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कुमाऊँ का हुड़किया समुदाय

लोकसंस्कृति के पुरोधा

हुड़किया उत्तराखण्ड के कुमाऊँ मंडल में एक उपजाति हुआ करती है. यह राजस्थान की मिरासी जाति की ही तरह एक जाति है. यह उत्तराखण्ड की शिल्पकार (दलित) जाति की ही एक उपजाति (Hudakia Community of Kumaon) हुआ करती है. पुराने ग्राम्य समाज के ढांचे में इसका काम विभिन्न मांगलिक अवसरों और पर्व-त्यौहारों के मौके पर घर-घर जाकर उनसे संबंधित गीत-संगीत गाना हुआ करता था. घरों के अलावा ये लोग विभिन्न ऋतुओं के आगमन, फसल बुवाई-कटाई, मेलों और विवाह, उपनयन आदि संस्कारों के मौके पर भी गीत गाया करते थे. इनके पास स्थानीय शासकों की वीरगाथाओं का भी भण्डार हुआ करता था. गीत-नृत्य की सभी विधाएँ इन्हें विरासत में मिला करती थीं. यह ज्ञान इनके पास पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित हुआ करता था. अगली पीढ़ी पिछली पीढ़ी से इसे कंठस्थ कर लिया करती या सीख लिया करती थी.

हुड़का बजाने के कारण मिला नाम

उत्तराखण्ड के एक महत्वपूर्ण ताल वाद्य हुड़का बजाने के कारण इन्हें हुड़किया कहा जाने लगा. बाद में यही इनकी पहचान बन गया.

मुस्लिम हुड़किया

हुड़किया नाम से ही मुस्लिम समुदाय भी जाना जाता है. इन्हें भी यह पहचान हुड़के जैसे वाद्य की वजह से मिली है. सुन्नी मुस्लिम हुड़किया उत्तराखण्ड में नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों में पाए जाते हैं. मुख्यतः आगरा, फर्रुखाबाद, इटावा जिलों में पाए जाने वाले मुस्लिम हुड़किया भी जातीय सोपानक्रम में दलित माने जाते हैं. गीत-संगीत ने इनका रुझान सूफी परंपरा की ओर कर दिया. इनमें से भी ज्यादातर आज दिहाड़ी मजदूरों में तब्दील हो चुके हैं.

शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता

ये लोग गायन की शास्त्रीय शैली का इस्तेमाल भी किया करते थे, जबकि इन्हें इसका कोई सैद्धांतिक ज्ञान नहीं हुआ करटा था. इस समुदाय की महिलाएं गायिकायें, सजिंदा होने के साथ ही बेहतरीन नर्तकियां भी हुआ करती थीं. इसके अलावा अपनी आजीविका के लिए हुड़किया समुदाय के लोग मेहनत के अन्य काम भी करते थे.
इनके इस सांस्कृतिक योगदान के बदले में इन्हें ग्राम्य समाज द्वारा अनाज व रोजमर्रा की जरूरतों का सामान दिया जाता था. कभी-कभार इन्हें नकद धनराशि भी मिल जाया करती थी. पारंपरिक लोक-संगीत की धरोहर ‘हरदा सूरदास’

पिथौरागढ़ से जुड़ी है जड़ें

कहा जाता है कि यह लोग मूलतः पिथौरागढ़ जिले के गंगोलीहाट से ताल्लुक रखते हैं. यहाँ से ही यह लोग राज्य के अन्य हिस्सों में विस्तार लेते गए. जोहार के शौका समुदाय ने हुड़किया समुदाय को काफी संरक्षण दिया, उन्हें उनके सांस्कृतिक कामों का अच्छा मेहनताना दिया. बताया जाता है कि परंपरागत रूप से हुड़किया मुख्यतः शौका और खस राजपूतों का ही मनोरंजन किया करते थे. आज भी हुड़किया लोग पिथौरागढ़ जिले में ही ज्यादा पाए जाते हैं. हालाँकि नैनीताल और अल्मोड़ा जिले में भी इनकी अच्छी-खासी संख्या रहती है.

नयी पीढ़ी ने छोड़ा पुश्तैनी काम

वक़्त बीतने के साथ सामाजिक ताना-बाना बदल गया. इस कारण से हुड़किया लोग अप्रासंगिक से हो चले. पुराने ग्राम्य समाज के बिखरने से इन्हें इस व्यवसाय से रोजी-रोटी मिलना संभव नहीं रहा. लगभग सभी हुड़किया लोगों ने अपने पारंपरिक व्यवसाय को छोड़ दिया. इनकी नयी पीढ़ी ज्यादा मजदूरी वाले रोजगार की तलाश में शहरों-कस्बों को पलायन कर गयी. इनमें से ज्यादातर दर्जी के व्यवसाय में लग गए, जिसे कि यह पहले भी आंशिक तौर पर किया करते थे.

हुड़के की गमक और हुड़किया बौल

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Sudhir Kumar

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