रात में नींद अच्छी आयी. सुबह 7 बजे हमने अपना कंधार का टिकट लिया. बस बड़ी आरामदेह थी. छोटे-छोटे गांवों में जब हमारी बस रूकती तो प्यारे-प्यारे अफगानी बच्चे उबले अण्डे बेचने बस कके पास आ जाते. गांवों के इन छोटे-छोटे बाजारों में व्यापार तो कोई विशेष नहीं दिखता पर रौनक अवश्य रहती है क्योंकि आस-पास के युवक दिन बिताने के लिए शहर कके चायखानों में बैठकर गप्पें मारते और चरस पीते रहते हैं. यहां की आर्थिक व्यवस्था केवल अंगूर, सूखे फल एवं चरस की त्सकरी पर आधारित रहती है. हमने छोटे-छोटे अफगानी बच्चों से उबले अण्डे खरीद कर अपना नाश्ता किया.
उल्टे पांवों घर को रवानगी
कंधार जब हम पहुंचे तो लगभग 3 बजे का समय था. सबसे पहले हमने सोचा कि अपने पूर्व मित्र कंधारी जी के यहां रुका जाय, पर फिर एक भारतीय मूल के दुकानदार, जो कि कंधार में चाट का धंधा करते हैं, के पास पहुंचे और भारतीय चाट का आनन्द लिया. उनसे ज्ञात हुआ कि आजकल किशोर जी काबुल में हैं तथा सूखे फलों का धंधा कर रहे हैं. इस बार हमारे पास पर्याप्त पैसा था, अतः एक अच्छे से होटल में कमरा लेकर रहने लगे. होटल में सभी सुविधायें थी तथा होटल का मैनेजर भी बड़ा चुस्त एवं रोचक प्रकृति का व्यक्ति था. उसकी छाती में एक उड़ता हुआ चील गुदा हुआ था. वह हर बात से पहले ‘बास्टर्ड’ शब्द का प्रयोग करने का आदी था. उसकी चुस्ती और बौद्धिक स्तर दोनों ही प्रभावित करने वाले थे.
दिन में हम कंधार घूमने निकल पड़ते. कंधार एक छोटा सा शहर है. यहां कुछ हिन्दू लोग रहते हैं, जो अतीत में लेखे-जोखे का काम करने के लिए यहां के राजा द्वारा बुलवाये गये थे. यहां पर दो-तीन मन्दिर भी है. यहां हर भारतीय से हिन्दी फिल्मों के विषय में ही लोग बात करते हैं. एक दिन हहम चाय पीने एक रेस्ट्रा में गये. वैरा आकर कहने लगा कि साहब जहां आप बैठे हैं, वहीं ‘धर्मात्मा’ की शूटिंग के दौरान हेमामालिनी भी आकर बैठी थी. मैंने कहा इसी लिए शायद सीट अभी भी इतनी गर्म है. धर्मेन्द्र और हेमामालिनी के चाहने वाले बहुत हैं. जहां भी इनकी फिल्में लगती हैं, खूब भीड़ रहती. अफगानी लोग अपने आपको भारतीय संस्कृति से जुड़ा मानते हैं. इनका भारतीयों के प्रति असीम प्रेम स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है. मुझे खुशी हुई जब हमारी प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अफगानिस्तान के मामले में रूस को सहयोग देने से साफ इंकार कर दिया.
कुछ दिन हम कंधार में रहे. यहां हमने चरस का भी खूब आनन्द लिया. कंधार की चरस विश्व की अच्छी चरसों में मानी जाती है. चलती बसमें भी अगर आप इस का सेवन करें तो भी किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी. कंधार में चरस का उतना ही महत्व है जितना बनारस में भांग का. यही कारण है कि कई विदेशी हिप्पी यहां महीनों रुक जाते हैं. पर हमें चरस का इतना अधिक शौक नहीं था. अतः एक दिन सुबह-सुबह काबुल के लिए निकल पड़े. वैसे कंधार में रूकने को हमारी और इच्छा थी. शायद हम भी कुछ-कुछ हिप्पी हो चुके थे. कंधार से काबुल के मार्ग में ऐतिहासिक शहर गजनी पड़ता है. यहां पर लगभग आधा घण्टा बस रूकती है. दूर एक पहाड़ी टीले पर दुर्ग दिखाई दे रहा था, जो कि अतीत मेुं हुए आक्रमणों की बरबस याद दिला रहा था. मैं सोचने लगा तब के आदमी कैसे होंगे जो कि अपना घर, अपनी प्रेमिका सभी छोड़कर, घोड़े में बैठकर हजारों मील दूर यु़द्ध करने निकल पड़ते होंगे? क्या उन्हें कभी अपनी प्रेमिका तक की याद नहीं आती थी? हमारी बस में दो चुस्त एवं आधुनिक पश्चिमी लड़कियां बैठी थीं, जिनके दो बच्चे भी थे. एक बच्चा इतना प्यारा था कि बार-बार मेरी मित्रता करने की इच्छा होती थी. मैंने उसे कुछ किसमिस दिये. थोड़ी देर में वह मुझसे काफी घुलमिल गया. हमने जब बच्चों से उनके पिता का नाम पूछा तो उनकी 20-22 वर्षीय मातायें मुस्कुराने लगीं. समझने में देरी नहीं लगी कि इनका विवाह संस्था में विश्वास नहीं है. पूछने पर उन्होंने बताया कि अपने मित्रों के साथ क्रिसमस मनाने गोआ जा रहे है., वैसे म्यूनिख में डिजाइनर का काम करती हैं.
