आज चिमनी और लालटेन ने गैस दादा (पेट्रोमैक्स) को घेर ही लिया. कहानी सुनाने के लिए पीछे पड़ गए. “कितनी कहानियां तो सुना दी है तुमको, अब और कहानियां कहां से लाऊं,” गैस दादा बोल पड़े.
(Kiraye ka Ravan Story)
“दादा पता नहीं तुम रावण वध वाली कहानी सुनाने से क्यों कतराते हो. आप ही तो कहते हो कि वही तो एक सीन था उस साल की रामलीला में जो आपको सबसे अच्छा लगा था. उसे सुनने का बड़ा मन है, सुना दो न,” चिमनी और लालटेन एक साथ बोल पड़े.
अरे पीछा छोड़ दो मेरा, हर वक्त कहानी-कहानी करते रहते हो, आराम हो गया है न तुम्हें, जब से ये बिजली का लट्टू आया है. वरना तुम्हें अपनी ही सुध कहाँ रहती थी. और ये चिमनी! देखो तो कितनी जिद्द करती है, जरा सा न कर दूं तो बच्चों की तरह टसुए बहाने लगेगी और तू लालटेन कम बदमाश नहीं है, इसको मेरे पीछे लगा देता है. लगता है तुम आज बिना कहानी सुने नहीं मानोगे, कह कर गैस दादा ने कहानी सुनानी शुरू कर दी.
मुझे गाँव में आए चार साल को गए थे हर साल रामलीला में मुझे स्टेज के एक कोने में लोहे की मजबूत सगंलों से लटका देते. वहीं से मैं मुस्कुरा-मुस्कुरा कर रोशनी बिखेरता. दूसरे कोने पर हर साल कभी किसी गाँव का तो कभी किसी गाँव का हमारा भाई होता. ये तो मेरा सौभाग्य था कि चाचा के रख रखाव के कारण मैं अपने आस पास के सभी भाइयों से ज्यादा रोशनी बिखेरता, तभी तो मुझे सबसे ज्यादा अहमियत मिलती. जब पर्दा गिरा होता मैं कभी दर्शकों को देखता तो कभी हम दोनों भाई आफ़स में इशारों-इशारों में बातें करते. पर्दा उठते ही मेरा ध्यान भी दर्शकों के साथ रामलीला के मंचन पर चला जाता.
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बड़ा आनंद आता था कलाकारों को करीब से देखने में. उससे ज्यादा मजा तो परदे के पीछे कलाकारों की बातें सुनने में आता था. कभी-कभी तो उनकी बातें सुनकर मेरी हंसी निकल आती. हंसते-हंसते कभी मैं बुझने को होता तो दूसरे ही पल जोर से रोशनी बिखेर देता. एक बार तो मुझे इतनी जोर से हंसी आई कि मुझे लगा कि मैं बुझने ही वाला हूँ. पंडाल में अंधेरा छाने लगा. तभी दीनू चाचा दौड़कर मेरे पास आए. वे मेरा कान मरोड़ते कि मैंने उससे पहले ही खिलखिलाकर दुगनी रोशनी बिखेर दी.
पता है इतनी जोर की हंसी मुझे क्यों आई, मैं बाली और सुग्रीव के किरदार निभाने वाले मंगतू पहलवान और गेंदा दर्जी की बात सुन रहा था जो परदा गिरते ही बाली-सुग्रीव की लड़ाई वाला सीन कर स्टेज के पीछे आए ही थे कि मंगतू पहलवान (बाली) वो गेंदा दर्जी (सुग्रीव) के आगे बीड़ी के लिए मिन्नतें कर रहा था. गेंदा भी इस शर्त पर उसे बीड़ी देने को राजी हुआ कि वह अगले सीन में उसे जोर से नहीं पटकेगा. बड़ी हंसी आई उनकी बात सुनकर. बस यही फायदा था स्टेज के करीब रहने का.
