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बीमार स्वास्थ्य सेवाओं को इलाज की जरूरत

देश में स्वास्थ्य सेवा को मज़बूत करने के लिए केंद्र सरकार लगातार प्रयास कर रही है. इसकी झलक 2019-20 के केंद्रीय बजट में भी देखने को मिला है. बजट में सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र को 62,659.12 करोड़ रुपए देने की घोषणा की है. यह धनराशि बीते दो वित्तीय वर्षों में आवंटित किये गए राशि से 19 प्रतिशत अधिक है. पिछले वर्ष 2018-19 के बजट में इस क्षेत्र को 52,800 करोड़ रुपए दिए गए थे जबकि इसी वर्ष के अंतरिम बजट में मोदी सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र में 61,398.12 करोड़ रुपए आवंटित किये थे. इसके अतिरिक्त इस बार के बजट में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत 1,349.97 करोड़ रुपए आवंटित किये गए हैं. जिसके तहत करीब डेढ़ लाख स्वास्थ्य उपकेंद्रों और प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों को 2022 तक हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर्स में परिवर्तित किया जायेगा.

वास्तव में सेहत हज़ार नेमतों से बढ़ कर है. स्वस्थ्य मनुष्य से ही सेहतमंद समाज का निर्माण संभव है. इसीलिए सरकार की ओर से भी स्वास्थ्य के क्षेत्र में लगातार बेहतरी के प्रयास किये जा रहे हैं और इसके लिए न केवल बजट में इज़ाफ़ा किया जाता रहा है बल्कि लोगों तक स्वास्थ्य योजनाओं की जानकारियां पहुंचाने के लिए विज्ञापन पर भी करोड़ों खर्च किये जा रहे हैं. लेकिन सरकार का यह प्रयास धरातल पर कितना कामयाब हो रहा है और आम जनता को इसका लाभ मिल भी रहा है या नहीं, आज भी एक सवाल बना हुआ है. हकीकत तो यह है कि आज भी देश में ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां सरकार की स्वास्थ्य सुविधाएं नाममात्र की पहुँच रही है. बल्कि स्वास्थ्य सेवा इस कदर चरमरा चुकी है कि उसे खुद इलाज की ज़रूरत है.

धरती का स्वर्ग कहे जाने जम्मू कश्मीर के सीमावर्ती ज़िला पुंछ का मंडी तहसील भी एक ऐसा क्षेत्र है जहां की स्वास्थ्य सेवाएं लगभग ठप्प हो चुकी हैं. इस तहसील में बायला, धहरा, फतेहपुर और मोरबन जैसे दूर-दराज़ के गांव हैं जहां स्वास्थ्य सेवा केंद्र संचालित तो हैं लेकिन मरीज़ों का नाममात्र इलाज किया जाता है. बायला गांव के मो. दीन के अनुसार उनके गांव में एक स्वास्थ्य उपकेंद्र ज़रूर संचालित है लेकिन वहां इलाज की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है क्योंकि उपकेंद्र में किसी प्रकार के जांच की सुविधा नहीं है. वहीं मोरबन गांव के रहने वाले अल्ताफ़ अहमद के अनुसार उनका घर पहाड़ पर है, जहां से सड़क तक पहुँचने के लिए पांच किमी पैदल चलना पड़ता है. केंद्र से लेकर राज्य तक की सरकारों ने विकास पर ज़ोर दिया लेकिन मोरबन गांव आज भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है. स्वास्थ्य सुविधा इस क़दर लचर है कि अगर कोई बीमार पड़ जाये तो उसे कंधे पर उठा कर अथवा खाट से बांध कर घंटों पैदल सफर तय करके मंडी उप स्वास्थ्य केंद्र तक पहुंचाया जाता है. लेकिन डॉक्टरों की कमी के कारण अक्सर वहां पहुँच कर परिजनों को मायूसी का सामना करना पड़ता है. ऐसे में प्रसव के लिए किसी गर्भवती महिला और उसके परिजनों को कितनी विकट परिस्थिती का सामना करना पड़ता है, महानगरों में रहने वाले इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं.

