Featured

पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की कहानी जल्लाद

प्रातः आठ साढ़े आठ बजे का समय था. रात को किसी पारसी कम्पनी का कोई रद्दी तमाशा अपने पैसे वसूल करने के लिए दो बजे तक झख मार-मार कर देखते रहने के कारण सुबह नींद कुछ विलम्ब से टूटी. इसी से उस दिन हवाखोरी के लिए निकलने में कुछ देर हो गई थी और लौटने में भी.
(Jallad Story by Bechan Sharma Ugra)

मैं वायु सेवन के लिए अपने घर से कोई चार मील की दूरी तक रोज ही आया-जाया करता था. मेरे घर और उस रास्ते के बीच में हमारे शहर का जिला जेल भी पड़ता था, जिसकी मटमैली, लम्बी-चौड़ी और उदास चहारदीवारियाँ रोज आगे ही मेरी आँखों के आगे पड़ती और मेरे मन में एक प्रकार की अप्रिय और भयावनी सिहर पैदा किया करती थी.

मगर उस दिन उसी जेल के दक्षिणी कोने पर अनेक घने और विस्तृत वृक्षों की अनुज्ज्वल छाया में मैंने जो कुछ देखा, उसे मैं बहुत दिनों तक चेष्टा करने पर भी शायद न भूल सकूँगा. मैंने देखा कि मुश्किल से तेरह-चौदह वर्ष का कोई रूखा पर सुन्दर लड़का, एक पेड़ की जड़ के पास अर्धनग्नावस्था में पड़ा तड़प रहा है और हिचक-हिचक कर बिलख रहा है उसी लड़के के सामने एक कोई परम भयानक पुरुष असुन्दर भाव से खड़ा हुआ, रूखे शब्दों में उससे कुछ पूछ-ताछ कर रहा था. यह सब मैंने उस छोटी सड़क पर से देखा, जो उस स्थान से कोई पचीस-तीस गज की दूरी पर थी. यद्यपि दिन की बाढ़ के साथ-साथ तपन की गरमी भी बढ़ रही थी और यद्यपि मैं थका और अनमना सा भी था, पर मेरे मन की उत्सुकता उस दयनीय दृश्य का भेद जानने को मचल उठी. मैं धीरे-धीरे उन दोनों की नज़र बचाता हुआ उनकी तरफ़ बढ़ा.

अब मुझे ज्ञात हुआ कि लड़का क्यों बिलख रहा था. मैंने देखा, उसके शरीर के मध्य-भाग पर, जो खुला हुआ था, प्रहार के अनेक काले और भयावने चिह्न थे. उसको बेंत लगाए गए थे. बेंत लगाए गए थे उस कोमल-मति गरीब बालक को अदालत की आज्ञा से. मेरा दिल धक् से होकर रह गया. न्याय ऐसा अहृदय, ऐसा क्रूर होता है?

अब मैं आड़ में छिप कर उस तमाशे को न देख सका. झट मैं उन दोनों के सामने आ खड़ा हुआ और उस भयानक प्राणी से प्रश्न करने लगा-क्या इसको बेंत लगाए गए हैं?

हाँ, उत्तर देने से अधिक गुर्रा कर उस व्यक्ति ने कहा-देखते नहीं हैं आप? ससुरे ने जमींदार के बाग से दो कटहल चुराए थे.

लड़का फिर पीड़ा और अपमान से बिलबिला उठा. इस समय वह छाती के बल पड़ा हुआ था, क्योंकि उसके घाव उसे आराम से बेहोश भी नहीं होने देना चाहते थे. वह एक बार तड़पा और दाहिनी करवट होकर मेरी ओर देखने की कोशिश करने लगा. पर अभागा वैसा न कर सका. लाचार फिर पहले ही सा लेट कर अवरुद्ध कण्ठ से कहने लगा-नहीं बाबू, चुरा कहाँ सका? भूख से व्याकुल होकर लोभ में पड़ कर मैं उन्हें चुरा जरूर रहा था, पर जमींदार के रखवालों ने मुझे तुरन्त ही गिरफ्तार कर लिया.

‘गिरफ्तार कर लिया तो तेरे घर वाले उस वक्त कहाँ थे?’नीरस और शासन के स्वर में उस भयानक पुरुष ने उससे पूछा-‘क्या वे मर गए थे? तुझे बचाने-जमींदार से, पुलिस से, बेंत से-क्यों नहीं आए?’