काबुल हम जब पहुंचे, लगभग अंधेरा हो चुका था. होटल के गाइड खड़े दिखाई दे रहे थे. अंग्रेजी में कह रहे थे, ‘‘श्रीमान, हमारे पास सुन्दर संगीत और सिगरेट है.’’ एक गाइड की अदा से आकर्षित होकर हम उसके साथ चल पड़े. विदेशी महिलायें भी हमारे ही होटल में आकर रुकीं. काबुल के साथ-सुथरे क्षेत्र में यह होटल था. इसमें 5-6 रूम तथा 10 बेड की एक डारमेटरी थी, ड्राइंग रूम तथा गर्मपानी का बाथरूम सबके लिए कामन था. इस होटल का सब काम दो अफगानी भाई देखते थे, जिनका स्वभाव सचमुच मृदुल था. काबुल में दिसम्बर माह में बड़ी ठंड़ पड़ती है, अतः रात को हम कुछ अतिरिक्त पैसा देकर बुखारी जलवाते थे. रात को गर्म पानी से नहाकर बड़ी अच्छी नींद आती थी.
काबुल शहर चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा एक बहुत सुन्दर शहर है. शहर में कोई भी बड़ी इमारत नहीं है. ट्रेफिक भी सड़कों में बहुत कम रहता है, अतः पुलिस व्यवस्था की कोई विशेष आवश्यकता नहीं रहती. यहां की मुद्रा को अफगानी कहते हैं. एक अफगानी लगभग 20 पैसे के बराबर होता है. यहां की सिटी बसों का टिकट मात्र एक अफगानी होता है, चाहे शहर के किसी कोने से कहीं जाना हो. दिन भर सिटी बसों में इधर-उधर घूमते रहते थे. हमारी उड़ान एक सप्ताह बाद की थी, अतः एक दिन श्री सनवाल (जो नैनीताल नया बाजार के रहने वाले हैं और ब्रिटिश दूतावास में इलैक्ट्रिक सुपरवाइजर है) से मिलने गये. उनकी श्रीमती जी ने कहा कि कल रात को खाना यहीं खाना, मैं कुछ पहाड़ी भोजन बनाउंगी. सनवाल जी ने सोचा शायद लड़के कुछ पीने का शौक रखते हों, अतः वे एक बोतल स्कॉच ले आये. दूसरे दिन जब हमारे पास बैठक बैठी, सनवाल साहब अपने बचपन के किस्से सुनाने लगे. समय का पता ही नहीं चल पाया. मैंने अनुभव किया कि भाभी जी बोर होने लगी है, अतः हम सब खाने की मेज पर जाकर बैठ गये. खाना तो कुछ भी नहीं खाया गया, साथ ही चलना भी मुश्किल होता जा रहा था. रात के बारह बजे सनवाल जी और भाभीजी एवं बच्चों से विदाई एक टैक्सी में बैठकर सीधे होटल पहुंचे.
