महबूब खां का जन्म बड़ौदा ( गुजरात ) के निकट सरार गाँव में एक निहायत गरीब परिवार में हुआ था, जहां किसी भी तरह की औपचारिक शिक्षा के लिए न कोई प्रेरणा थी और न साधन सुलभ थे. रही- सही कमी पूरी की उस जमाने के घुमंतू थियेटरों ने. तब तक देश में मूक फिल्मों का निर्माण बड़े पैमाने शुरू हो चुका था और घुमंतू थियेटर कस्बे-कस्बे / गांव- गांव घूमकर उन फिल्मों का प्रदर्शन किया करते थे. बालक महबूब को फिल्में देखने का चस्का लग गया, यहाँ तक कि अपने एक परिवार मित्र इस्माइल जीवा रेलवे में गार्ड थे और बालक महबूब से उन्हें अहैतुक लगाव था. वे महबूब को न सिर्फ अपनी गार्ड केबिन में बैठाकर मुफ्त रेल-यात्रा कराते, बल्कि फिल्म का टिकट खरीदने के लियेपैसे भी देते, नतीजतन फिल्मों के प्रति महबूब की दीवानगी दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ती गयी.
हालत यहाँ तक आ पहुंच गये कि 15 साल की उमर में एक दिन वे फिल्म अभिनेता बनने की तमन्ना दिल में संजोए घर से भाग निकले और बंबई पहुँच गये. जेब में ना कोई पैसा, पढ़ाई-लिखाई में अंगूठाछाप उमर पन्द्रह साल, होता क्या और हुआ भी कुछ नहीं. पिता को जब उनके बंबई के ठिकाने का पता चला तो वे उन्हें पकड़ कर वापस गांव ले आए. सुधरने के ख्याल से उनकी शादी कर दी गयी. पर नियति को पिता का यह खेल मंजूर न था और एकबार फिर पारिवारिक मित्र इस्माइल जीवा की मदद से महबूब बंबई जा पहुंचे.
वहां बड़ी जद्दोजहद के बाद उनकी भर्ती इम्पीरियल में बतौर एक्स्ट्रा हो गयी. इस हैसियत से उनकी पहली फिल्म अलीबाबा चालीस चोर थी जिसमें वे चालीस चोरों में एक थे. इस बीच 1929 में इम्पीरियल फिल्म कंपनी में शीरीं खुसरो बन रही थी जिसके डायरेक्टर रमाशंकर चौधरी थे. उसके एक सीन में उन्हें घोड़े पर स्टंट कराना था, तो उन्होंने कुछ एक्स्ट्राज को सैट पर बुलवाया और सीन में क्या करना है, यह समझाकर उनकी तरफ देखा. सब चुप थे, सबकी नजरें झुकी हुई, महबूब आगे बढ़ने को उतावला हो रहा था. चौधरी साहब ने उसे ताड़ लिया और कहा – ‘ए लड़के, इधर आओ !’
महबूब उनकी तरफ बढ़ा, तो उन्होंने पूछा – ‘तेरा नाम क्या है?’
‘महबूब’
‘तुम यह सीन कर सकते हो?’
‘यकीनन! महबूब ने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा.’
महबूब सीन को तैयार हो गया, तो डायरेक्टर चौधरी ने कहा – ‘स्टार्ट कैमरा… एक्शन!’ सीन शुरू ही हुआ था कि घोड़ा बिदक गया और अपनी पिछली टांगों पर खड़ा हो गया, वह भी कैमरे के ठीक सामने. कैमरा आँन था और घोड़ा पकड़ के बाहर, फिल्म का कैमरामैन बोमनजी ईरानी था, जिसका असिस्टेंट फरीदून ईरानी उस समय कैमरा हैंडिल कर रहा था और बाद में महबूब जब डायरेक्टर बने, तो वही फरीदून उनका कैमरामैन बना. बहरहाल, तभी चौधरी साहब की आवाज आई – ‘ कट ! ओ. के. ! इस शॉट को प्रिंट के लिए भेज दो.
धरमपुर में शूटिंग ख़त्म करके यूनिट बंबई आयी. जब रशप्रिंट देखे जा रहे थे तो कंपनी के मालिक सेठ आर्देशियर ईरानी भी वहां मौजूद थे. रशेज देखने के बाद सेठ ने चौधरी से पूछा – ‘यह एक्टर कौन है?’ चौधरी साहब ने फरमाया – ‘सेठजी, यह तो आपका मुलाजिम है.’
‘क्या नाम है इसका’
‘महबूब’
‘इसे फ़ौरन बुलाओ.’
महबूब को फ़ौरन सेठ के सामने पेश किया गया. सेठ ने पूछा – ‘ बेटा तुम्हें पगार कितनी मिलती हैं?’ महबूब ने सेठ की बात का जवाब न देकर दीवारघड़ी पर नज़र डाली और कमरे से बाहर चला गया. आर्देशिर सेठ ने चौधरी साहब की तरफ सवालिया निगाहों से देखा, तो चौधरी साहब ने कहा – ‘ उसकी दोपहर की नामाज का वक्त हो गया है, लिहाजा वह चला गया. वह तो सैट हो या आउटडोर, पाँचों वक्त की नमाज के लिए जाता है.’
ईरानी साहब इस बात से बड़े मुतास्सिर हुए. जब महबूब नमाज के बाद लौटा, तो उसने फिर पूछा – ‘ बेटे, तेरी पगार क्या है?’
‘तीस रुपया!’
‘आज से तुम्हें दस रुपये और मिलेंगे!’ सेठ ने कहा.
दस रुपये अतिरिक्त पगार के साथ ही महबूब एक्स्ट्रा से एक्टर बन गये.
वसुधा के हिन्दी सिनेमा बीसवीं से इक्कसवीं सदी तक में शरद दत्त के छपे लेख के आधार पर
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