‘तुम विश्वास ही नहीं करते?’ लड़के ने रोते-रोते उत्तर दिया-‘मैंने कहा नहीं, मैं विक्रमपुर गाँव का एक अनाथ भिखमंगा बालक हूँ. मेरे माता-पिता मुझे छोड़ कर कब और कहाँ चले गए, मुझे मालूम नहीं. वे थे भी या नहीं, मैं नहीं जानता. छुटपन से अब तक दूसरों की जूठन और फटकारों में पला हूँ. मेरे अगर कोई होता तो मैं उस गाँव के जमींदार का चोर क्यों बनता? मेरी यह दुर्गति क्यों होती?…आह…बाप रे…बाप…’
(Jallad Story by Bechan Sharma Ugra)

वह गरीब फिर अपनी पुकारों से मेरे कलेजे को बेधने लगा. मैं मन ही मन सोचने लगा कि किस रूप से मैं इस बेचारे की कोई सहायता करूँ. मगर उसी समय मेरी दृष्टि उस भयानक पुरुष पर पड़ी, जो जरा तेजी से उस लड़के की ओर बढ़ रहा था. उसने हाथ पकड़ कर अपना बल देकर उसको खड़ा किया.

‘तू मेरी पीठ पर सवार हो जा.’ उसी रूखे स्वर में उसने कहा-‘मैं तुझे अपने घर ले चलूँगा.’

‘अपने घर?’ मैंने विवश भाव से उस रूखे राक्षस से पूछा–‘तुम कौन हो? कहाँ है तुम्हारा घर?…और इसको अब वहाँ क्यों लिए जाते हो?’ ‘मैं जल्लाद हूँ बाबू’ लड़के को पीठ पर लादते हुए खूनी आँखों से मेरी ओर देख कर लड़खड़ाती आवाज़ में उसने कहा- ‘मैं कुछ रुपयों का सरकारी गुलाम हूँ. मैं सरकार की इच्छानुसार लोगों को बेंत लगाता हूँ तो प्रति प्रहार कुछ पैसे पाता हूँ और प्राण लेता हूँ तो प्रति प्राण कुछ रुपये.’ ‘फाँसी की सजा पाने वालों से तो नहीं, बेंत खाने वालों से सुविधानुसार मैं रिश्वत भी खाता हूँ. सरकार की तलब से मैंने तो बाबू यही देखा है- बहुत कम सरकारी नौकरों की गुजर हो सकती है. इसी से सभी अपने-अपने इलाकों में ऊपरी कमाई के ‘कर’ फैलाए रहते हैं. मैं गरीब छोटा सा गुलाम हूँ, मेरी रिश्वत की चर्चा तो वैसी चमकीली है भी नहीं कि किसी के आगे कहने में मुझे कोई भय हो. मैं तो सबसे कहता हूँ कि कोई मुझे पूजे तो मैं उसके सगे-सम्बन्धियों को ‘सुच्चे’ बेंत न लगा कर ‘हलके’ लगाऊँ. और नहीं…तो सड़ासड़…सड़ासड़…

उसने ऐसी मुद्रा बना ली जैसे किसी को बेंत लगा रहा हो. वह भूल गया कि उसकी पीठ पर उसकी ‘सड़ासड़’ का एक गरीब शिकार काँप रहा है. ‘मगर इस अनाथ को ‘सुच्चे’ बेंत लगा कर मैंने ठीक काम नहीं किया. इसने जेल में ही बताया था कि मेरे कोई नहीं है. मगर मैंने विश्वास नहीं किया. मैं अपने जिस शिकार का विश्वास नहीं करता, उसके प्रति भयानक हो उठता हूँ, और मेरा भयानक होना कैसा वीभत्स होता है, इसे आप इस लड़के की पीठ पर देखें. मगर इसे काट कर मैंने गलती की. यही न जाने क्यों मेरा मन कह रहा है.

‘इसी से बाबू मैं इसे अपने घर ले जा रहा हूँ, वहाँ इसके घाव पर केले का रस लगाऊँगा और इसको थोड़ा आराम देने के लिए ‘दारू’ पिलाऊँगा, बिना इसको चंगा किए मेरा मन सन्तुष्ट न होगा, यह मैं खूब जानता हूँ.’

भैंसे की तरह अपनी कठोर और रूखी पीठ पर उस अनाथ अपराधी को लाद कर वह एक ओर बढ़ चला. मगर मैंने उसे बाधा दी-

‘सुनो तो, मुझसे भी यह एक रुपया लेते जाओ. मुझको भी इस लड़के की दुर्दशा पर दया आती है.’

‘क्या होगा रुपया बाबू? भयानकता से मुस्करा कर उसने रुपये की ओर देखा और उसको मेरी उँगलियों से छीन कर अपनी उंगलियों में ले लिया.’ ‘उसको दारू पिलाना, पीड़ा कम हो जाएगी. अभी एक ही रुपया जेब में था, मैं शाम को इसके लिए कुछ और देना चाहता हूँ. तुम्हारा घर कहाँ है? नाम क्या है?’