उड़ान सुबह 8 बजे की थी. सामान भी पैक नहीं किया था, फिर भी सो गये. सुबह 5 बजे अपना-अपना सामान लपेटा. एयरपोर्ट जाकर ज्ञात हुआ कि अभी तक हमें ले जाने वाला जहाज काबुल नहीं पहुंचा है, क्योकि अमृतसर में कोहरा छाया हुआ है. अतः जाकर एयरपोर्ट के रेस्तरां में बैठ गये. मीनू देखा. सब कुछ महंगा दिखाई दे रहा था और जब लगभग खाली थी, अतः हॉट काफी और हेमबर्गर का आर्डर देकर, अफगानी संगीत सुनने लगे. मस्तिष्क दूर-दूर की सोच रहा था. कब घर पहुंचेंगे? अब भविष्य में क्या करना है आदि. दस माह बाद लौटने पर भी घूमने की इच्छा बरकरार थी क्योंकि एक बार उन्मुक्तता का स्वाद लग चुका था, और अब लौट कर वहीं जा रहे थे, जहां से बोर होकर निकले थे. कभी-कभी विचार आता कि अब विवाह कर लेना चाहिए, शायद जीवन में कुछ स्थिरता आये. पर प्रश्न था कि धनार्जन का क्या होगा, जीवन मात्र सपना नहीं हकीकत भी है. सच्चाई कड़वी होती है और सपना अगर अच्छा हो तो रोचक लगता है. नौकरी करने की इच्छा हम तीनों की नहीं थी, पर व्यवसाय क्या किया जाये? इन्हीं विचारों में डूबे हुए हम तीनों काफी पी रहे थे. मैं सोचने लगा कि यात्रा करना तो एक अनुभव है जीवन में. और भी तो बहुत से अनुभव है क्यों ने उनको किया जाय. अपने आप पर अभी विश्वास था. सभी यात्री बड़े परेशान थे. लग रहा था कि परेशान रहना इनकी पुरानी आदत है, वरना एयरपोर्ट का वातावरण इतना रोचक होता है कि एक दो दिन यूं ही कट जाये. भारतीय यात्रियों से हमारी अधिक नहीं पटती थी, कारण कि इनका बात करने का तरीका और दायरा बहुत सीमित होता है. अतः हम पौलेण्ड के सरकारी अफसर से बात करने लगे जो कि अगली उड़ान से तेहरान जा रहा था. उससे हमें पोलैंड के विषय में काफी सूचना मिली. इसी बीच एयरपोर्ट के माइक्रोफोन से सूचना मिली कि अमृतसर को जाने वाले यात्री कृप्या अपना ब्रेकफास्ट करने के लिए पहुंचे. ब्रेकफास्ट में काफी और केक दिये गये, तब जाकर कुछ भारतीय चेहरों पर मुस्कान दिखाई दी.
अब यात्रा आर्थिक सुरक्षा के लिए है
उस रोज सुबह से ही काबुल शहर पर बादल छाये हुए थे. हवाओं में भी कुछ विशेष ठण्ड थी और बर्फ गिरने के संकेत दिखाई दे रहे थे. हम तीनों काबुल एयरपोर्ट पर उतरते हुए वायुयानों को देखने में व्यस्त थे. एक वायुयान से उतरते हुए यात्री दिखाई दे रहे थे. हवा के झोंकों से बालों की लटें बार-बार उनके चेहरों पर बिखर जातीं, जिन्हें वह अपनी उंगलियों से हटाने का असफल प्रयास करते. महिला यात्री अधिक चुस्त और बेफिक्र दिखाई दे रही थीं, जैसे हवाओं के झोकोसे उनका रोज का नाता हो. इसी बीच घोषणा हुई कि अमृतसर को जाने वाला एरियाना एयर लाइन्स का जहाज तैयार है. थोड़ी देर और आकर्षक गतिविधियों को देखकर हम अपनी अपनी सीटों पर जाकर बैठ गये. सबसे पहले ध्यान वायुयान की परिचारिकाओं पर गया. उन्हें आशा के अनुरूप आकर्षक न पाकर दुःख हुआ. यह गम भी वायुयान में उपलब्ध रोचक पत्र-पत्रिकाओं को पढ़कर दूर हो गया. टेक ऑफ़ की घोषणा के साथ हमारा वायुयान काबुल एयरपोर्ट की हवाई पट्टी पर दौड़ने लगा. जैसे ही वायुयान आकाश में पहुंचा हमने अपनी-अपनी पेटी खोल दी, क्योंकि काबुल शहर के अन्तिम दर्शन करने की इच्छा थी.बार-बार यही लगता कि इस जनम में तो शायद ही अब कभी हम यहां आ पायेंगे. यही कारण था कि हम पागलों की तरह वायुयान की खिड़की से बाहर झांकते रहे. पिछली अमृतसर से काबुल की मार्च माह की यात्रा में हिन्द-कुश पर्वत के जिन मैदानी इलाकों में सिवाय बर्फ के कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था, उन्हीं क्षेत्रों में अभी तक बर्फ नहीं पड़ी थी. बंजर गांव दिखाई दे रहे थे. दूर-दूर तक वृक्षों का नामोनिशान नहीं था.
