देवेन मेवाड़ी

हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर जानिये भारत में कृषि पत्रकारिता का इतिहास

अपनी बात मैं अपने उन पुरखों से शुरू करना चाहता हूं, जो आदि मानव कहलाते थे, जंगलों और गुफाओं में रहते थे. खेती और पशुपालन की शुरूआत उन्होंने ने ही की थी. उन्हीं में से शायद कभी, हमारे किसी पुरखे ने जंगल में किसी घास के बीज चखे. कुछ बीज लेकर गुफा में लौटा. उसकी पत्नी ने कुछ बीज चखे, कुछ गुफा के बाहर छिटक दिए. वर्षा हुई. वे बीज अंकुरित हुए और वहीं घास लहलहा उठी. कहते हैं, शायद इसी तरह कृषि की शुरूआत हो गई. कुछ पुरखे वन्य जीवों के शावक पकड़ कर लाए, उन्हें पाला-पोषा और इस तरह पशुपालन की शुरूआत हो गई. नदी घाटियां खेती के लिए मुफीद जगह थीं, इसलिए उन्होंने नदी घाटियों में बसना शुरू कर दिया. फिर परिवार बने, गांव और बस्तियां बनीं और वे फैल कर नगर बन गए. जंगल काट कर खेती का विस्तार किया जाने लगा. धन-धान्य बढ़ा और विकास का पहिया लगातार आगे बढ़ता चला गया. 
(History of Agricultural Journalism in India)

लगभग 1500 से 500 वर्ष ईसा पूर्व सिंधु नदी के तट पर कृषि पर आधारित वैदिक सभ्यता पनपी. सिंधु नदी की उर्वरा घाटी में शस्य-श्यामला फसलें लहलहा उठीं. उस काल की ऋग्वेद संहिता में उत्तम खेती के सूत्र लिखे गए कि: ‘युनक्त सीरा वि युगा तनुध्वं कृते योनौ वपतेह बीजम्.’

अर्थात्, ”हलों को जोतो, उन्हें बैलों के कंधों पर जूओं पर बांध दो. धरती की फलवती कोख तैयार है, उसमें बीज बो दो.“ इन सूत्रों से तब कृषकों को कृषि की जानकारी मिलने लगी कि सफल खेती कैसे की जाए. गोधूम (गेहूं) की सुल्लि, निःसुल्लि और मधुलिका किस्में उसी दौर में उगाई जा रही थीं.

वेदोत्तर काल में खेती-किसानी आगे बढ़ी और हमारे तत्कालीन पुरखों के अनुभवों से खेती का ज्ञान बढ़ता गया. 400 ईस्वी पूर्व से 200 वीं सदी तक के बीच महाभारत काल में खेती में वर्षा के महत्व का भरपूर ज्ञान हो चुका था. ‘भगवदगीता’ के माध्यम से संदेश मिला कि: ‘अन्नादि भवति भूतानि, पर्जन्याद अन्न संभवः.’ अर्थात् अन्न से जीवों का पोषण होता है और अन्न वर्षा से पैदा होता है.

तब कृषि ही मुख्य व्यवसाय था. पाणिनी, मेगस्थनीज और कौटिल्य ने उस काल की कृषि का विशद वर्णन किया है. बाद में पुराणों में भी भारतीय कृषि का उल्लेख किया गया. 1300 ईस्वी के आसपास महर्षि पाराशर ने ‘कृषि संग्रह’ ग्रंथ की रचना की थी जिसमें उन्होंने उत्तम खेती के हर पहलू के बारे में लिखा.

वह प्राचीनकाल था. हमारे देश में आधुनिक कृषि के विकास का स्वप्न सन् 1905 में तब देखा गया, जब पूसा, बिहार में इम्पीरियल एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टिट्यूट की स्थापना की गई. सन् 1934 में वहां भूकंप से हुई भारी बरबादी के कारण सन् 1935 में उस संस्थान को नई दिल्ली में पूसा इंस्टीट्यूट के नाम से स्थापित कर दिया गया. यहां फसलों की नई किस्मों का विकास शुरू हुआ और आजादी के बाद सन् 1947 में यह ‘भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान’ कहलाया. देश भर में कृषि अनुसंधान को नई दिशा देने के लिए ‘भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद्’ यानी आइ सी ए आर का गठन हुआ. कृषि, पशुपालन और पशु-चिकित्सा के क्षेत्र में गहन अनुसंधान के लिए कृषि कालेजों, कृषि संस्थानों और कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई. अमेरिका के लैंड ग्रांट पैटर्न पर सन् 1960 में पंतनगर में देश के प्रथम कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना की गई.