दादा ये वाली बात तो तुमने पहले कभी नहीं बताई, बोल पड़ी चिमनी. अब सुना दी न, आज के लिए इतना ही, गैस दादा उनसे पीछा छुड़ाने के अंदाज में बोल पड़ा. वाह दादा बात टालना तो कोई तुमसे सीखे, पर हम नहीं आने वाले तुम्हारी बातों में, लालटेन बोल पड़ा.
अच्छा-अच्छा लो सुनलो रावण वध वाली कहानी भी. पर सुनते-सुनते सो मत जाना, कहकर गैस दादा ने कर दी कहानी शुरू. चिमनी, तुमने रामसिंह जी जो रावण का रोल करते थे शायद ही देखा हो पर इस लालटेन ने जरूर देखा होगा. गया होगा ये दादी के साथ रामलीला देखने. दादी रास्ते में उजाले के लिए ले गई होगी इसे.
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हाँ-हाँ देखा था मैंने रामसिंह चाचा को. पड़ोस के ही गाँव के तो थे. क्या मूछें थी. चेहरा क्या रोवदार था उनका. अरे छोटे मोटे बंदर भालू तो सीन में उनके पास जाने में कतराते थे, बोल पड़ा लालटेन. ठीक है लालटेन भाई मान गई तूने देखा है रामसिंह चाचा को, पर अब कहानी पर आ जाओ, लालटेन को प्यार से टोकते हुए बोल पड़ी चिमनी.
ले सुन परेशान मत हो, कहकर गैस दादा ने शुरू कर दी कहानी, रामसिंह चाचा पिछले बीस सालों से रामलीला में रावण का किरदार निभाते आ रहे थे. रामलीला के टाइम पर छुट्टी आ जाते. बड़ा शौक था उन्हें रावण का पाठ खेलने का. न जाने इतने सालों में कितने लड़के लोग बदल गए रामचन्द्रजी, लक्ष्मणजी, सीताजी व दूसरे पाठ खेलते खेलते, पर रामसिंह चाचा अपनी जगह पर पहाड़ की तरह अडिग थे. इसी बहाने अपने शरीर का खूब ख्याल रखते, खास कर अपनी मूछों का. कभी किसी ने उन्हें नकली मूछें लगाते नहीं देखा होगा. खूब चलती थी उनकी रामलीला कमेटी में. यूँ कहो शान थे वे रामलीला के.
फौज से पेंशन आने के बाद तो उन्होने कमेटी का काम भी संभाल लिया था. नए-नए लड़के जो रामजी का अभिनय करते उनके हाथों वध हो जाता उनका. साल भर उन्हें छेड़ने से बाज नहीं आते. कह देते चाचा कितनी भी बड़ी मूछें रख लो, मरना तो तुमने हमारे ही हाथों है. रामसिंह चाचा मुस्कुरा देते. पर जब कभी ये बात उड़ती उड़ती हमारी चाची याने रामसिंह चाचा की पत्नी के कानों में जाती, कर देती लड़को की ऐसी तैसी. बड़ा बुरा लगता था चाची को मरने मराने की बात सुन कर.
एक दिन चाची जो कई दिनों से अपने दिल में बात दबाए बैठी थी बोल पड़ी, ”सुनो जी, हमसे तुम्हारा रामलीला में हर साल मरना देखा नहीं जाता. हमें तो बहुत बुरा लगता है. अब तो हम आखिरी दिन इसी कारण से रामलीला देखने भी नहीं जाते. तुम रामलीला खेलना छोड़ क्यों नहीं देते. अगर रामलीला खेलने का इतना ही शौक है तो और भी तो बहुत सारे पाठ हैं खेलने के लिए, उन्हें खेल लो. अब मैं तुम्हे रावण का पाठ बिल्कुल नहीं खेलने दूंगी.