‘मैं शहर के पूरब उस कबरिस्तान के पास के डोमाने में रहता हूँ, डोमों का चौधरी हूँ, मेरा नाम रामरूप है पूछ लीजिएगा.’
(Jallad Story by Bechan Sharma Ugra)

उस अनाथ लड़के का नाम ‘अलियार’ था, यह मुझे उस घटना के सातवें या आठवें दिन मालूम हुआ. ग्रामीणों में अलियार शब्द ‘कूड़ा-कर्कट’ के पर्याय रूप में प्रचलित है. उस लड़के ने मुझे बताया. उसके गाँव वालों का कहना है कि उसे पहले-पहल गाँव के एक ‘भर’ ने अलियार पर पड़ा पाया था. उसी ने कई वर्षों तक उसे पाला भी और उसका उक्त नामकरण भी किया.

अलियार के अंग पर के बेंतों के घाव, बधिक रामरूप के सफल उपायों से तीन-चार दिनों के भीतर ही सूख चले, मगर वह बालक बड़ा दुर्बल-तन और दुर्बल-हृदय था. सम्भव है, उसको बारह बेंतों की सजा सुनाने वाले मजिस्ट्रेट ने, पुलिस की मायामयी डायरियों पर विश्वास कर, उसकी उम्र अठारहक्तपूर्ण आँखें मेरे मन में एक तरह की सिहर सी पैदा कर देती थीं. पर आश्चर्य, इतने पर भी मैं उसे अधिक से अधिक देखना और समझना चाहता था.

उसकी मिट्टी की झोपड़ी में उसके अला या बीस वर्ष मान ली हो, मगर मेरी नज़रों में तो वह बेचारा चौदह-पन्द्रह वर्षों से अधिक वयस का नहीं मालूम पड़ा. तिस पर उसकी यह रूखी-सूखी काया, आश्चर्य, किसी डाक्टर ने किस तरह उसको बेंत खाने योग्य घोषित किया होगा. जेल के किसी जिम्मेदार और शरीफ अधिकारी ने किस तरह अपने सामने उस बेचारे को बेंतों से कटवाया होगा.

जब तक अलियार खाट पर पड़ा-पड़ा कराहता रहा, अपने उसे बेंत खाने के भयानक अनुभव का स्वप्न देख-देख कर अपनी रक्षा के लिए करुण दुहाइयाँ देता रहा, तब तक मैं बराबर, एक बार रोज, रामरूप की गन्दी झोपड़ी में जाता था और अपनी शक्ति के अनुसार प्रभु के उस असहाय प्राणी की मन और धन से सेवा करता था, मगर मेरे इस अनुराग में एक आकर्षण था और यह था जल्लाद रामरूप.

न जाने क्यों उसका यह ‘अलकतरा’ रंग, उसकी भयानक नैपालियों-सी नाटी काया, उसका वह मोटा, वीभत्स अधर और पतला ओंठ, जिस पर घनी काली, भयावनी तथा अव्यवस्थित मूँछों का भार अशोभायमान था, मुझे कुछ अपूर्ण सा मालूम पड़ता था. न जाने क्यों उसकी बड़ी-बड़ी, डोरीली, नीरस और रवा उसकी प्रौढ़ा स्त्री भी थी. एक दिन जब मैंने रामरूप से उसकी जीवनी पूछी और यह पूछा कि उसके परिवार का कोई और भी कहीं है या नहीं, तो उसने अपनी विचित्र कहानी मुझे सुनाई.

‘बाबू’ उसने बताया-‘पुश्त दो पुश्त से नहीं, मेरे खानदान में तेरह पुश्तों से यही जल्लादी का काम होता है. हाँ, उसके पहले मुसलमानी राज में मेरे पुरखे डाके डाला करते थे. मेरे दादा के दादा ऐसे प्रतापी थे कि सन् 57 के गदर में उन्होंने इसी शहर के उस दक्षिणी मैदान में सरकार बहादुर के हुकुम से पाँच सौ और तीन पचीस और दो दस आदमियों को चन्द दिनों के भीतर ही फाँसी पर लटका दिया था. उन दिनों वह आठों पहर शराब छाने रहा करते थे. …और कैसी शराब? मामूली नहीं बाबू, गोरों के पीने वाली-अंगरेजी.’
(Jallad Story by Bechan Sharma Ugra)

मैंने उसे टोका- रामरूप, क्या अब भी फाँसी देने से पूर्व तुम लोगों को शराब मिलती है?

‘हाँ, हाँ, मिलती क्यों नहीं बाबू, मगर देसी की एक बोतल का दाम मिलता है, विलायती का नहीं, जिसको छान-छान कर मेरे दादा के दादा गाहियों के गाही लोगों को काल के पालने पर सुला देते थे. यही मेरे खानदान में सबसे अधिक धनी और जबरदस्त भी थे. लम्बे-चौड़े तो वह ऐसे थे कि बड़े-बड़े पलटनिये साहब उनका मुँह बकर-बकर ताका करते थे. मगर उनमें एक दोष भी बहुत बड़ा था. वह शराब बहुत पीते थे. इसी में वह तबाह हो गए और मरते-मरते गदर की सारी कमाई फूँक-ताप गए. हाँ, मैं भूल कर गया बाबू, वह मरे नहीं, बल्कि शराब के नशे में एक दिन बड़ी नदी में कूद पड़े और तब से लापता हो गए. नदी के उस ऊँचे घाट पर हमारे दादा ने उनका ‘चौरा्’ भी वनवाया है, जिसकी सैकड़ों डोम पूजा किया करते हैं और हमारे वंश के तो वह ‘वीर’ ही हैं.’

