जिस राष्ट्र में यह कहा जाता हो कि “तीन कोस पर पानी बदले, नौ कोस पर बोली”, जहाँ हर प्रकार की मिट्टी, विभिन्न जलवायु, सभी धर्मों के लोग पाये जाते हो, वहाँ यह समझने में थोड़ी कठिनाई होती है कि “कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक कैसे है?” इस प्रश्न का उत्तर ललित मोहन रयाल की नई रचना “काऽरी तु कब्बि ना हाऽरी” में मिलता है, बशर्ते पाठक कहानी और पात्रों को अपने गाँव-नगर से जोड़ दें. (पुस्तक पढ़ते समय पाठक ऐसा करने को मजबूर हो जाता है.)
(Kaari tu Kabbi Na Haari Book Review)
“काऽरी तु कब्बि ना हाऽरी” अगणित अनाम लोगों को समर्पित लेखक के पिता की जीवनी है. दो सौ वर्षों के इतिहास को समेटे यह पुस्तक यह बताती है कि मानव का स्वभाव समय के साथ परिवर्तित होता रहा है, लेकिन एक काल-खण्ड में सम्पूर्ण भारत के लोगों का स्वभाव एक-सा रहता है. पुस्तक की पृष्ठभूमि गढ़वाल की है और पाठक पूर्वांचल (लेखक के शब्दों में पूरबिया) की पृष्ठभूमि का है, लेकिन कहानियाँ जिस काल-खण्ड की हैं, वे मानव स्वभाव से सम्पूर्ण भारत को एक होना बताने के लिए पर्याप्त है.
पुस्तक साधारण परिवार में जन्मे नायक मुकुन्द राम रयाल के सत्य और अहिंसा का पालन करते हुए आदर्श जीवन संघर्ष की गााथा है. नायक अपने स्वभाव से धीर-गम्भीर है, आचरण से आदर्श है, तो कर्म से विद्रोही भी है. तभी तो विकास से मीलों दूर टिहरी जनपद के एक दूरस्थ गाँव में पैदा हुआ नायक बचपन में ही अपने पुश्तैनी पेशे जजमानी को छोड़कर शिक्षा पाने ऋषिकेश आ जाता है. तभी तो अपने अंतिम समय तक केवल अपने वजूद और अस्तित्व को बनाये रखने के लिए अपने भाई-बन्धुओं से पैतृक संपत्ति बावत संघर्ष करता है. लेकिन किसी भी परिस्थिति में सदाचार, सन्मार्ग और सत्य से नायक विमुख नहीं होता है. राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के सत्य और अहिंसा के दर्शन का सजीव चित्रण और प्रयोग इस पुस्तक में देखने को मिलता है.
लेखक कहते हैं, “उनका बड़ा सधा-सधाया जीवन-दर्शन था, जो उनके अनुभवों से उपजा था. कहते थे-’जीवन में सफल होने के लिए तपना जरूरीहै. जिसने बालपन में कठिनाई न झेली हों, धक्के न खाए हों, भूखा न सोया हो, शीत-जाडे़ में न ठिठुरा हो, वह क्या संघर्ष करेगा?’….. “उन्होंने सदा धीरज से काम लिया और कभी आपा नहीं खोया. कैसी-कैसी परिस्थितियाँ आई, वे शांति से सोच-समझकर आगे बढ़ते रहे. हताश नहीं हुए. गंभीर-से-गंभीर मामलों में भी धैर्य बनाए रहे.”… “उनका अपना कर्म दर्शन था. कर्म को तीन भागों में बाँटते थे- करणी, करतब और करतूत. करणी के अंतर्गत, साधारण कृत्य आते थे, जिन्हें जीवन जीने के लिए एक आम इंसान को करना पड़ता है. इसमें अच्छे-बुरे, सभी तरह के काम शामिल होते थे…. ऐसा आचारहीन काम, जिसमें भले ही, लाभ क्यों न दिखाई देता हो, लेकिन जिसके करने से मर्यादा टटू ती हो, करततू बन जाता है.
आम इंसान की तरह नायक के जीवन संघर्ष की अनगिनत गाथा इस पुस्तक में देखने को मिलती है. नायक विद्राही है, तो धैर्यवान भी है. वह बचपन में शिक्षा पाने के लिए गृह-त्याग करके ऋषिकेश आता है और विद्यालय जाने के इंतजार में तीन वर्ष तक एक मंदिर की सेवा करता है. शिक्षा पाने की जिजीविषा, शिक्षक बनने के बाद छात्रों को शिक्षा प्रदान करने के लिए सिस्टम से संघर्ष, अपने परिजनों से संघर्ष, अपनी संतानों तथा शिष्यों को सन्मार्ग पर चलाते हुए उच्च शिक्षित एवं काबिल बनाने के लिए लड़ाई, सीमित आय में से बचत करके घर-जमीन बना लेने के रण, कुल मिलाकर एक आम आदमी के जीवन संघर्ष का ही तो ताना-बाना है ’काऽरी तु कब्बि ना हाऽरी.’ लेकिन इन संघर्षों के बीच अपने सिद्धांतों, उसूलों से पल भर के लिए भी विचलित न होना ही मुख्य पात्र को ’आम से ’खास’’ बनाता है.
