आज के समय में जन्मकुंडली आदि कम्पूटर में तैयार की जाती हैं और उसी से प्रिंट भी निकाले जाते हैं. लेकिन एक समय में इसे हाथ से बनाया जाता था, जिसमें सुंदर सी लिखावट में लिखा गया होता था.
अगर आप पुराने समय की जन्म कुंडली देखेंगे तो उसमें काले रंग से लिखा गया है. सैकड़ों वर्षों के बाद भी यह रंग काफ़ी गहरा और चमकदार दिखता है. क्या आप जानते हैं पहाड़ों में पुराने समय में काला रंग कैसे बनाया जाता था?
काले रंग का प्रयोग दैनिक जीवन में काफ़ी होने के कारण इसे बनाने के बहुत से तरीके होते हैं. सैल के भीतर के मसाले से काला रंग प्राप्त करना एक एक आसान सा तरीका था जो अभी पिछले दशक तक पहाड़ों में देखने को मिलता था. लेकिन इससे पहले घरों में पारम्परिक तरीके से काला रंग बनाया जाता था, जिसके बहुत से तरीके थे.
जैसे केले के पेड़ के बीच के हिस्से को पकाया जाता था और उससे काला रंग बनाया जाता था. इस तरह प्राप्त काले रंग से जन्मकुंडली इत्यादि लिखी जाती थी. इसमें चमक के लिये गुड़ भी मिलाया जाता था.
इसीतरह दाड़िम के छिल्के से भी काला रंग बनाया जाता था. सबसे पहले दाड़िम के छिल्के को भिगोते हैं फिर उबालते हैं और अंत में उसे छान लेते हैं. इसमें गोंद मिलाकर इसे हल्का चिपचिपा बना लेते हैं. इस तरह से तैयार रंग का प्रयोग कई दिनों तक किया जा सकता था.
कोयले को पीसकर भी काला रंग बनाया जाता था लेकिन यह बहुत लम्बे समय तक नहीं चलता था. इसी कारण सेल के मसाले से निर्मित काला रंग बाद के दिनों में सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ.
सबसे पहले सेल के भीतर का मसाला निकालकर उसमें गुड़ घोटते हैं. अच्छी तरह से सेल और गुड़ का मिश्रण बनने पर इसमें दूध मिलाते हैं. दूध का प्रयोग इसलिये किया जाता है क्योंकि पानी मिलाने से उसका रंग जल्दी उड़ जाता है.
काला रंग प्राप्त करने का एक अन्य स्त्रोत था ‘रतगली’ की बेल. रतगली पहाड़ों में पाई जाने वाली एक बेल है जिसे पीसकर काला रंग प्राप्त किया जाता था.
डॉ. कृष्णा बैराठी और डॉ कुश ‘सत्येन्द्र’ की पुस्तक कुमाऊं की लोककला, संस्कृति और परम्परा के आधार पर.
-काफल ट्री डेस्क
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