अपने वीर परदादा के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए, उनकी कहानी समाप्त करते-करते रामरूप ने धीरे से अपने कान उमेठे.

‘रामरूप’, मैंने कहा- ‘जाने दो अपने पुरखों की कहानी. वह बड़ी ही भयानक है. अब तुम यह बताओ कि तुम्हारे कोई बच्ची-बच्चा भी है?’ ‘नहीं बाबू’, किञ्चित गम्भीर होकर उसने कहा-‘मेरी औरतिया को, कोई सात बरस हुए एक लड़का हुआ ज़रूर था, मगर वह दो साल का होकर जाता रहा. बच्चे तो वैसे भी मेरे खानदान में बहुत कम जीते हैं. न जाने क्यों, जहाँ तक मुझे मालूम है, मेरे किसी भी पुरखे का एक से ज्यादा बच्चा नहीं बचा. मुझको तो वह भी नसीब नहीं. मेरी लुगैया तो अब बूढ़ी हो जाने पर भी बच्चा-बच्चा रिरियाती रहती है. मगर यह मेरे बस की बात तो है नहीं. मैं तो आप ही चाहता हूँ कि मेरे एक वीर बच्चा हो, जो हमारे इस पुश्तैनी रोजगार को मेरे बाद संभाले, पर जब दाता देता ही नहीं तब कोई क्या करे?’

‘जब तक तुम्हारे और कोई नहीं है’ मैंने उस जल्लाद के हृदय की थाह ली-‘तब तक तुम इसी भिखमंगे को क्यों नहीं पालते-पोसते? तुमने कुछ अन्दाज लगाया है? कैसा है उसका मिजाज? यह तुम्हारे यहाँ खप जाने लायक है?’

‘है तो, और मेरी लुगइया उसको चाहती भी है.’ रामरूप ने ज़रा मुस्करा कर कहा-‘पर मेरे अन्दाज से वह अलियार कुछ दब्बू और डर्रू है. और मेरे लड़के को तो ऐसा निडर होना चाहिए कि जरूरत पड़े तो बिना डरे काल की भी खाल खींच ले और जान निकाल ले. यह मंगन छोकरा भला मेरे रोजगार को क्या सँभालेगा?’

‘कोई दूसरा रोजगार देखो रामरूप’, मैंने कहा-‘छोड़ो इस हत्यारे व्यापार को, इसमें भला तुम्हें क्या आनन्द मिलता होगा. ग़ज़ब की है तुम्हारी छाती, जो तुम लोगों को प्रसन्न भाव से बेंत लगाते हो और फाँसी के तख्ते पर चढ़ा कर अपने परदादा के शब्दों में काल के पालने में सुला देते हो, मगर यह सुन्दर नही.’
(Jallad Story by Bechan Sharma Ugra)

‘हा, हा, हा, हा’ रामरूप ठठाया- ‘आप कहते हैं यह सुन्दर नहीं. नहीं बाबू, हमारे लिए यह परम सुन्दर है. आप जानते ही हैं कि मैं आप लोगों की ‘नीच जाति’ का एक तुच्छ प्राणी हूँ. आप तो नए ख़याल के आदमी हैं, इसलिए न जाने क्या समझ कर इस लड़के के प्रेम में मेरी झोपड़ी तक आए भी हैं, नहीं तो मैं और मेरी जाति इस इज्जत के योग्य कहाँ? मेरे घर वाले जल्लादी न करते, तो आप लोगों के मैले साफ करते और कुत्तों को मारते. मगर-हा, हा, हा, हा-कुत्तों को मारने से तो आदमी मारना कहीं अच्छा है, इसे आप भी मानेंगे, यद्यपि मेरी समझ से कुत्ता मारना और आदमी मारना, जल्लाद के लिए एक ही बात है. हमारे लिए वे भी अपरिचित और निरपराध और ये भी. दूसरों के कहने पर हम कुत्तों को भी मारते हैं और कुत्तों से ज्यादा समझदारों-आदमियों- को भी.’

इसके बाद मुझे एक काम के सिलसिले में बम्बई जाना पड़ा और वहीं पूरे दो महीने रुकना पड़ा. लौटने पर भूल गया उस जल्लाद को और परिचित उस अलियार को. प्रायः दो बरस तक उनकी कोई खबर न ली. फुर्सत भी अपनी मानविक हाय-हायों से, इतनी न थी कि उनकी ओर ध्यान देता.