सुना है! लोग कहते हैं, जो रामलीला में तीन बार मरता है उसकी कुछ दिनों बाद किसी न किसी बहाने मौत हो जाती है. तुम्हारी चेहती भाभी भी बार-बार यही कहती है. पता नहीं कितनी बार मुझे बोल चुकी है कि तुम देवर जी कहो कि वे रावण का पाठ न खेले.
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‘’मंदोदरी, तुम दशानन की पटरानी हो कर भी वहमबाजी करती हो. धिक्कार है तुम पर, जो इतना डरती हो. हुआ है कोई पैदा जो इस लंकेश का बाल भी बांका कर सके. हा,हा,हा,.’’ अपने खास अंदाज में दे दिया चाची को जवाब.
कुछ देर बाद जब रामसिंह चाचा के अंदर से रावण की आत्मा बाहर निकल गई, प्यार से समझाने लगे चाची को. तुम बेकार में उल्टा-पुल्टा सोचती रहती हो, अरे पड़ोस के गाँव की रामलीला देखी है, मनसुखराम कितने सालों से रावण का पाठ खेल रहा है, मरा क्या? जिंदा है न? तीर तो उसे भी लगते हहोंगे हर साल, बेकार में वहम करती हो.
वो मरे या जिए मुझे क्या, मुझे तो तुम्हारी चिंता है, रुंआ सा होकर बोल पड़ी चाची.
चाची ने वहम का बीज बो दिया था रामसिंह चाचा के दिमाग में. सोचने लगे बंटी की मम्मी की बात में दम तो लगता है. ये बात तो सभी मानते हैं कि जिस बात को बार बार दुहराओे वह बात जरूर होकर रहती है. अब तो उनका मन भी डांवाडोल होने लगा. मनसुख राम से मिलने का फैसला कर लिया.
एक दिन बाजार में आमना सामना हो ही गया रामसिंह चाचा का मनसुखराम से. पहले तो मिलने में संकोच करते रहे, क्योंकि लोगों ने एक कहानी और भी बना रखी है कि रावण के किरदार निभाने वालों का आमना-सामना अशुभ माना जाता है. उसी तरह जैसे दो बारातों के दूल्हे का एक दूसरे के सामने से गुजरना अशुभ माना जाता है. यहाँ तो मामला काफी गम्भीर था, खतरा तो उठाना ही पड़ेगा. चाचा ने हिम्मत जुटा ही ली और मनसुखराम के करीब जाकर उनसे उनका हाल चाल पूछने लगे. अब चाचा और मनसुखराम चाय की दुकान में बैठ गए हो गई बातें शुरू.
“भाई मनसुख बड़ी दुविधा में हूँ. लोगों ने मेरी घरवाली के दिमाग में पता नहीं क्या-क्या भर दिया. कहते हैं कि रावण का पाठ खेलने वाला आदमी अगर रामलीला में तीन से अधिक बार मरता है तो बड़ा अपशकुन होता है. मैंने तो पहले कभी इस बात पर ध्यान नहीं दिया पर बिटटू की मम्मी ने तो घर पर तूफान खड़ा कर रखा है, बस एक ही रट पकड़ रखी है कि रावण का पाठ मत खेलो. उसकी बातें सुन सुनकर मुझे भी शंका होने लगी है. मैं तो कब से सोच रहा था कि तुम से पूछ कर अपनी शंका मिटाऊ पर फिर वही अपशकुन वाली बात याद आ जाती थी. अच्छा हुआ आज तुम से मिलने की हिम्मत कर ही दी,” बोल पड़ा रामसिंह चाचा.
“हाँ भई बात तो मैंने भी सुनी है. हमारे घर पर भी यही हाल था,” बोल पड़ा मनसुख राम.
“पर तुम तो हर साल अपनी रामलीला में रावण बनते हो, अब घर वाले मना नहीं करते क्या?’ जिज्ञासा बस पूछ लिया, रामसिंह चाचा ने.
