हैं बिखरे रंग माज़ी के
-अमित श्रीवास्तव
उस तरफ विपुल की आवाज़ थी. इस तरफ फोन के जाने कौन था. तब तक, जब तक मैं नहीं था! विपुल ने भी लगभग चार साल बाद ही फोन किया था. पहली कुछ लाइनों में तकल्लुफ़ था. हाल-चाल था. अभी वाला परिवार था, जो हमारा हिस्सा था. थोड़ी देर बाद फिर वो परिवार था, जिसका हम हिस्सा थे. बेतकल्लुफ़ी थी. अब इस तरफ मैं था… बबलू बोंगा! उस तरफ विपुल था, विप्पू! खूब … खूब … खूब बातें. स्कूल की बातें. उन जगहों की बातें जो स्कूल के रस्ते में पड़ती थीं. तिवारीजी का अहाता जिसकी बाउंड्री टूट गई थी. जिसे सालों उन्होंने रिपेयर नहीं कराया था. वही जो सालों हमारा शॉर्ट-कट था. उस दुकान का नाम कुछ नहीं था शायद, जहां से पन्द्रह पैसे का ड्रॉपर खरीदते थे हम. बद्री भईया की थी दुकान जहाँ ‘पैसे कल ले लेना’ कहकर हम भाग जाते थे. वो मुक्का जो गलियारे वाली दीवार में था. जहां से हाथ डालकर रज्जू की दुकान से लाल-काला चूरन लेते थे. वो ‘क़यामत से क़यामत तक’ के दिन जब हमने जाना कि दिव्या, वन्दना, श्वेता, अर्चना जी.के. की प्रश्नोत्तरी में हमारे दुश्मन दरअसल जीवन को अबीरी करने वाले नाम हैं. वो ‘नो सॉरी-नो थैंक्यू’ वाले दिन जिसमें कोचिंग के रस्ते में विप्रा को लव लेटर पकड़ा दिया था, वो भी विपुल के नाम से. विप्रा के गाल सुर्ख टमाटर से हो गए थे कि जैसे मुट्ठी भर गुलाल पोत दिया हो.
प्रस्ताव शानदार था विपुल का. तेईस साल बाद होली में हम सब इकट्ठा होने जा रहे थे. सारे दोस्त. आनंद अहमदाबाद में था. उसके माँ-बाप सबकुछ बेच-बाच कर लखनऊ शिफ्ट कर चुके थे. साल में एकाध बार ही वो लखनऊ जा पाता था. वो भी मेरी तरह ही ‘घर आना’ से ‘घर जाना’ तक का सफ़र तय कर चुका था. विपुल वहीं था, जौनपुर में. और चौथा…
– ‘यार रफीक़ कहाँ है मुलाक़ात होती है या…’ मैंने पूछ ही लिया
– ‘नहीं यार कहाँ मुलाक़ात… दिखा तो था एक बार चार-पांच साल पहले. मैं जहां गाड़ी वर्कशॉप में ले जाता हूँ, वहीं बगल वाली में काम करता है… उधर ही कहीं रहता है, उस पार बड़ी मस्जिद के पास’ विपुल की आवाज़ में कई सालों का दर्द उतर आया था. विपुल और रफीक़ की बहुत बनती थी. रफू कहते थे हम उसे प्यार से.
– ‘ये साले चेस भी डबल्स खेलते हैं’ हम चिढ़ाते उन्हें
– ‘और वो भी मिक्स डबल्स’ आनन्द अपनी मिचमिची आँखें दबाता हुआ कहता और हम ठठाकर हंस पड़ते. रफीक़ हमारे ठहाके में शामिल होता पर विपुल बुरा मान जाता.
घटनाएं तो बहुत बारीकी से नहीं याद पर हां उनके गहरे रंगीन इम्प्रेशंस याद हैं. गुलाबी-गुलाबी से दिन होने चाहिए थे, लेकिन हवाओं में कहीं कुछ टूटने का मटमैलापन फैल गया था. किसी नारे का नाद था, किसी फतवे की गूँज थी. किसी आस-पास की धर्म नगरी में कोई आयोजन हुआ था. इस शहर का इतिहास हालांकि धूसर बिलकुल नहीं था बल्कि हज़ारों चटख रंग थे पर उन दिनों एक धर्मस्थल का रंग हर शहर पर भारी हुआ था. उस आयोजन को लेकर विपुल और रफीक़ में बहस हो गई थी. तीखी बहस. आम तौर पर हम रफीक़ का साथ देते थे. पर उस दिन हमने विपुल का साथ देने का सोचा था. नहीं, सोचा नहीं कहूंगा. अगर सोचा होता तो शायद …
हम केमेस्ट्री लैब के पीछे वाली सीढ़ियों के पास थे. वो सीढ़ियाँ जो हमें ऊपर ले आती थीं. हमारे अलावा वहां कोई नहीं था. बहस बढ़ गई थी. गालियाँ, जो प्यार से देते थे, उनमें अचानक जाने कहाँ से कसैलापन आ गया था. सब बोल रहे थे. अब तो ये भी बताना मुश्किल है कि हम बोल क्या रहे थे. सब चीख रहे थे. कोई सुन नहीं रहा था. कि अचानक- चटाक!