एक तरफ जहां हुकूमत मुल्क की तरक्की के बड़े बड़े दावे कर रही है वहीं दूसरी तरफ विडंबना यह है कि देश के सुदूर क्षेत्रों के लोग आज भी बिजली, पानी, सड़क और स्वास्थ्य सेवाओं जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं. केंद्र और राज्य सरकार के साथ साथ स्थानीय प्रशासन और जनप्रतिनिधियों द्वारा भी इन क्षेत्रों की उपेक्षा लगातार की जाती रही है. मंडी तहसील स्थित फतेहपुर गांव के एक सामाजिक कार्यकर्ता जावेद ऋषि के अनुसार मंडी तहसील के ज़्यादातर गांव के निवासी 21वीं सदी में भी बुनियादी ज़रूरतों के लिए संघर्षरत हैं. इन क्षेत्रों में न तो प्राथमिक शिक्षा की कोई बेहतर व्यवस्था है और न ही प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की. स्वास्थ्य विभाग भी इन दूर-दराज़ क्षेत्रों में सुविधा के नाम पर कागज़ी खानापूर्ति कर अपना पल्ला झाड़ लेता है. ऐसी परिस्थिति में लोगों को मामूली इलाज के लिए भी पुंछ के ज़िला अस्पताल का रुख करना पड़ता है. जो खेती किसानी और मज़दूरी करने वाले एक गरीब आदमी के लिए काफी मुश्किल होता है.

धहरा गांव के स्थानीय पत्रकार मक़सूद आलम लोन के अनुसार धहरा गांव की आबादी करीब तीन हज़ार से अधिक है. यहां की अधिकतर आबादी दूर-दराज़ ऊंचे ऊंचे पहाड़ों पर निवास करती है. जिन्हें रोज़ाना कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. गांव में यदि कोई बीमार हो जाता है तो वह घंटों पैदल सफर कर मंडी के उप स्वास्थ्य केंद्र पहुँच पाता है. लेकिन वहां भी उसे समय पर उचित इलाज मयस्सर नहीं हो पाता है क्योंकि न तो समय पर उसे डॉक्टरी इलाज मिल पाता है और न ही उसकी जांच के लिए कोई उपकरण उपलब्ध हो पाता है. इस संबंध में जब पुंछ के मुख्य चिकित्सा अधिकारी से बात हुई तो उन्होंने एम्बुलेंस सेवा देने में यह कहकर असमर्थता जताई कि ड्राईवर को सैलेरी देने के लिए फंड नहीं है. इससे पहले पूर्व विधायक की पहल पर फतेहपुर गांव में एम्बुलेंस सेवा शुरू की गई लेकिन आज तक उसके ड्राइवर को सैलेरी नहीं मिल पाई है. जबकि बायला उपस्वास्थ्य केंद्र में दवाओं की उपलब्धता के संबंध में उन्होंने सफाई दी कि ऐसे केंद्रों पर केवल मामूली बिमारी के लिए दवाएं उपलब्ध कराई जाती है. वहीं डॉक्टरों की कमी के संबंध में उच्च अधिकारियों तक रिपोर्ट भेजने की बात भी कही.

प्रश्न उठता है कि क्या एम्बुलेंस के ड्राइवर की सैलेरी स्वास्थ्य विभाग के अंतर्गत विषय नहीं है? क्या बिना ड्राइवर के एम्बुलेंस सुविधा देना मरीज़ों के साथ मज़ाक नहीं है? आयुष्मान भारत और प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं के माध्यम से केंद्र सरकार समाज के अंतिम व्यक्ति तक स्वास्थ्य योजनाओं का लाभ पहुंचना चाहती है लेकिन मंडी तहसील के इन गावों में स्वास्थ्य सुविधाओं का घोर अभाव सरकार के इन्हीं प्रयासों पर प्रश्नचिन्ह लगाता है. ऐसे में राज्य और स्थानीय स्वास्थ्य विभाग के बीच बेहतर समन्वय के बिना धरातल पर इन योजनाओं का शत प्रतिशत कामयाब होना मुमकिन नहीं है.

ख़्वाजा यूसुफ जमील

पुंछ, जम्मू-कश्मीर में रहने वाले युवा लेखक ख़्वाजा यूसुफ जमील का यह लेख हमें चरखा फीचर्स से प्राप्त हुआ है





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Sudhir Kumar

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