(Kaari tu Kabbi Na Haari Book Review)
नायक का अपनी मातृभूमि से लगाव को लेखक ने जगह-जगह दर्शया है. नायक अपनी मातृभूमि और अपने परिजनों से बहुत ही प्रेम करता है, लेकिन परिजनों के व्यवहार से वहाँ से दूर होता चला जाता है और जीवन के अंतिम पड़ाव पर मातृभूमि में मात्र पहचान बनाये रखने के लिए कोर्ट तक संघर्ष करता है. लेखक के शब्दों में, “मातृभूमि छोड़ना किसे प्रीतिकर लगता है, लेकिन जब रहना सर्वथा दुःसाध्य हो जाए तो फिर कोई चारा नहीं बचता…. सवाल जायदाद का नहीं, वरन् वजूद और अस्तित्व का था.”
नायक पाई-पाई जोड़कर अपनी और अपने परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है. कर्ज लेकर जमीन खरीदता है. टुकड़े में गृह निर्माण कराता है. वास्तव में नायक उस पीढ़ी का सच्चा प्रतिनिधित्व करता है, जिसने रुपये के महत्व को समझा था. गाढ़े पसीने से कमाया एक-एक पैसा किफायत से खर्च करना उस पीढ़ी की पहचान थी. जिन्होंने लेखक रयाल का हास्य-व्यंग्य उपन्यास ’अथश्री प्रयाग कथा’ का रसास्वादन किया है, उनके लिए लेखक ने इस पुस्तक में हास्य-व्यंग्य का भरपूर तड़का लगाया है, जो समय-समय पर पाठक के चेहरे पर स्वतः मुस्कुराहट ला देता है. पुराने समय की सास-बहू के अनवरत द्वद्वं का उल्लेख करते हुए लेखक कहते हैं, “जब-जब सास को घर सूना लगता, वह कलह से उसे जीवंत कर देती थी. कभी-कभी तो सोकर उठते ही, उदासी दूर करने के लिए वह उसे कोसना चालू कर देती. उसके सात पितरों को पूजा जाता, तब दिन की शुरूआत होती.” उस समय की सास का बहुत ही सटीक वर्णन लेखक ने किया है, “उस दौर की सास कुछ हैकड़ किस्म की सास होती थीं. तेवर देखकर लगता, मानो सास बनकर ही पैदा हुई हों. पचास पर्संेट सास और उतने ही
परसेंट शासन के लहजे में राज करती थीं… बहुओं के पल-पल की जानकारी रखती थीं. अगर उनकी प्रतिभा का सही इस्तेमाल किया जाता तो वे पेशेवर जासूस हो सकती थीं.”
(Kaari tu Kabbi Na Haari Book Review)
पुराने समय के भूत , उनकी वेराइटी, भगाने के तरीके, भगाने वाले गुरुजी और विशेषज्ञों की कहानी पढ़ते समय पाठक अपनी हँसी को रोक नहीं पाता है. भूत के ये कहने पर, ’येन मेरी तरप थकू ी! येन मैं थै लिकाई!’, गुरुजी भूत को डांटते है, ” बच्चे ने निर्जन रास्ते में थूक दिया, तो क्या तुम सैनिटरी इंस्पेक्टर हो, जो चालान बुक लिये रास्ते में खड़े हो.“
भूत सुपर स्पेशलिस्ट से कितना डरते थे, जो केवल उनके गाँव का नाम सुनकर कहने लगता, “जा तो रहा हूँ. क्या जरूरत है वहाँ आदमी दौड़ाने की? वो भी खाली परेशान होंगे.”
पुस्तक केवल एक आदर्श शिक्षक की अनन्त संघर्ष गाथा ही नहीं है, वरन् लेखक और उनकी पीढ़ी के उन व्यक्तियों की भी जीवनी है, जो प्राथमिक विद्यालयों में बैठने के लिए अपने घर से टाट लेकर जाते थे, जिनकी हैंडराइटिंग और उच्चारण के प्रति गुरुजन ज्यादा ही आग्रही होते थे, जो अभावों में शिक्षा प्राप्त किये और संघर्षों की बदौलत जीवन में सफलता प्राप्त किये.
लेखक प्रयोगधर्मी है, तभी तो नायक के आम संवाद गढ़वाली में लिखे हैं. पाठकों की सुविधा के लिए संवाद का हिन्दी रूपातंरण यथास्थान दिया गया है. पुस्तक की संरचना, आम आदमी के जीवन शैली, जीवन के कठिनाइयों के अथाह सागर में गोते लगाते एक आम इंसान के संघर्ष गाथा, लेखक को मुंशी प्रेमचंद और ज्ञान चतुर्वेदी के समकक्ष खड़ा करता है.
कुल मिलाकर एक सच्चे कर्मयोगी के जीवन-चरित्र के सायें में बीसवीं सदी के ग्रामीण जीवन के सामाजिक ताने-बाने को प्रकाशित करती पुस्तक है, “काऽरी तु कब्बि ना हाऽरी”.
पुस्तक-काऽरी तु कब्बि ना हाऽरी
लेखक- ललित मोहन रयाल
प्रकाशक-काव्यांश प्रकाशक, ऋषिकेश, देहरादनू
मूल्य- 195
(Kaari tu Kabbi Na Haari Book Review)
–आशुतोष मिश्रा
14 नवम्बर 1979 को बलिया जिले के ग्राम गरया में जन्मे आशुतोष उच्चतर न्यायिल सेवा में अधिकारी हैं. ‘राजनैत’ उनका पहला उपन्यास है.
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
इसे भी पढ़ें: ठेठ गढ़वाल के जीवन से जुड़ी चीज़ों को समझने के लिए एक तरह का रोचक शब्दकोश है ‘काऽरी तु कब्बि ना हाऽरि’
Support Kafal Tree
.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…