“अरे घर वाले कहाँ मानने वाले थे. बस तोड़ निकालना पड़ा, अब जिसे तीर लगें लगने दो,” हंसते हंसते बोल पड़े मनसुख राम.
“हमें भी तो बताओ वो तोड़ जो तुमने निकाला है भाई साहब, फिर हमारे घर में भी भूख हड़ताल खत्म हो,” बोल पड़े रामसिंह चाचा.
“खास कुछ नहीं करना, बस आखिरी सीन में एक मिनट के लिए दूसरा रावण खड़ा करना होता है. हर साल किसी को भी मरने के लिए खड़ा कर देते है. फिर उसे करना भी क्या होता है, जरा सी देर के लिए तलवार ही तो घुमानी है. बाकी पूरा खेल तो मैं कर के चला जाता हूँ, उधर रामजी ने तीर चलाया इधर रावण जमीन पर, हो गई रामलीला खत्म. अब तक तो ऐसे ही चला रहे हैं,” बोल पड़ा मनसुख राम.
“अब समझा, पिछले साल मैं रावण वध वाले दिन तुम्हारे गाँव रामलीला देखने आया था. आखिरी सीन में कुछ देर के लिए किसी दूसरे को रावण बना देखकर सोचने लगा था कि अचानक तुम्हारी तबियत तो नहीं बिगड़ गई होगी जो तुम्हारी जगह दूसरे आदमी को खड़ा करना पड़ा, पर अब समझ में आया यही टोटका काम कर रहा था. बहुत बढिया भाई, सही तोड़ निकाला है”, चाय पीते पीते बोल पड़े रामसिंह चाचा.
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थोड़ी देर के लिए गैस दादा ने कहानी को विराम दिया. चुप क्यों हो गए कहानी अभी पूरी कहाँ हुयी चिमनी बोल पड़ी. सुनाता हूँ अधीर मत हो, जरा सांस तो लेने दे, कहकर गैस दादा ने फिर कर दी कहानी शुरू.
राम सिंह चाचा ने इस बार रामलीला कमेंटी वालों से रावण का पाठ खेलने के लिए असमर्थता जाहिर कर दी. सुनते ही कमेटी वाले सकते में आ गए, सोचने लगे यैन वक्त पर रावण कहाँ से लाएंगे, फिर ऐसा रावण जिस पर पूरी रामलीला टिकी हो कहाँ मिलेगा. इस ठंड़ में भी लोग कहाँ कहाँ से नहीं आते इनका अभिनय देखने. इन्ही के कारण तो हमारी रामलीला कोसों-कोस तक प्रसिद्ध है. परेशान हो गए कमेटी वाले और रामसिंह चाचा से रावण का पाठ नहीं खेलने का कारण जानना चाहा.
रामसिंह चाचा ने बता दी पूरी बात. कमेटी वालों के गले बात नहीं उतरी. तरह-तरह से समझाने की कोशिश करते रहे. हाँ जब लगता कि रामसिंह चाचा के समझ में बात आ रही है उनके चेहरे खिल उठते. पर ये खुशी ज्यादा देर तक कायम नहीं रह पाती. रामसिंह चाचा के आँखों में चाची का चेहरा आते ही उनके चेहरे के भाव बदल जाते, जिसे पढकर कमेटी वाले परेशान हो जाते.
अब तुम ही बताओ कौन बनेगा रावण, तुम भी तो कमेटी में हो, सब जानते हो. अगर कहीं मिल भी गया तो होगी किसी के बस की जो बराबरी कर सके तुम्हारी. ठीक हैं रामलीला खेलना ही बंद कर देते हैं, कमेटी के मुखिया मदन दादा बोल पड़े.
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अगर हम ऐसा ही करें जैसे पड़ोस के गाँव वाले करते हैं तो मेरे को रावण का रोल करने में कोई आपत्ति नहीं होगी, पड़ोस के गाँव का नाम लेकर बोल पड़े रामसिंह चाचा. बताओ क्या करते हैं वे लोग? उत्सुकता से पूछ बैठे कमेटी वाले.