दानवों की दूर ऊॅचाई लिए, इन दैत्य रूप पर्वतों को देखते-देखते पाकिस्तान का वायु क्षेत्र आ गया. पाकिस्तान के भी काफी बड़े क्षेत्र में दुर्गम पहाड़ियां एवं दर्रे हैं. ऐतिहासिक खैबर दर्रा, जो काबुल और पेशावर को जोड़ता है तथा सदियों से मध्य एशिया से भारत में होने वाले व्यापार एवं आक्रमणों का मुख्य मार्ग रहा, इसी दुर्गम क्षेत्र में स्थित है. कहते हैं कि आज तो इस मार्ग में आधुनिक सडकें बन चुकी हैं. पर पाकिस्तान का वीसा न मिल पाने के कारण हमें थल मार्ग से सफर करने का अवसर नहीं मिल पाया. धीरे-धीरे हिन्दकुश पर्वत श्रृंखलायें समाप्त होने लगीं और कुछ ही समय बाद हम लाहौर के ऊपर उड़ान भर रहे थे. नीचे सैनिक छावनियों के अलावा हम कुछ भी नहीं दे पा रहे थे. लाहौर का शहरी क्षेत्र नहीं दिखाई दिया. लाहौर के विषय में मैने स्वर्गीय श्री बलराज साहनी की पुस्तक ‘मेरी पाकिस्तान यात्रा’ में काफी कुछ पढ़ा था, इसी कारण लाहौर के शहरी क्षेत्र की एक झलक देखने की तीव्र इच्छा थी. कुछ ही देर में इच्छोगिल नहर दिखाई देने लगी और हम भारतीय क्षेत्र में प्रविष्ट हो गये. सामने ही अमृतसर के आस पास का ग्रामीण क्षेत्र दिखाई दे रहा था. कहीं-कहीं सन् 1671 के युद्ध में गिरे बमों के निशान अभी भी स्पष्ट दिखाई दे रहे थे.
काबुल-अमृतसर के बीच की हवाई यात्रा काफी रोचक होती है. जिस दुर्गम मार्ग को बस द्वारा तय करने में लगभग दो दिन का समय लग जाता है, वहीं दूसरी वायुयान द्वारा एक या सवा घण्टे में तय हो जाती है. ध्यान बार-बार भारत में हुए आक्रमणों की कल्पना में खो जाता है. यही सोचते-सोचते पता ही नहीं चल पाया कि हमारा वायुयान कब अमृतसर एयरपोर्ट पर उतर गया. काबुल की थरथराती ठंड के सामने अमृतसर में अच्छी खासी गर्मी लग रही थी. कस्टम अधिकारियों ने हमारे चन्द सिगरेट के पैकेटों और दो-चार स्कैच पेनों को भी नहीं छोड़ा. खैर मेहरबानों की मेहरबानी रही कि मामला निपट गया और हम अमृतसर शहर के लिए चल पड़े. अपना देश, अपनी संस्कृति सब कुछ बड़ा अच्छा लग रहा था. बड़े निश्चिन्त थे कि अब कोई पुलिस वाला पासपोर्ट दिखाने को नहीं कहेगा.
रात की ट्रेन से दिल्ली जाना था, अतः हमारे पास कुछ समय बचा था. अमृतसर के दो प्रसिद्ध स्थानों से ही हम परिचित थे, पहला स्वर्ण मन्दिर और दूसरा जलियावाला बाग, अतः सबसे पहले स्वर्ण मन्दिर में जाकर हमने ईश्वर को प्रसाद चढ़ाया और अपनी सकुशल वापसी के लिए धन्यवाद दिया. इसके बाद हम जलियांवाला बाग देखने गये. शहीदों की याद में यहां हमने दो मिनट का मौन रखा. इन दोनों स्थानों को देखकर हृदय में शान्ति मिली. रात को रेल पकड़ने स्टेशन पहुंचे. दो-दो रुपये में पेट भर भोजन खाकर, भारतीय रुपये की क्रय शक्ति पर आश्चर्य हुआ. विदेशों की तरह मुद्रा प्रसार हमारे देश में नहीं है. विदेशों में तो हमारे पैसों का धुआं हो जाता था जबकि हम हमेशा मितव्ययता से ही रहते थे.
