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सिनेमा: लोक में छिपी सुरीली धुनों को तलाशती ‘जुगनी’

युवा फ़िल्मकार शेफाली भूषण पिछले दो दशकों से अपनी वेबसाइट ‘द बीट ऑफ़ इंडिया’ के जरिये दूर-दराज के लोक गायकों को मंच मुहैय्या करवाने का महत्वपूर्ण काम कर रही हैं. उनकी पहली हिंदी फीचर फ़िल्म ‘जुगनी’ एक तरह से उनके ‘बीट ऑफ़ इंडिया’ के काम का ही विस्तार है. उनकी वेबसाइट की वजह से हम संगीत की तमाम पापुलर धाराओं के बीच उन अनाम लोकगायकों तक भी पहुँच सके जिनसे हमारे संगीत को जरूरी खाद- पानी मिलता है.

‘जुगनी’ मुंबई की फ़िल्मी दुनिया से उकताई हुई एक युवा महिला संगीतकार विभावरी की कहानी है जो किसी नए आइडिया के लिए बेचैन है. उसकी बेचैनी उसे मुंबई से बहुत दूर पंजाब के मुफस्सिल शहर भटिंडा ले आती है. यहाँ उसे पुराने ढब के गाने गाने वाली बीबी स्वरूप को खोजना है. बीबी से पहले उसे उसका बेटा मस्ताना मिलता है जिससे बाद–बाद में विभावरी का थोड़ा बहुत रोमांस भी होता है. फिल्म में दो कहानियां एक साथ चलती हैं, पहली है भटिंडा कसबे में मस्ताने और बीबी स्वरूप के जरिये देशी संगीत के मजे को खोजने की और दूसरी मुंबई की नकली सी दिखती मध्यवर्गीय फ़िल्मी दुनिया की. जाहिर है बीट ऑफ इंडिया की खोजी मास कम्युनिकेटर शेफाली से हम भटिंडा में बिखरे पड़े सुरों को सहेजने की ज्यादा उम्मीद करेंगे.

मस्ताना के साथ फ़िल्म की नायिका उसकी दुनिया को जानने की कोशिश करती है. इस कोशिश में हमें ठीक-ठाक तरीके से निचले कस्बों में कैसा संगीत बज रहा है और पसंद किया जाता है उसकी महक मिलती है. जैसा कि फ़िल्म की निर्देशिका की मूल चिंता है पुराने दमदार संगीत को फिर से परिचित करवाना, उसी क्रम में वह बीबी स्वररूप और मस्ताना से कुछ और मजेदार, कुछ और अलग गाने का बार–बार अनुरोध करती है. वह बीबी और मस्ताने से बुल्ले शाह जैसी पुरानी चीजों की फ़रमाइश करती है. अपनी लगातार कोशिश के चलते विभावरी कुछ मजेदार रिकार्डिंग कर पाने में सफल हो पाती है. वापस मुंबई लौटने पर इन रिकार्डिंगों का अनोखापन मुंबई के सिने जगत को समझ में आता है और थोड़े बहुत नाटकीय उतार-चढ़ाव के बाद मस्ताना द्वारा गाया ‘जुगनी’ गाना एक फ़िल्म में इस्तेमाल होता है और विभावरी को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का अवार्ड भी मिल जाता है.

उधर भटिंडा में फ़िल्म के रिलीज़ होने पर मस्ताना खुद को स्टार समझता है और मुंबई आने का मन बनाता है. विभावरी ही उसका परिचय शहर के नामी फ़िल्मकारों से करवाती है लेकिन जल्दी ही उसका मोहभंग होता है और मस्ताना वापस भटिंडा लौट जाता है.
अच्छी बात यह है कि फ़िल्म इसी नोट पर नहीं ख़त्म होती, आखिरकार मस्ताने को मुंबई से ही गाना गाने का ब्रेक मिलता है. इस बार जब वह गाने के लिए मुंबई जा रहा है तो उसे खुद ही अपना रास्ता तलाशना होगा क्योंकि विभावरी फिर किसी नए कलाकार की खोज में हिमाचल की यात्रा पर निकलने वाली है.

शेफाली की इस पहली फ़िल्म में बीट ऑफ़ इंडिया के काम जैसा विस्तार और तीव्रता तो नहीं है लेकिन मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा में लोक में छिपी धुनों को खोजने की शुरुआत और नाम लेने के स्तर पर भी बुल्ले शाह का जिक्र किसी बेहतर रास्ते की ओर ही बढ़ने का इशारा करता है.

संजय जोशी पिछले तकरीबन दो दशकों से बेहतर सिनेमा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयत्नरत हैं. उनकी संस्था ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ पारम्परिक सिनेमाई कुलीनता के विरोध में उठने वाली एक अनूठी आवाज़ है जिसने फिल्म समारोहों को महानगरों की चकाचौंध से दूर छोटे-छोटे कस्बों तक पहुंचा दिया है. इसके अलावा संजय साहित्यिक प्रकाशन नवारुण के भी कर्ताधर्ता हैं.

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Sudhir Kumar

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