राम सिंह चाचा ने बता दी पूरी बात कमेटी वालों को और अपनी ओर से भी समझाने लगे. हमे कुछ ज्यादा नहीं करना है बस आखिरी सीन में दो एक मिनट के लिए दूसरा रावण खड़ा कर देंगे. उसने थोड़ी देर तलवार ही तो घुमानी है. सारा कुछ तो मैं निपटा लूंगा. इधर मैं स्टेज से पीछे गया उधर वह स्टेज में दाखिल हुआ. थोड़ी देर तलवार घुमाएगा. इधर रामजी ने तीर छोड़ा उधर वो नीचे स्टेज पर गिरा. तुरंत परदा गिरेगा और सीन खत्म. कमेटी वालों को भी ये रास्ता ठीक लगा, सोचने लगे सालो साल के लिए झंझट ही खत्म हो जाएगा. सुनकर कमेटी वालों ने भी राहत की सांस ली.
बस, उस साल से राम-रावण युद्ध वाले सीन में मरने के लिए नया रावण खड़ा करने का सिलसिला चल पड़ा. शुरू शुरू में शौकिया लोगों की कमी नहीं होती आसानी से मिल भी जाते थे, पर धीरे-धीरे पात्र मिलने में कठिनाई सामने आने लगी. अड़ोस-पड़ोस के गाँवों से पात्र पेमेंट पर आने लगे. कमेटी को भी खर्चा भारी पड़ रहा था, पर क्या करते मजबूरी थी.
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इस साल तो पात्र ढूड़ने में काफी मुश्किल आ रही थी, आखिर में दूर गाँव का एक आदमी राजी हो गया, पर उसने अपने मेहनताने के लिए पाँच सौ रुपए की डिमांड रख दी. उसकी बात सुनकर कमेटी वाले सकते में आ गए, बोलने लगे आप तो पाँच गुना मांग रहे हो कहाँ से देंगे इतनी रकम, कुछ तो कम कर दो.
वे महाशय कहाँ मानने वाले थे बोल पड़े, “अपने ही रावण से कहो वे ही राम जी का तीर खा लें. एक रुपया भी नहीं देना पड़ेगा. मैं भी पांचवी बार मरूंगा. आखिर मेरे भी आगे पीछे हैं. पांच सौ कोई ज्यादा नहीं बोल रहा हूँ. अगर नहीं दे सकते हो तो अपना प्रबंध कर लो,” कहकर चुप हो गए. उनकी बातों से तो ऐसा लग रहा था कि वे धमकी दे रहे हों. आखिर कमेटी वालों को झक मारकर उसकी बात माननी पड़ी.
अब गैस दादा थोड़े गंभीर हो गए, थोड़ी देर रुक कर फिर बढ़ा दी कहानी आगे. बोल पड़े, उस रात राम रावण युद्ध का आखिरी सीन था. रामसिंह चाचा को रावण के पूरे डायलाग व युद्ध निपटा कर तुरंत परदे के पीछे चले जाना था और उनकी जगह किराए के रावण ने लेनी थी. रामसिंह चाचा अपना सारा रोल अदा कर पलक झपकते ही परदे के पीछे चले गए और उसी मुस्तैदी से किराए के रावण महोदय ने स्टेज में इंटरी ले ली और जुट गया युद्ध करने में. पब्लिक को रावणों के अदला-बदली का पता तो था पर शायद ही इससे पहले किसी को इतनी कलाकारी से इस काम को अंजाम देते देखा हो. इसी कला के लिए ही तो रावण महोदय इतनी लम्बी चौड़ी फीस मांग रहे थे. राम रावण युद्ध चरम पर था हारमोनियम व तबले की थाप युद्ध को और भी रोचक बना रहा था. कलाकार और दर्शक बीर रस में ओत प्रोत हो रहे थे. दर्शक एक टक होकर युद्ध का सीन देखने में लीन थे.