रफीक़ ने एक चांटा विपुल को धर दिया था. इतना काफी था. तपाक से आनंद ने रफीक़ का कॉलर पकड़ लिया. फिर झटके से उसका एक हाथ. मैंने भी उसका एक हाथ पकड़ लिया. ‘साले तेरी तो …’ फिर हमने विपुल की ओर देखा. चांटा विपुल को पड़ा था, मारने का हक़ उसका था. बहुत कुछ हो जाता पर विपुल ने कुछ नहीं किया. वो लाल-लाल आँखों से रफीक़ को देखता भर रहा फिर चुपचाप सीढ़ियों पर जाकर बैठ गया. वही सीढियां जो नीचे ले जाती थीं. हमने भी रफीक़ को छोड़ दिया. शायद हमेशा के लिए. वो चला गया वहां से. हवाओं का मटमैलापन काला होता चला गया था. अयोध्या की वो टूटन बहुत कुछ तोड़ती चली गई थी.
हम नहीं जानते थे पैर हमारी बात नहीं सुनते. हम नहीं जानते थे हम किधर जा रहे हैं. आनंद और विपुल मेरे घर आए थे और एक दूसरे को जी भरकर रंग लगाकर, गले लगकर, सालों की कसर निकालकर हम निकल पड़े थे उन गुज़रे सालों की तरह ही. सड़कों पर कहीं-कहीं रंग बिखरे पड़े थे. दुकाने बंद थीं. बच्चे छतों से गुब्बारे फेंक रहे थे. कुछ भी तो नहीं बदला इस शहर का. हुंह! ये तो सब कहने की बातें हैं न. बहुत कुछ बदल गया था शहर का. भगेलू चाट वाले की दूकान नहीं थी. वहां एक बड़ी बिल्डिंग थी जिसमें कुछ दुकानें और एक एटीएम दिख रहा था. आयशर ट्रैक्टर के पीछे वाला मैदान जिसे हम गड़हिया मैदान कहते थे, जिसमें मिंयापुर बस्ती के बच्चे खेला करते थे, वहां कोई हाउसिंग कॉलोनी जैसी चीज़ लग रही थी. बच्चे जाने अब कहाँ खेलते होंगे … खेलते भी होंगे या नहीं … बच्चे, बच्चे ही रह गए होंगे या … एक नया पुल भी बन गया था जो इस पार को उस पार से जोड़ता था शायद. पर उस जैसे कई पुलों की ज़रूरत बढ़ गई दिखती थी.
हम तीन बेख़ौफ़ चले जा रहे थे. कोई टोली हमें घेरकर हमारे कपड़ों में रंग नहीं डाल रही थी. कोई हचककर गले में हाथ डाल सीने से नहीं चिपका रहा था कि उसका साथी चालाकी से सिर के ऊपर अबीर का पूरा पैकेट खाली कर दे. हम अजनबी थे. रंग कुछ इतने महंगे हो गए थे, या हम उन दिनों में नहीं थे जब होली में कोई अजनबी न होता था.
हम भटक रहे थे यहाँ-वहां. तेईस, पच्चीस, अट्ठाइस सालों में जाते-आते हमें लगा कि कहीं पहुँच कर ठिठक गए हैं पैर हमारे. कोई दरवाज़ा था ये. बन्द था. लगता था अभी खुला ही रहा होगा. थोड़ी देर पहले ही बन्द हुआ होगा क्योंकि सांकल हिल रही थी अब भी. हम नहीं जानते थे, हम वहां क्यों थे. होली के दिन. ये मुस्लिमों का मुहल्ला था. हम कुछ सोच नहीं रहे थे हमेशा की तरह. शायद हम ट्रांस में थे. आनंद ने हल्की सी थाप दी दरवाज़े पर और फिर सांकल भी बजा दी. हमने एक दूसरे को देखा और दरवाज़े के दोनों तरफ हो गए. कुछ ही सेकेण्ड बीते होंगे कि एक हल्की आवाज़ के साथ दरवाज़ा खुल गया. एक पतला सा आदमी नमूदार हुआ. बड़े-बड़े कानों वाला. हां रफ़ीक़ ही था! वो थोड़ी देर तक अवाक खड़ा रहा. सामने विपुल था. विपुल भी बिना हिले-डुले खड़ा रहा. फिर जाने क्या हुआ कि विपुल आगे बढ़ा और -चटाक!
सन्नाटे में इस चांटे की गूँज देर तक तैरती रही. शायद तेईस-पच्चीस सालों तक. रफ़ीक़ घुटनों पर बैठ गया था. वो हिचक रहा था ज़ोर-ज़ोर से. विपुल उसके ठीक सामने घुटनों के बल … वो रो नहीं रहा था. जाने किस ट्रांस में बार-बार ‘रफ़ू… रफ़ू’ बुदबुदाता जा रहा था. आवाज़ में भरपूर नमी थी उसकी. हम भी बैठ गए थे वहीं, उस दरवाज़े की देहरी पर.
हमारे हाथ सूख चुके थे, गालों पर सूख चुके रंग थे. सबकी आँख से जाने कैसे एक रेखा सी उमड़ती हुई, गालों से होती हुई ठुड्डी तक आ रही थी.
– ‘रो चुके हो तो होली खेलें’ मैंने मुस्कुराते हुए रफ़ीक़ के कन्धे पर थपकी दी.
– ‘ये दोनों तो खेल ही रहे हैं मिक्स डबल्स’ आनन्द ने कहा और हम चारों गाल सटाकर… . मालूम नहीं हम ज़ार-ज़ार हंस रहे थे या ठठाकर रो रहे थे. रफ़ीक़ के गालों पर चांटे की लाली थी. हमारे गालों से उसके गालों तक पछतावे के गाढ़े रंगों के निशान पहुंच चुके थे. हमारे गालों पर रफ़ीक़ के गालों से कसक का अबीर. तेईस सालों पर सदियों के शहर के इतिहास का पक्का गहरा रंग चढ़ता जा रहा था.
अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण).
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