धरती और आकाश के मध्य जो भी अवस्थित है उस पर सब कुछ और बहुत बार लिखा जा चुका है फिर भी मैं किसी हाशिये पर पड़े हुए अदना से अस्तित्व को ढूंढकर लाऊंगी आप सभी के समक्ष और उस पर लिखूंगी स्मृतियों के पुनर्नवा के अंश. (Imamdasta Pahadi Kitchen)
अतीत के सुनहरे गुरुत्वाकर्षण से मैं कभी अपने को मुक्त कर ही नहीं पाती हूं. कशमकश में हूं कि अतीत की इन स्मृतियों को वर्तमान की वैचारिक कंदरा में कैसे सुव्यवस्थित करुं?
गौरतलब है कि धरोहरें प्राप्त होने के भी विभिन्न साधन हैं, प्राचीन व परंपरागत धरोहरें किसी को मां-पिता द्वारा प्राप्त होती हैं. किसी को ससुराल द्वारा अपने पूर्वजों की धरोहरें प्राप्त होती हैं. किंतु कुछ धरोहरें ऐसी भी होती हैं जिनका अपने संपूर्ण जीवन में उपयोग करके मां यदि उनकी साज-संभाल में स्वयं को अक्षम पाती है तो यह जानते हुए कि बच्चों के जीवन में भविष्य में आगे भी इनकी जरूरत बने रहने वाली है, मां अपनी इन प्रिय वस्तुओं को संतानों के सुपुर्द कर देती हैं ताकि धरोहरों का अस्तित्व और उनसे जुड़ी परंपरायें जीवित रहें. दरअसल मेरे घर के हर कोने में मेरे ससुराल और मायके की प्राचीन धरोहरें रखी हुई हैं जैसे पीतल की बड़ी-बड़ी परात, पानी लाने के बंटे, कांसे की थालियां, यह सभी बर्तन मेरे पास इसलिए हैं और मेरे पास ही क्यों? गढ़वाल की हर स्त्री के पास आपको यह परंपरागत बर्तन मिल जायेंगे क्योंकि पीतल के ये बर्तन गढ़वाल में हर बेटी को उसके विवाह- संस्कार के निर्वाह के दौरान मां-बाप द्वारा उपहार स्वरूप दिये जाते हैं. तदोपरांत, उन धरोहरों की साज-संभाल होती है या स्टोर रूम में कहीं किसी कोने में फेंक दिये जाते हैं या फिर कूड़ा-करकट समझ कर बेच दिये जाते हैं ये तो पृथक घर के पृथक लोग ही जानें. मेरे पास भात निकालने का पलटा है पुराने तरीके का, चम्मच स्टैंड है, बटलोई है, पहाड़ी हरा नमक पीसने का सिलबट्टा है, इमामदस्ता है. मेरे घर का हर प्राचीन बर्तन अतीत की सुखद स्मृतियां बांचता है. यदि इन सभी पर कुछ लिखूं तो यह ऐसे ही होगा जैसे आलमारी से एक कपड़ा निकाला और बाकि सब धड़़धड़ाकर नीचे गिर गये और फिर समझ ही नहीं आता कि किस कपड़े को तह मारकर सबसे ऊपर रखूं? यूं ही रसोईघर में पानी लेने गयी, खिड़की पर रखा हुआ इमामदस्ता मुझे स्मृतियों के बाइस्कोप दिखाने लगा. मां ने भी अपनी सहेलियों को देख-देख कर जुगत-जुगाड़ करके आखिरकार इमामदस्ता ले ही लिया. कालोनी में माहौल ऐसे ही होता है. मां खड़े मसाले धूप में सुखाकर, इमामदस्ते में कूटकर गर्म मसाले तैयार कर करती थीं. आज सोचती हूं तो अचंभा होता है मुझे. कैसे मां समय निकाल लेती थी इन सब कामों के लिए? घर के सारे काम निपटाने के बाद मसाला कूटकर तैयार करना, अचार सानना, सिलबट्टे पर पहाड़ी हरा नमक तैयार करना, रोज सब्जी व दाल के लिए सिलबट्टे पर गीला मसाला तैयार करना और उसके बाद अपनी घर गृहस्थी में खुश रहना.
आज हमारे पास सभी प्रकार की सुख-सुविधाएं हैं, भी ठीक-ठाक चल रहा है किंतु फिर भी ना जाने क्यों एक अदृश्य तनाव और खालीपन बना ही रहता है जीवन में. हमारी दादी-नानी और मां के रसोईघर में इमामादस्ता रसोईघर की शान हुआ करता था. किंतु आज इनकी जगह आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त चमचमाते रसोईघरों ने ले ली है जहां ना घी के छौंक की रसाण है, ना पीसे हुए मसालों और हरे नमक की सुगंध, ना ही प्याज और लहसुन से महकता रसोई घर.सच! हम पहाड़ियों की रसोई अपने पहाड़ की ही नहीं लगती.