मगर उस दिन अचानक अलियार दिखाई पड़ा, और मैंने नहीं, उसी ने मुझको पहचाना भी. मुझे इस बार वह कुछ अधिक स्वस्थ, प्रसन्न और सुन्दर मालूम पड़ा. ‘कहां रहते हो आजकल अलियार?’ मैंने दरियाफ्त किया,’और वह अद्भुत मित्र कैसे हैं, जिनको तुम शायद सपने में भी न भूल सकते होगे.’ ‘वह मजे में है,’ उसने उत्तर दिया-‘और मैं तभी से उसी के साथ रहता हूँ. तभी से उसकी वह स्त्री मुझको अपने बेटे की तरह मानती और पालती है.’ ‘तो क्या अब तुम भी वही व्यापार सीख रहे हो और रामरूप की गद्दी के हकदार बनने के यत्न में हो?’ ‘मुझे स्वयं तो पसन्द नहीं है उसका वह हत्या-व्यापार, मगर उसकी रोटी खाता हूँ तो बातें भी माननी पड़ती हैं. वह अब अक्सर मुझे फाँसी या बेंत लगाने के वक्त अपने साथ जेल में ले जाता है और अपने निर्दय व्यापार को बार-बार मुझे दिखा कर अपना ही सा बनाना चाहता है.’ ‘तुम जेल में जाने कैसे पाते हो?’ मैंने पूछा-‘वहाँ तो बिना अफसरों की आज्ञा के कोई भी जाने नहीं पाता है. फिर खास कर बेंत मारने और फाँसी के वक्त तो और भी बाहरी लोगों की मनाही रहती है.’ ‘मगर’ उसने उत्तर दिया-‘अब तो मैं उसे मामा कह कर पुकारता हूँ और वह मुझे बहिन का लड़का और अपना गोद लिया हुआ बेटा कहकर अफसरों के आगे पेश करता है. कहता है, हमारे खानदान के सभी लड़कों ने इसी तरह देख-देख कर इस विद्या का अभ्यास किया था.’
(Jallad Story by Bechan Sharma Ugra)

‘तो तुम भी अब,’ मैंने एक उदास साँस ली-‘जल्लाद बनने की धुन में हो? वही जल्लाद, जिसके अस्तित्व के कारण उस दिन जेल के उस कोने में पड़े तुम तड़प रहे थे और अपने भावी मामा की ओर देख-देख कर उसकी क्रूरता को कोस रहे थे. बाप रे… तुम उस भयानक रामरूप को प्यार करते हो- कर सकते हो?’ मेरे इस प्रश्न पर कुछ देर तक अलियार चुप और गम्भीर रहा. फिर बोला-‘नहीं बाबू जी मैं उस पशु को कदापि नहीं प्यार करता, बल्कि आपसे सच कहता हूँ, उससे घृणा करता हूँ. जब-जब मेरी नजर उस पर पड़ती है, तब-तब मैं उसे उसी रूप में देखता हूँ, जिस रूप में उस दिन देखा था, जिसकी आप अभी चर्चा कर रहे थे. पर मैं उसकी स्त्री का आदर करता हूँ, जो हत्यारे की औरत होने पर भी हत्यारिणी नहीं, माँ है. बस उसी कारण मैं वहाँ रुका हूँ, नहीं तो मेरा बस चले तो मैं उस रामरूप को एक ही दिन इस पृथ्वी पर से उठा दूँ, जो लोगों की हत्या करके अपनी जीविका चलाता है. और आपसे छिपाता नहीं, मैं शीघ्र ही किसी न किसी तरह उसको इस व्यापार से अलग करूँगा, इसमें कोई सन्देह नहीं.’ ‘वह ऐसा कप़ड़ा नहीं है अलियार’ मैंने कहा-‘जिस पर कोई दूसरा रंग भी चढ़ सके. रामरूप को, जहाँ तक मैंने समझा है, स्वयं भगवान भी उसके व्यापार से अलग नहीं कर सकते. दूसरे जल्लाद चाहे कुछ कच्चे अधिक हों, मगर तुम्हारा यह मामा तो जरूर ही सभी जल्लादों का दादा गुरू है. बचना तुम उससे-…और उसको उसके पथ से विरत करना नहीं सो सावधान, वह ऐसा निर्दय है कि कुछ उलटी-सीधी समझते ही तुम्हारे प्राणों तक को मसल डालेगा.’

