अरे हाँ, काफल पर याद आया. पिछले वर्ष खड़ा-खड़ी अल्मोड़ा जाना हुआ. समय ऐसा ही रहा होगा और तभी काफल भी आने शुरु हो गए थे. पहाड़ जाने पर मेरे साथ दो चीजें होतीं हैं. हल्द्वानी तक गया तो भट, गौहत, भांग, मिसरी और लाई जरुर लेता हूँ. यहाँ बच्चों का छोटा मामा है तो उससे कहकर यह सब मैनेज हो जाता है. ऐसा न समझिएगा कि पैसा बचाओ डाट काम पर स्टेट्स चेक करने की तरह यह सब भी एकदम “फ्री” है. साला, इतना सीधा भी नहीं जो जीजा पर सब लुटा दे.
(Kafal Seller in Almora)
हल्द्वानी में मुझे काफल कभी नहीं मिले. हो सकता है कम आते हों ऊपर से क्योंकि पेड़ छोड़ने के बाद इनका जीवन बमुश्किल 12 घंटे ही रहता है. पहले भवाली में बस रुकते ही दौनों में सजाकार काफल और पालीथीन पैकेटों में खुमानी, पुलम लेकर लोग भीतर ले आते थे लेकिन अब जीप/टैक्सी वाले बाजार में रोकते नहीं है. कहते हैं पुलिस चालान काट देती है लिहाजा वहाँ भी नहीं मिल पाते. लौटते में कभी जाम लग गया तो एक आध दौने से ज्यादा नहीं मिले.
अल्मोड़े में मंडी लगती है जहाँ मध्य जंगलों से गाँव वाले टोकरी / छापरी भरकर सुबह के समय आते हैं. मैं गाँव वालों के समय कभी नहीं पहुँच सका लिहाजा जब भी लिए सड़क किनारे बैठे लोगों से ही खरीदे. कुछ भावनात्मक लगाव भी है तो मोलभाव नहीं करता. मेरी टूटी-फूटी कुमाऊँनी की अपेक्षा उनकी रसदार कुमाऊँनी बहुत भाती है और इस चक्कर में लोग कहते हैं तुम ठगी गए लेकिन मुझे कभी फर्क नहीं पड़ा.
साले ने बताया कि सब्जी और फल बेचने वाले एक भी पहाड़ी नहीं हैं. ये सब बिहारी हैं जो साल भर दिहाड़ी मजदूरी करते हैं और सीजन पर काफल बेचते हैं. इनकी तौल भी देखिएगा सोचता था इतनी मीठी कुमाऊँनी बोलने वाले हमारे लोगों के अलावा और कौन होगा! लेकिन सच में ये बिहार के थे जो काम धन्धे के सिलसिले में यहाँ आये और यहीं के होकर रह गए. इसमें कोई बुराई भी नहीं क्योंकि नेपाल के मेटजी की ही तरह किसी न किसी रुप में ये लोग भी पहाड़वासियों के मददगार ही तो हैं. हमने कामधंधे बिसरा दिए तो इनका क्या दोष. लेकिन मुझे तो बोली भाषा को लेकर जरुर तकलीफ हुई कि हम लोगों ने पहाड़ में भी अपनी भाषा छोड़ दी.
इसके अलग कारण है और सबसे अधिक आधुनिक दिखने की होड़ और प्रवासियों के समक्ष स्वयं को कमतर न समझने की भूल भी है जब कि पहाड़ में जो नौकरी या अन्य कारोबारी हैं उनकी स्थिति आम प्रवासियों से कहीं बेहतर होगी. विशिष्टता की बात अलग है. सामान्य आदमी मजबूरी में ही घर छोड़ता है. खैर, यह एक अलग विषय है. बात आ गई तो इतना जरुरी था, इस बार मैंने हिन्दी में ही बात की और पूछा – भय्या बिहारी हो?
(Kafal Seller in Almora)
जी बाबूजी… छपरा के हैं. यहाँ काम धंधे में आए थे तो यहीं रह गए. त्योहारों पर जाते हैं, परिवार यहां, फसल पर वहां, सब जगह रहता है. हमारे सब लोग फल और सब्जी का काम करते हैं. हम तो मजूरी (लेबरी) करते हैं. ई काफल का सीजन है तो…
क्या हिसाब है?
तीन सौ रुपया किलो…
तुम तोड़कर लाते हो?
अरे, हम कहाँ जायेंगे जंगल में! पेड़ पर कौन चढ़ेगा साब. अरे लोकल आदमी लाता है और सब खरीद लेते हैं थोक में. उसने थोक भाव नहीं बताया और यह भी कहा कि यहाँ का आदमी काफल, सब्जी कहाँ बेचेगा? लेबरी में साढे तीन सौ मिलता और काफल में पाँच, छह सौ कमा लेते हैं. टूरिस्ट मोलभाव नहीं करता बाबूजी. और सच, अपने ही घर, गाँव, शहर में, मैं भी तो टूरिस्ट ही था. अच्छा हुआ वह ताड़ नहीं पाया वरना इतनी बात कहां करता.
खुशी इस बात की ही थी कि किलो भर काफल तौलने और पत्तों बीच सुरक्षित रखते हुए वह लगातार पहाड़ और पहाड़ी की बुराईयों के साथ-साथ तमाम अच्छाईयाँ भी बताता जा रहा था. इस काफल विक्रेता ने उत्तराखंड के बारे में कुछ और भी बताया जो बताने लायक नहीं है. कुछ गलत कहता तो मुझे भी बोलना पड़ता लेकिन यह सब सुनने के बाद मैंने भी बीस रुपए कम कराने के लिए मोलभाव नहीं किया.
(Kafal Seller in Almora)
मूलतः पिथौरागढ़ से ताल्लुक रखने वाले ज्ञान पन्त काफल ट्री के नियमित पाठक हैं . वर्तमान में लखनऊ में रहने वाले ज्ञान पंत समय समय पर अपनी अमूल्य टिप्पणी काफल ट्री को भेजते रहते हैं. हमें आशा है कि उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे. यह पोस्ट ज्ञान पन्त के फेसबुक पेज से उनकी अनुमति के बाद प्रकाशित की गयी है.
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