उत्तराखंड सरकार ने पौड़ी गढ़वाल जिले में औद्योगिक भांग की खेती को बढ़ावा देने की खातिर एक प्रायोगिक परीक्षण शुरू करने के लिए इंडिया इंडस्ट्रियल हेंप एसोसिएशन (आईआईएचए) को एक लाइसेंस जारी किया है. आईआईएचए को पांच साल के लिये आबकारी विभाग के माध्यम से लाइसेंस जारी हुआ है. आईआईएचए ने पौढ़ी जिले में सतपुली के समीप बिलखेत में नौ हेक्टेयर भूमि लीज पर ली है, जहाँ पांच सौ वर्ग मीटर के तीन पाली हाउस में भांग की औद्योगिक किस्म का बीज तैयार किया जा रहा है. उत्तराखंड देश में पहला ऐसा राज्य है, जिसने औद्योगिक भांग की खेती को वैध बनाया है. जिस तरह मध्य प्रदेश में अफीम की खेती के लिए लाइसेंस जारी किए जाते हैं, उसी तरह यह भांग के लिए भी जारी किया जा सकता है. उद्योग में भांग का सबसे ज्यादा इस्तेमाल फाइबर के रूप में होता है.
भांग की खेती सुनते ही लोग भांग खाये जाने जैसा व्यवहार करने लगते हैं. भारत में भांग की खेती पुराने समय से होती है. नार्कोटिक्स ड्रग्स ऐंड साइकोट्रॉपिक सब्सटेंसेज ऐक्ट, 1985 (एनडीपीएस अधिनियम) के तहत भारत में भांग के पौधे के फूलों, फलों और राल से बनने वाले हशीश, गांजा और चरस जैसे नशों पर भी प्रतिबंध लगा दिया था. इस एक्ट के तहत केंद्र सरकार को बागवानी और औद्योगिक उद्देश्य के लिए लाइसेंस देने का अधिकार है. इस एक्ट में यह भी कहा गया है कि सरकार कम टीएचसी (टेट्राहाइड्रो कैनीबीनॉल) मात्रा वाली भांग की किस्मों पर अनुसंधान को प्रोत्साहित करेगी.
उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों के लिए भांग की खेती को प्रोत्साहन फायदेमंद हो सकता है. भांग की खेती कम उपजाऊ भूमि में भी की जा सकती है. एक ही खेत में अनेक वर्षों तक भांग बोये जाने पर भूमि की उत्पादकता एनी फसलों के मुकाबले कम तीव्र गति से गिरती है. भांग की खेती एक लिए 90 से 110 दिन तक का समय चाहिये. उत्तराखंड में मक्के के साथ भांग की मिश्रित खेती पारंपरिक रूप से प्रचलित है.
औद्योगिक भांग में कम टीएचसी और ज्यादा कनबिडाइओल (सीबीडी) होता है, जो इसके दिमाग पर पड़ने वाले असर को कम करता है. भांग की कम टीएचसी वाली किस्म की ज्यादा मांग है क्योंकि विभिन्न उद्योगों में इसके कई उपयोग हैं. इन पौधों के लगभग सभी हिस्सों- तना, पत्ती, फूल और यहां तक कि बीज का उद्योगों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है.
इंडिया इंडस्ट्रियल हेंप एसोसिएशन (आईआईएचए) वर्ष 2012 से बेंगलूरु के श्रीराम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडस्ट्रियल रिसर्च के साथ मानक और परीक्षण नियमावली विकसित करने के लिए काम कर रहा है ताकि भांग की औद्योगिक किस्म और अन्य किस्मों में विभेद किया जा सके.
भांग के बीजों का इस्तेमाल खाद्य रूप में उत्तराखंड में वर्षों से किया जाता है. शायद ही उत्तराखंड का कोई घर ऐसा होगा जिसमें आलू के गुटके के साथ भांग की चटनी नहीं बनती हो. इसमें प्रोटीन की भी उच्च मात्रा पायी जाती है.
भांग से निकाले गए तेल में ओमेगा फैटी एसिड होते हैं. ओमेगा फैटी एसिड कोलेस्ट्रॉल को घटाते हैं. यह हृदय के लिए अच्छे हैं. इसके फूलों में दवा के गुण होते हैं. डॉक्टर मिर्गी और कैंसर जैसी बीमारियों के इलाज में इसके इस्तेमाल की सलाह देने लगे हैं. इसके फूल और पत्तियों का प्रयोग सौन्दर्य प्रसाधन उत्पादों में भी किया जाता है.
आयुर्वेदिक और यूनानी दवाओं में भांग का प्रयोग दर्द कम करने वाली दवा के रूप में होता है. औद्योगिक भांग की फाइबर, कॉस्मेटिक एवं दवा, एमडीएफ प्लाईबोर्ड बनाने और निर्माण उद्योग में भारी मांग है. आईआईएचए के एक शोध अनुसार औद्योगिक भांग की खेती की औसत लागत करीब 60,000 रुपये प्रति एकड़ है जो 2 से 2,5 लाख तक का प्रतिफल दे सकता है. इस भांग से निकलने वाला रेशा बहुत ही पतला और मजबूत होता है जिसका इस्तेमाल कार की बाडी, कागज़ आदि उद्योगों में किया जाता है. भारत में केवल भांग के फाइबर की ही सालाना मांग 1,50,000 टन से अधिक है. घरेलू उपलब्धता के अभाव में हमें यह चीन से आयात करना पड़ता है.
18 साल में उत्तराखंड सरकार ने भांग की खेती को लेकर भांग खाये जैसा व्यवहार रखा है. इस तथ्य के आधार पर कि भांग की खेती राज्य में नशे को बढ़ावा देगी राज्य सरकार ने इस ओर अब तक कोई कदम ही नहीं उठाये थे. राज्य में उत्पादन से नशे के बढ़ने के तर्क को सही मान लिया जाय तो शराब की राज्य सकल घरेलू उत्पाद (राज्य जीडीपी) में लगभग 20% की हिस्सेदारी नहीं होती.
सरकार हसीस गांजा वाले भांग और औद्योगिक भांग के अंतर को नही खुद समझ पायी है नहीं राज्य के लोगों को समझाने का प्रयास कर पाई है. जो भांग अभी तक राज्य में प्रतिबंधित है उसके संबंध में आकड़े कुछ यूं हैं पिछले नौ सालों में अकेले चम्पावत जिले में 3 किवंटल से अधिक चरस पकड़ी गयी है जनवरी 2018 से अगस्टी माह तक चम्पावत में 40 किलो की चरस पकड़ी गयी है.
उत्तराखंड सरकार को चाहिये की एक स्वतंत्र, कठोर, नियामक तले राज्य में औद्योगिक भांग की खेती के लिये राज्य के किसान को प्रोत्साहित करना चाहिए. भांग से बनने वाले उत्पादों के लिये सरकार को लघु उद्योगों की स्थापना में सहायता करनी चाहिये. सरकार को इस भ्रम से निकलना होगा कि भांग के खेतों में जाकर कोई हसीस गांजा नहीं फूंकता. उत्तराखंड में कृषि क्षेत्र सर्वाधिक रोजगार देता है. वर्तमान में राज्य में पर्वतीय कृषि का 90% हिस्सा महिलाओं ने संभाल रखा है. क्या उत्तराखंड में कोई अन्य फसल 600 फीसदी तक का प्रतिफल दे सकती है?
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