‘पर बाबू’ अलियार ने सच-सच कहा-‘अब तो वह भी मुझको प्यार करने लग गया है. मुझे तो कभी-कभी ऐसा ही मालूम पड़ता है. आश्चर्य से चकित हो कर कभी-कभी मेरी वह नई माँ भी ऐसा ही कहा और सोचा करती है. वह क्रुद्ध होने पर अब भी अक्सर मेरी माँ को बुरी तरह मारने लगता है, पर मेरी ओर-बड़ा से बड़ा अपराध होने पर भी-न जाने क्यों, तर्जनी उँगली तक नहीं उठाता. मुझे अपने ही साथ खिलाता भी है, और यहाँ-वहाँ-जेल में और छोटे-मोटे अफसरों के पास-ले भी जाता है. मगर इतने पर भी मैं उससे घृणा करता हूँ. उसका अमंगल और सर्वनाश चाहता हूँ.’ ‘क्यों…न जाने क्यों?’ मैंने साश्चर्य से पूछा. उसने उत्तर दिया-‘मैं उस पशु को कभी प्यार नहीं कर सकता. अच्छा बाबू, आपको भी देर हो रही है, मुझे भी. यहाँ रहा तो फिर कभी सलाम करने आ जाऊँगा. इस वक्त जाने दीजिए-सलाम.’

मुझको यह विश्वास नहीं था कि वह दुबला-पतला भिखमंगा बालक अपने निश्चय का ऐसा पक्का निकलेगा कि एक दिन सारे शहर में तहलका मचा कर छोड़ेगा पर वह विचित्र निकला. एक दिन प्रातःकाल होते ही शहर में जोरों की सनसनी फैली कि आज स्थानीय जिला-जेल से कोई बड़ा मशहूर फाँसी का कैदी भाग निकला है. यद्यपि उसके भागने के वक्त पहरेदार वार्डरों को कुछ आहट मिल गई थी, पर उससे कोई फायदा नहीं हो सका. भागने वाला तो भाग ही गया. हाँ, भगाने वालों में से एक नवयुवक पकड़ा गया है. समाचार तो आकर्षक था, इसलिए कि फाँसी का कोई कैदी भागा था. मेरे जी में आया कि जरा जेल की ओर टहलता हुआ चलूँ. देखूँ, वहाँ शायद रामरूप या अलियार मिलें. उन दोनों में से किसी के भी मिलने से बहुत सी भीतरी बातों का पता चल सकेगा.
(Jallad Story by Bechan Sharma Ugra)

कपड़े पहन और टहलने की छड़ी हाथ में लेकर जब मैं जेल के पास पहुँचा तो वहाँ का हँगामा देखकर एक बार आश्चर्य में आ गया. फाटक के बाहर अपने क्वार्टरों के सामने मैदान में ड्यूटी से बचे हुए अनेक वार्डर हताश और उदास खड़े गत रात्रि की घटना पर मनोरंजक ढंग से वाद-विवाद कर रहे थे. ‘भीतर बड़े साहब और कलेक्टर’ एक ने दरियाफ्त किया-‘उसका बयान ले रहे हैं, ग़ज़ब कर दिया उस लौंडे ने. ऐसे जालिम आदमी को भगा दिया, जिसे कि, अब सरकार पा ही नहीं सकती. मैंने पहले इस छोकरे को ऐसा नहीं समझा था.’ ‘अरे उसको छोकरा कहते हो?’ दूसरे मुसलमान वार्डर ने कहा-‘साला चाहे तो बड़े-बड़ों को चरा के छोड़ दे. मगर उस पाजी की वजह से बेचारा रामरूप पिस जाएगा, क्योंकि अपना-अपना बोझ हल्का करने के लिए सभी गरीब रामरूप पर टूटेंगे. उसी की वजह से वह जेल में आने-जाने और उसके भेद पाने लायक हुआ था. अब देखना है, रामरूप की डोंगी किस घाट लगती है.’ ‘वह भी अफ़सरों के सामने जेलर साहब द्वारा बुलाया गया है. शायद उसको भी बयान देना होगा.’ ‘नहीं’, किसी गम्भीर वार्डर ने कहा-‘जेल के कर्मचारियों से जब कोई ग़लती हो जाती है, तब अपनी सारी ताकत लगा कर वह उसे छिपाने की कोशिश करते हैं. मुझे ठीक मालूम है कि उस लड़के के सिलसिले में रामरूप का नाम लिया ही न जाय और यह साबित ही न होने दिया जाय कि वह पहले से यहाँ आता-जाता था. यह बात रामरूप को और उस लौंडे को भी समझा दी गई है.’ ‘मगर वह पाजी छोकरा, जिसने उस मशहूर डाकू को भगा कर हमारे सर पर आफत का पहाड़ ढा दिया है, जेलर की सलाह मानेगा ही क्यों? अगर अपने बयान में वही कुछ कह दे?’ ‘अजी कहेगा ज़रूर ही’, किसी बूढ़े वार्डर ने राय दी-‘आखिर इस भगाई में एक खून भी तो हुआ है. माना कि खून लड़के ने नहीं, उस डाकू के किसी साथी ने किया होगा, पर अगर दूसरे न पकड़े गए तो उस वार्डर का खून तो इसी छोकरे के माथे मढ़ा जाएगा. उफ, बड़े जीवट की यह घटना हुई है. मैं तो तीस साल से इस नौकरी में हूँ. इस बीच में पचासों कैदियों के भागने की बातें मैंने सुनीं, मगर उनमें ऐसी घटना एक भी नहीं. फाँसी के कैदी का भाग जाना और भाग जाने पाना-कमाल है. अरे, इस मामले में जेल का सारा स्टाफ बदल दिया जाएगा-बड़े साहब से लेकर छोटे जमादार तक. लोग तनज़्जुल होंगे, सो अलग.’