ये क्या! अचानक किराए के रावण महोदय के कानों में परदे के पीछे से किसी की आवाज पड़ गई. कोई कह रहा था ‘‘दो मिनट के काम के लिए पाँच सौ रुपए मांग रहा है. बाप का माल समझ रखा है इसने. देखे हैं इसने कभी पांच सौ रूपए एक साथ, मरने तो दो साले को, पकड़ा देंगे सौ रुपए. ले ले तो ठीक वरना मरे साला.” मुझे भी ये सारी बात सुनाई दे रही थी जो मैं इतनी दूर था, रावण ने तो सब सुन ही लिया होगा, वो तो पास में जो था.
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राम रावण युद्ध खत्म होने को ही नहीं आ रहा था. श्रीराम जी तीर पर तीर मारे जा रहे थे पर रावण महाशय जो थे कि मरने का नाम ही नहीं ले रहे थे. इधर रामजी का रोल करने वाला लड़का थक कर चूर हो गया. हारमोनियम व तबले वाले भी थक चुके थे, उन्होने भी अपने हाथ रोक दिए. अब तो पड़ाल में सन्नाटा छा गया. परेशान हो गए कमेटी वाले. तभी एक बार फिर परदे के पीछे से आवाज आई, रावण जी बहुत देर हो गई है सारे थक चुके हैं अब तो मर जाओे.
“क्या कह रहे थे, मेरे बाप ने भी देखे कभी पांच सौ रूपए. सौ रूपया पकड़ा दोगे. सब सुन लिया है मैंने. अब बताता हूँ. ऐसा किरदार निभाऊंगा कि जिदंगी भर याद रखोगे कि किसी रावण से पाला पड़ा था,” कहकर युद्ध करने में जुट गया.
रावण की सारी बातें बाहर दर्शकों ने भी सुन ली. उसकी बात सुनकर लोगों की हंसी फूट पड़ी. एक दर्शक तो बोल ही पड़ा, ‘‘रावण महराज जी, पूरी रामलीला में इतना मजा नहीं आया जितना आज आपके आने से आया.’’ उसकी बात सुनकर एक बार फिर पंडाल हंसी से गूंज गया. कमेटी वालों की हालात तो देखते ही बनती थी.
अरे भाई धीरे से बोल पब्लिक सुन रही है, दे देंगे पांच सौ रूपए, तुम मर तो जाओ, परदे पीछे से आवाज आई.
“नहीं-नहीं तुम लोगों का कोई भरोसा नहीं है, पहले पैसे हाथ में थमाओ फिर मरने की बात करो,” बोल पड़े रावण महोदय. एक बार फिर पंडाल हंसी से गूंज गई. मरता क्या न करता चुपके से पकड़ा दिए पांच सौ रूपए. रावण महोदय के हाथ में जैसे ही रुपए आए वे बिना तीर लगे ही स्टेज पर गिर गए.
अब परदा गिर चुका था. पब्लिक का अभी भी हंस-हंस कर बुरा हाल था. कमेटी वाले ठाकुरी की बदमासी जो उसने रूपए नहीं देने की बात कही थी, उसके लिए उसकी खूब मरम्मत कर रहे थे.’’
मजा आ गया गैस दादा, कहानी सुनकर, एक साथ बोल पड़े चिमनी और लालटेन. अब तीनों ने एक दूसरे को शुभ रात्रि कहा और नींद की आगोस में चले गए.
(Kiraye ka Ravan Story)
–धर्मपाल रावत
उच्चाकोट गांव, पौढ़ी गढ़वाल के मूल निवासी धर्मपाल रावत वर्तमान में दिल्ली में रहते हैं. उनकी ईमेल आईडी dps_r@yahoo.in पर उनसे सम्पर्क किया जा सकता है.
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