. इस भेंट को ‘भिटौली’ कहा जाता है. इस भेंट में कन्या की माँ अपनी बेटी के लिए सुन्दर पकवान बनाकर भेजती है और कन्या प्रतीक्षा में रहती है. इसी प्रसंग को लेकर लोकगायकों ने लोकगीतों में उदेखपूर्ण कल्पना भी की है

भाई जती हुनाला, भिटौली ल्हि ऊना.
ईजू जती हुनेली, मैतुड़ा बुलूनी.
को मैता बुलालो, को दैजा ठेलालो.
हियो भरी ऊँछला, कलिजो कोरींछ.

डॉ. रमेश चन्द्र पाण्डेय ‘राजन’

श्री लक्ष्मी भंडार (हुक्का क्लब) द्वारा प्रकाशित पुरवासी पत्रिका के चौबीसवें अंक में डॉ. रमेश चन्द्र पाण्डेय ‘राजन’ के लेख से साभार.

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