सुबह चार बजे दिल्ली पहुंचे. स्टेशन पर काफी चहल-पहल दिखाई दे रही थीं. विदेशों के वीरान प्लेटफार्मों की याद आने लगी, जहां हर समय खामोशी ही रहती है. इसका कारण या तो विदेशों में रेलवे का विकास ही हमारे देश के बराबर नहीं हो पाया है या फिर जनसंख्या कम होना तथा यातायात के अन्य साधनों का अधिक सुविधाजनक होना है. दिल्ली शहर की चकाचैंध कभी न्यूयार्क से कम नहीं लगा करती थी, पर आज वह पुराना सा आनन्द दिल्ली में नहीं आ पा रहा था. समय बिताना मुश्किल हो गया था. अपने मित्र शाहजी, जो कि हिमाचल इम्पोरियम में मैनेजर हैं, से मिलकर सांयकाल की ट्रेन से वृन्दावन के लिए चल पड़े. ट्रेन में पैर रखने तक की जगह नहीं थी. धक्का-मुक्का खाकर अन्त में एक डिब्बे में बैठ ही गये. समझ में आ याग कि भारत की महानगरियों में मनुष्य का जीवन कितना संघर्षमय होता जा रहा है.
रात को लगभग 6 बजे हम मथुरा से बस द्वारा राधा-कृष्ण की नगरी वृन्दावन पहुंचे. स्वर्गीय नीम करोली महाराज के आश्रम में हमें शरण मिली. आश्रम में स्वर्गीय महाराज के भारतीय एवं विदेशी भक्तों की भीड़ थी. कुछ दिन आश्रम के शान्त एवं पवित्र वातावरण में रहकर, मैं और राजा नैनीताल को चल पड़े. योगेश कुछ समय आश्रम में ही व्यतीत करना चाहता था.
दिसम्बर के अन्तिम सप्ताह में हम अपनी दस माह की यात्रा के बाद वापस नैनीताल पहुंचे. जाड़ों में नैनीताल अत्यन्त शान्त हो जाता है. जीवन भी तल्लीताल बाजार से मल्लीताल बाजार के बीच सीमित हो जाता है. एक दो मित्र न हों तो जीवन कालापानी की सजा से कम नहीं लगता. नैनीताल की इस घोर उदासी में पहुंचते ही भय लगने लगा. बार-बार यही लगता कि लौट कर गलती कर दी. मैं और राजा सीधे अपने-अपने घर पहुंचे. स्वाभाविक ही था कि हमारे लौट आने पर हर कोई प्रसन्न होता.
लम्बी यात्रा के बाद कितना इन्तजार था उस क्षण का जबकि घर वालों से मुलाकात होनी थी, पर मेरे सहयात्री राजा को यह खुशी अनुभव न हो सकी. नैनीताल पहुंचते ही उसे अपनी माता जी की दुःखद मृत्यु के समाचार ने झकझोर दिया. हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि इस यात्रा का हमारे मित्र को इतना बड़ा मूल्य चुकाना पड़ेगा. इस समाचार से हम सबका हृदय असीम दुख से भर गया.
समय के साथ धीरे-धीरे हम फिर नैनीताल के माहौल में रम गये. बंजारों की तरह कभी हमने यात्रा भी की थी, आज एक सपना लगता है. इस यात्रा की कल्पना हमने अपनी नेपाल यात्रा के दौरान की थी, जहां हम पश्चिमी युवकों के सम्पर्क में आये थे. हमारी यह पूर्ण यात्रा मात्र एक साइकेडेलिक अनुभव ही थी. इस अनुभव में हमने क्या पाया, क्या खोया, उस विषय में सोचना अब मात्र मूर्खता से कम नहीं. अनुभव, अनुभव ही होते हैं. इन को परिभाषित नहीं किया जा सकता. हर काम की एक विशेष उम्र होती है और वह चीज उसी उम्र में अच्छी भी लगती है. अब हमारे लिए समय नहीं कि फिर पुराने तरीके से यात्रा में निकल जायें. सबसे बड़ी बात यह भी है कि एक उम्र कके बाद आर्थिक एवं अन्य स्तरों पर मनुष्य को मजबूत हो जाना आवश्यक होता है और इसके लिए कुछ वर्षों तक स्थिर हो कर प्रयत्न करने होते हैं. आर्थिक मजबूती लक्ष्य तक पहुंचने का एक साधन है. हमारे देश में पश्चिम के सम्पन्न राष्ट्रों की तरह राष्ट्रीय सुरक्षा योजना तो है नहीं, अतः आर्थिक मजबूती के लिए कुछ न कुछ करना पड़ता है.
यही सब सोचकर हम तीनों यात्रियों की जिन्दगी एक मोड़ पर आकर ठहर सी गयी है और बिखरा हुआ वक्त कुछ समय के लिए सिमट सा गया है.
(समाप्त)
पिछली क़िस्त का लिंक: नैनीताल के तीन नौजवानों की फाकामस्त विश्वयात्रा – 10
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