डीडीहाट और बेरीनाग की वयः संधि पर पूर्वी रामगंगा के तट पर स्थित है थल. थल से एक रास्ता मुवानी होते हुए पिथौरागढ़ जाता है तो दूसरा नाचनी तेजम होते हुए मुनस्यारी की ओर. तीसरी ओर सानी उडियार कांडा होते हुए बागेश्वर का यात्रा पथ है. थल का पुल पार कर चौकोड़ी और कोटमन्या जैसे सुरम्य प्रकृति की गोद में बसे हिमालय को उसकी पूर्ण समग्रता से रेखांकित करते जैव विविधता से समृद्ध स्थल हैं जिससे आगे है पांखू. पांखू में सड़क से 200 मीटर ऊपर स्थित है प्रसिद्ध कोटगाड़ी मंदिर.
कोटगाड़ी मंदिर में भगवती सात्विक वैष्णवी रूप में पूजी जाती है. लोक मान्यता है कि यहां देवी माता की मूर्ति में योनि उकेरी हुई है, जिसे ढंककर रखा जाता है. कोटगाड़ी के मुख्य मंदिर के साथ बागादेव के रुप में पूजित दो भाइयों सूरजमल और छुरमल का मंदिर है. मंदिर के अहाते में हवन कुंड व धूनी है तो ठीक सामने के कक्षों में बाबा, साधू, वैरागी व देवी की सिद्धि प्राप्त करने को आतुर तपस्वी ठहरते हैं. कोटगाड़ी मुख्य मंदिर के भीतर जल की अविरल प्रवाह सम्पदा है जो मंदिर की ढलान पर कई स्थलों पर फूटकर कल-कल ध्वनि का संचार करती है.
न्याय की देवी अधिष्ठात्री के रूप में प्रतिष्ठित है कोटगाड़ी भगवती मां. कुमाऊं के अन्य कई न्यायकारी मंदिरों की भांति यहां भक्त अपनी आपदा-विपदा, अन्याय, असमय कष्ट व कपट के निवारण के लिये पुकार लगाते हैं मनौती मांगते हैं. न्याय की कामना करते हैं. लोक विश्वास है कि भगवती-वैष्णवी के दरबार में पांचवीं पुश्तों तक का भी निर्णय-न्याय मिलता है. इस संदर्भ की अनेक किवदंतियां हैं. पहले देवी के सामने अपने प्रति हो रहे अन्याय की पुकार व घात लगाने की प्रथा थी. अब अपनी विपदा को पत्र व स्टाम्प पेपर में लिख कर देने का प्रचलन बड़ गया है.
कोटगाड़ी देवी के मुख्य सेवक भंडारी ग्वल्ल हैं. यह मंदिर चंद राजाओं के समय में स्थापित हुआ बताया जाता है. स्वप्न में स्थानीय निवासियों को इस मंदिर की स्थापना का आदेश मिला. 1998 से मंदिर की व्यवस्था हेतु मुख्य पुजारी पंडित पीताम्बर पाठक की अध्यक्षता में पंडित जयशंकर पाठक, पंडित गंगाराम पाठक और पंडित मोतीराम पाठक पुजारी नियुक्त हुए जिनके वंशज ही वर्तमान में पूजन व कर्मकांड सम्पन्न कराते हैं. मां के सात्विक वैष्णवी स्वरूप को खीर व प्रसादों का भोग लगता है. चैत्र व अश्विन मास की अष्टमी को तथा भादों में ऋषि पंचमी को मंदिर में मेला लगता है. मनोकामना पूर्ण होने एवं नवरात्रियों में अठवार व बलि मंदिर से चौथाई किमी आगे ग्वल और भैरव के थान पर सम्पन्न होती रही है.
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