इमामदस्ता या खलमूसल दरअसल हमारे यहां रसोईघर तक ही सीमित नहीं है यह हमारे गढ़वाल की संस्कृति में भी महनीय है. गढवाल में चाहे लड़का हो या लड़की इमामदस्ते के बिना विवाह जैसा मांगलिक कार्य संपन्न हो ही नहीं सकता है. मां जिस दिन इमामदस्ता खरीदकर लायीं उस दिन वह फूले नहीं समा रही थीं. हम सभी भाई-बहन समझ नहीं पा रहे थे कि इमामदस्ता खरीदकर उन्होंने कौन सी उपलब्धि हासिल कर ली थी? आज समझ में आया है मुझे कि इमामदस्ता खरीदकर कतरा-कतरा जोड़ने वाली मां ने अपने बच्चों के ब्याह को लेकर देखे गये सुखद स्वपन की पहली नींव जो रख दी थी. अब वह भी किसी पर निर्भर नहीं थीं. उनके पास उनका अपना इमामदस्ता था. नहीं तो लोगों की खुशामद करके मांगते फिरो. इमामदस्ता उन दिनों सभी के घरों में होता था. बमुश्किल कोई किसी से मांगने जाता था. हमारे गढवाल में लड़का या लड़की को ब्याह से पहले जो हल्दी लगायी जाती है उसे बान देना कहते हैं. बान देने के लिए ब्योंला या ब्योंली को बाहर आंगन में चौकल पर बिठाने से पहले घर के भीतर पंडित जी द्वारा एक सूक्ष्म पूजा की जाती है. यहां इमामदस्ता एक अहम दायित्व का निर्वाह करता है. बाहर ढोल, रौंटी व मशकबाज की मधुर आवाज़ सुनाई देती है. भीतर पंडित जी मंत्रोच्चार करते हैं, उधर दो सौभाग्यशाली स्त्रियों द्वारा कूटपीस की रस्म अदा की जाती है. बाकि स्त्रियां बड़ी सी गढ़वाल की पहाड़ी नथ, हाथ में पौंची और पूरा-अलंकार पहने मांगल गीत गाती हैं.
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वैसे गढ़वाल में भी अपनी-अपनी परंपरा और अपनी-अपनी रीतियां हैं जो अपने-अपने अनुसार निभाई जाती हैं. सौभाग्यशाली स्त्रियां अर्थात जो रजस्वला से उस क्षण निवृत्त हो चुकी हों, कभी कोई गर्भ ना गिरा हुआ हो, संतानयुक्त हों या फिर कुंवारी लड़कियां हों. कूटपीस अर्थात इमामदस्ते में लगभग थोड़ी सी हल्दी और लगभग एक-डेढ़ किलो उड़द और चावल पीसे जाते हैं जिसे बाद में औजीयों (वाद्य यंत्र बजाने वाले) को बांट दिया जाता है या फिर पंडित जी ले जाते हैं. इस कूट-पीस की रस्म के निर्वाह के लिए शुभ मुहूर्त निकाला जाता है. पुराने समय में कूटपीस की रस्म जंधेरे या उर्ख्याली (अनाज कूटने के लिए जमीन पर ही बनाया गया गहरा व गोल पत्थर यानि कि ओखल और साथ में लकड़ी का बना हुआ बड़ा सा मूसल) रस्म बहुत छोटी होती है किंतु लोक वाद्य, लोकगीत, लोक संस्कृति और गढ़वाल की स्त्रियों के परम सौंदर्य के समावेश की इसमें अद्भुत झलक मिलती है. तो यह थी इमामदस्ते की गढ़वाल के पाणिग्रहण-संस्कार में सहभागिता की बात. किंतु यदि बदलते वक्त के साथ यह रस्म-परंपरायें यदि खत्म भी हो जायें तो हमें अपने पूर्वजों, माता-पिता और ससुराल से मिली अमूल्य निधियों अर्थात धरोहरों की साज-संभाल होनी चाहिए. मेरे अनुसार धरोहर माध्यम भी हैं हमारे अपनों को जीवित बनाये रखने हेतु.सनद रहे! हर धरोहर जीवंत किस्से-कहानियां बांचती हैं हमारे अपनों की जो बीता हुआ कल तो हो गये हैं किंतु फिर भी जीवित हैं अपने समय में उनके द्वारा उपभोग और संचित की गयी निर्जीव वस्तुओं के माध्यम से जो कि कालांतर में धरोहर का रुप ले लेती हैं अपनी नई पीढ़ियों तक पहुंचते-पहुंचते. (Imamdasta Pahadi Kitchen)
देहरादून की रहने वाली सुनीता भट्ट पैन्यूली रचनाकार हैं. उनकी कविताएं, कहानियाँ और यात्रा वृत्तान्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं.
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