इसी समय रामरूप जेल के फाटक से बाहर आता दिखाई पड़ा. सबकी नज़र उस पर पड़ी. ‘वह देखो’, एक ने कहा-‘वह बाहर आया, ओह, कैसी लाल हैं आज उसकी आँखें. कैसे उसके होंठ फड़क रहे हैं. जरा बुलाओ तो इधर. पूछा जाय कि भीतर क्या हो रहा है.’ ‘क्या हो रहा है रामरूप?’ अपनी ओर बुलाकर वार्डरों ने उससे दरियाफ्त किया-‘क्या कलेक्टर के आगे तुम्हारा नाम भी लिया जा रहा है?’ ‘नहीं बाबू,’ उसने दाँत किटकिटा कर कहा-‘आप लोगों की दया से मेरा नाम तो नहीं लिया जा रहा है. वह छोकरा भी इस बारे में चुप है. कुछ बोलता ही नहीं, सिवा इसके कि- हाँ, मैंने ही उस डाकू को भगा दिया है. मैंने ही मारा भी है उस वार्डर को. मेरी सहायता में और लोग भी थे, मगर मैं उन्हें इस बारे में नहीं फँसाना चाहता. मेरी सज़ा हो, मुझको फाँसी दी जाय, मैं तैयार हूँ.’ ‘फिर क्या होगा, रामरूप’ एक ने पूछा-‘लच्छन कैसे दिखाई पड़ते हैं.’ ‘क्या होगा, इसे आज ही कौन बता सकता है जमादार साहब?’ उसने नीरस उत्तर दिया-‘अभी तो सरकार उस डाकू और उसके साथियों को पकड़ने की कोशिश करेगी. इसके बाद उस साले भिखमंगे को फाँसी दी जाएगी, इसमें कोई सन्देह नहीं, वह पाजी जरूर फाँसी पर लटकाया जाएगा. मैं फाँसी पाने वालों की आँखें पहचान जाता हूँ और सच कहता हूँ कि भैरव बाबा की दया से मैं उस शैतान के बच्चे को मृत्यु के झूले पर टाँगूँगा.’ न जाने क्या विचार कर रामरूप एकाएक उत्तेजित हो उठा- ‘इन्हीं हाथों से मैंने अच्छे-अच्छे और बड़े-बड़ों को फाँसी पर टाँग दिया है. सच मानना जमादार साहब, आज तक सात आदमियों को लटका चुका हूँ. अब यह साला आठवाँ होगा, हाँ, हाँ, आठवाँ होगा-आठवाँ होगा.’ उत्तेजित रामरूप उस भीड़ से दूर एक ओर तेजी से बड़बड़ाता हुआ बढ़ गया.
(Jallad Story by Bechan Sharma Ugra)

उस समय उससे कुछ पूछने की हिम्मत न हुई. मगर आश्चर्य की बात तो यह है कि धीरे-धीरे वह क्रूर हृदय जल्लाद उस अलियार को प्यार करने लग गया था. अलियार उस दिन बिलकुल सच कह रहा था. क्योंकि सेशन अदालत से, और किसी प्रामाणिक मुजरिम के अभाव में और प्रमाणों के आधिक्य से, अलियार को फाँसी की सजा सुनाई गई, तब वही रामरूप कुछ ऐसा उत्तेजित हो उठा कि पागल सा हो गया. ‘हा हा हा हा?’ वह अदालत के बाहर ही निस्संकोच बड़बड़ाने लगा-‘अब लूँगा-अब बच्चू से लूँगा बदला. क्यों न लूँ बदला उससे? मैंन सरकारी हुक्म से उसको, उस दिन बेंत मारे थे, जिसका उसने मुझसे ऐसा भयानक बदला लिया है. मेरी रोजी मारते-मारते बचा. वह तो बचा ही, उस पापी ने मेरी औरत को अपने प्रेम में खाट पकड़वा दी है. अब भोगो बेटे, अब झूलो पालना बच्चू. हा हा हा हा.’ यद्यपि अलियार की फाँसी की सजा सुन कर जल्लाद अट्टहास कर उठा, पर मेरा तो कलेजा धक् से होकर रह गया. मुझको ऐसी आशा नहीं थी कि जिस कहानी का आरम्भ, उस दिन जेल के कोने में, अलियार और जल्लाद से मेरे परिचित होने से हुआ था, उसका अन्त ऐसा वीभत्स होगा. मैंने बड़े दुख के साथ, उस दिन यह निश्चय किया कि अब मैं कभी उस रामरूप के सामने न जाऊँगा. मगर संयोग को कौन टाल सकता है? जिस दिन अलियार को दुनिया के उस पार फेंक देने का निश्चय हो गया था, उससे एक दिन पूर्व मैंने उसको अन्तिम बार पुनः देखा.

हाथ में एक हाँडी लिए परम उत्तेजित भाव से वह शहर की एक चौमुहानी पर खड़ा था और उसको घेरे हुए लड़कों, युवकों और बेकारों की एक भीड़ खड़ी थी. अजीब-अजीब प्रश्न लोग उस पर बरसा रहे थे और वह उनके रोमांचकारी उत्तर दे रहा था. किसी ने पूछा-‘तुम कौन हो भाई…’ ‘मैं?’ वह मुस्कराया-‘मैं महापुरुष हूँ. आह, पर अफसोस, तुम नहीं जानते कि मैं महापुरुष क्योंकर हो सकता हूँ, क्योंकि मैं तो खानदानी जल्लाद रामरूप हूँ. पर अफसोस, तुम नहीं जानते कि प्रत्येक जल्लाद महापुरुष होता है.’ ‘अच्छा यार,’एक ने कहा-‘हमने मान लिया कि तुम महापुरुष हो. पर यह तो बताओ कि आज यहाँ’ इस तरह क्यों खड़े हो?’ ‘यह हाँडी,’ उसने हाँडी का मुँह भीड़ के सामने किया-इसमें फाँसी की रस्सी है जरूर, यह असली नहीं है. असली रस्सी तो दुरुस्त करके आज ही जेल में ऐसे ही एक बरतन में रख आया हूँ. वह रस्सी इससे कहीं सुन्दर, कहीं मजबूत है. इसको तो केवल अभ्यास के लिए अपने साथ लेता आया हूँ. आज रात भर इन उस्ताद हाथों को फाँसी देने का अभ्यास जोर-शोर से कराऊँगा. क्योंकि इस बार मामूली आदमी को नहीं लटकाना है. इस बार उसको लटकाना है, जिसके झूलते ही कोई आश्चर्य नहीं, जो मेरी औरतिया भी इस दुनिया से कूच कर जाये, क्योंकि वह उस पापी को प्यार करती है. किसी ने कहा-जरा अपने गले में इस रस्सी को लगा कर दिखाओ तो रामरूप कि फाँसी की गाँठ कैसे दी जाती है? ‘हाँ, हाँ’ उसने रस्सी को अपने गले में चारों ओर लपेट कर, गाँठ देना शुरू किया.
(Jallad Story by Bechan Sharma Ugra)

‘यह देखो, यह गले का कण्ठ है और यह है मेरी मृत्यु-गाँठ. बस, अब केवल चबूतरे पर खड़ाकर झुला देने की कसर है. जहाँ एक झटका दिया कि बच्चू गए जग-धाम. यह देखो…यह देखो….’ अपने गले में उस रस्सी को उसी तरह लपेटे वह उन्मत्त रामरूप हाँडी फेंक कर, भीड़ को चीरता हुआ एक ओर बेतहाशा भाग गया. दूसरे दिन अलियार को फाँसी देने के लिए जब सशस्त्र पुलिस, मैजिस्ट्रेट, जेल-सुपरिन्टेंडेंट और अन्य अधिकारी एकत्र हुए तो मालूम हुआ कि जल्लाद रामरूप हाजिर नहीं है. पुलिस दौड़ी, जेल के वार्डर दौड़े, उसको ढूँढने के लिए. मगर वह मिल न सका. न जाने कहाँ गायब हो गया. अलियार को उस दिन फाँसी नहीं हो सकी. मगर उसी दिन दोपहर को कुछ लोगों ने रामरूप को शहर के बाहर एक बरगद की डाल में, फाँसी पर टँगे देखा. उसकी गर्दन में वही रस्सी थी, जिसको कुछ घण्टे पूर्व शहर के अनेक लोगों ने उसके हाथ में देखा था. उस समय भी उसकी आँखें खुली, भयानक और नीरस थीं. जीभ मुँह से कोई बारह अंगुल बाहर निकल आई थी कि बड़े-बड़े हिम्मती तक उसकी ओर देख कर दहल उठते थे.
(Jallad Story by Bechan Sharma Ugra)

पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’

पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की यह कहानी गद्यकोश से साभार ली गयी है.

काफल ट्री फाउंडेशन

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

13 hours ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

13 hours ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

6 days ago

साधो ! देखो ये जग बौराना

पिछली कड़ी : उसके इशारे मुझको यहां ले आये मोहन निवास में अपने कागजातों के…

1 week ago

कफ़न चोर: धर्मवीर भारती की लघुकथा

सकीना की बुख़ार से जलती हुई पलकों पर एक आंसू चू पड़ा. (Kafan Chor Hindi Story…

1 week ago

कहानी : फर्क

राकेश ने बस स्टेशन पहुँच कर टिकट काउंटर से टिकट लिया, हालाँकि टिकट लेने में…

1 week ago