यह संक्षिप्त भूमिका इसलिए, क्योंकि कृषि अनुसंधान और कृषि पत्रकारिता में मैंने जो भी अनुभव अर्जित किया, उसकी दीक्षा मैंने इन्हीं दो संस्थाओं से प्राप्त की. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में सन् 1966 से 1969 तक तीन वर्ष मक्का की फसल के प्रजनन पर अनुसंधान का अनुभव लेने के बाद मैंने सितंबर 1969 से मार्च 1982 तक 13 वर्षों की लंबी अवधि में इसी पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में कृषि पत्रकारिता के प्रयोग और परीक्षण किए.

लेकिन, उन प्रयोगों की बारीकियों पर बात करने से पहले, आइए भारतीय कृषि के उस प्रारंभिक दौर पर नजर डाल लें जिसमें कृषि पत्रकारिता के बीज अंकुरित हुए. इतिहास बताता है कि आज से 150 वर्ष पूर्व सन् 1866 में अलीगढ़ में सर सैय्यद अहमद के नेतृत्व में 30 मार्च 1866 को ‘अलीगढ़ इंस्टिट्यूट गज़ट’ प्रकाशित किया गया जिसमें कृषि की खबरें प्रकाशित होने लगीं. सन् 1900 में वाराणसी से ‘खेत खेती खेतिहर’ का प्रकाशन शुरू हुआ और बाद में आगरा से सन् 1914 में ‘कृषि सुधार’ और 1918 में ‘कृषि’ नामक पत्रिकाएं प्रकाशित हुईं.
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बीसवीं शताब्दी के पहले दो दशकों में यानी सन् 1900 से 1920 तक कृषि की अनेक पत्रिकाएं प्रकाशित हुईं. उसके बाद भी खेती-किसानी पर आधारित हलधर, किसान, गोपालन, देहाती दुनिया और ग्राम सुधार जैसी पत्रिकाएं कृषि और पशुपालन के ज्ञान की जागृति फैलाती रहीं.

आज़ादी मिलने के बाद भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् ने कृषि के ज्ञान के प्रसार के लिए सन् 1948 में देवेंद्र सत्यार्थी के संपादन में हिंदी में ‘खेती’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, हालांकि अंग्रेजी में ‘इंडियन फार्मिंग’ मासिक का प्रकाशन आठ वर्ष पूर्व सन् 1940 में ही शुरू हो चुका था. पशुपालन के ज्ञान की अनिवार्यता को अनुभव करते हुए परिषद् ने सन् 1963 में ‘पशुपालन’ नामक त्रैमासिक पत्रिका का प्रकाशन भी शुरू किया लेकिन दो वर्ष बाद सन् 1965 में उसे ‘खेती’ में ही शामिल कर लिया गया. आजादी से एक वर्ष पहले सन् 1946 में मध्य प्रदेश से माणिक चंद बोंद्रिया ने ‘कृषक जगत’ साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया. इस दीर्घजीवी साप्ताहिक ने कृषि पत्रकारिता में अहम भूमिका निभाई. सन् 1948 में मध्यप्रदेश सरकार ने नागपुर से ‘किसानी समाचार’ पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया.

पांचवे दशक की शुरूआत में उत्तर प्रदेश के कृषि विभाग ने भी ‘कृषि एवं पशुपालन’ मासिक (1950) का प्रकाशन शुरू किया. यह उत्तर प्रदेश की कृषि और पशुपालन की प्रमुख पत्रिका बन गई. दो वर्ष बाद सन् 1952 में भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के तहत कृषि विस्तार निदेशालय के फार्म सूचना एकक से हिंदी में ‘उन्नत कृषि’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ. अंग्रेजी में वहां से ‘इंटेंसिव एग्रीकल्चर’ मासिक पत्रिका प्रकाशित हुई. सन् 1954 में श्री ज्ञानेंद्र जैन ने दिल्ली से ‘सेवाग्राम साप्ताहिक’ का प्रकाशन शुरू किया जिसने जल्दी ही अपनी विशेष पहचान बना ली. 

जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं, सन् साठ का दशक वैज्ञानिक कृषि की जागृति का दशक था. सुदूर मैक्सिको में गेहूं के जापान से लाए गए बौने गेहूं ‘नोरिन-10’ नामक जीनों ने गेहूं क्रांति की दस्तक दे दी थी. मैक्सिको में भी सन् 1940 के दशक में भारत की ही तरह गेहूं का उत्पादन बहुत कम था और इसका आयात किया जा रहा था. लेकिन, गेहूं की नई बौनी किस्मों ने वहां गेहूं के उत्पादन में क्रांति कर दी और सन् 1965 से वह गेहूं का निर्यात करने लगा. इस गेहूं क्रांति में डाॅ. नार्मन बोरलाग और उनके समर्पित साथियों का योगदान था. सन् 1960 के दशक में गेहूं की मैक्सिकी बौनी किस्मों का बीज मंगा कर भारत में भी गेहूं का उत्पादन बढ़ाने के प्रयास शुरू किए गए. इसमें प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक डा. एम. एस. स्वामीनाथन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. गेहूं क्रांति की यह एक अलग सफलता कथा है. जल्दी ही भारत में भी गेहूं की बौनी किस्में लहलहाने लगीं. ‘लर्मा रोहो’ और ‘सोनोरा-64’ जैसी अधिक उपज देने वाली बौनी किस्मों के बाद गेहूं की भारतीय जातियों के साथ बौने गेहूं के संकरण से तैयार ‘कल्याण-सोना’ और ‘सोनालिका’ जैसी उन्नत बौनी किस्में खेतों में छा गईं. उत्पादन बढ़ाने के लिए किसानों तक गेहूं की खेती के नए तौर-तरीकों, उर्वरकों और कीटनाशकों की जानकारी कारगर तरीके से पहुंचाने की जरूरत महसूस हुई.
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सन् 1960 के दशक की एक और ब़ड़ी घटना है जिसने विश्व भर के कृषि वैज्ञानिकों और कृषि पत्रकारों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया. यह घटना थी अमेरिका की एक प्रमुख पत्रिका ‘न्यूयार्कर’ मंें 16 जून 1962 से प्रसिद्ध विज्ञान लेखिका रासेल कार्सन की लेखमाला ‘द साइलेंट स्प्रिंग’ का धारावाहिक प्रकाशन. यह कीटनाशकों के प्रयोग से संबंधित लेखमाला थी. दो माह बाद ही वह पुस्तक छप कर बाजार में आ गई और बेस्ट सेलर बन गई. पुस्तक में कीटनाशकों के कुप्रभाव और उसके परिणामों का चित्रण किया गया था. यह वह कठिन समय था जब एक ओर विश्व भर में कृषि वैज्ञानिकों और कृषि पत्रकारों द्वारा किसानों से नई उन्नत किस्मों के बीजों, रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशकों के प्रयोग से अनाज का उत्पादन बढ़ाने की अपील की जा रही थी, वहीं दूसरी ओर वैज्ञानिकों और पत्रकारों का एक वर्ग रसायनों और कीटनाशकों के खतरों से आगाह कर रहा था. कृषि पत्रकारों के लिए वह सचमुच बहुत कठिन समय था. फिर भी उन्होंने नई वैज्ञानिक खेती में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के विवकपूर्ण प्रयोग की वकालत की ताकि खाद्यान्न उत्पादन बढ़ सके.

यही वह समय था जब पंतनगर स्थित देश के इस प्रथम कृषि विश्वविद्यालय ने किसानों के लिए कृषि पत्रिकाओं के प्रकाशन का निर्णय लिया. जनवरी 1968 में अंग्रेजी मासिक ‘इंडियन फार्मर्स डाइजेस्ट’ का प्रकाशन शुरू हो गया. तभी संकल्प लिया गया कि जल्दी से जल्दी हिंदी में भी पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जाए. वह सपना साकार हुआ. नौ माह बाद गांधी जन्म शताब्दी के शुभ अवसर पर अक्टूबर 1969 में वरिष्ठ विज्ञान लेखक श्री रमेश दत्त शर्मा के संपादन में ‘किसान भारती’ मासिक पत्रिका का जन्म हुआ जिसमें तत्कालीन कुलपति डाॅ. ध्यानपाल सिंह ने लिखा था, “अंग्रेजी भाषा से हम किसानों तक नहीं पहुंच सकते. यह ऐसे समय में प्रकाशित हो रही है जबकि भारत में कृषि क्रांति का श्रीगणेश हुआ है. ‘किसान भारती’ आधुनिक कृषि की आवाज भारत के हर गांव में किसानों के खेतों और खलिहानों से लेकर उनके घरों तक पहुंचाएगी.” उन्होंने यह भी लिखा कि कृषि कला नहीं विज्ञान है.

‘किसान भारती’ के लिए प्रबंध संपादक श्री हरिदत्त वेदालंकार ने ‘तैत्तिरीय उपनिषद्’ से यह आदर्श वाक्य चुना: ‘अन्नं बहुकुर्वीत तद्व्रतम’, यानी अन्न को प्रचुर मात्रा में उत्पन्न करें, यह हमारा संकल्प होना चाहिए. तैत्तिरीय उपनिषद् में अन्न की महिमा में ये शब्द महर्षि भृगु ने कहे हैं.

आदर्श वाक्य के साथ ‘किसान भारती’ में प्रतीक चिह्न के रूप में नदी की देवी की प्रतिमा का एक चित्र भी दिया गया. यह प्रतिमा दूसरी शताब्दी ईस्वी के कुषाण काल की है जो भारत कला भवन, वाराणसी में सुरक्षित है. प्रतिमा के एक हाथ में जलपात्र है और दूसरे में अन्न राशि. इस तरह नदी की देवी की यह प्रतिमा भी जल के प्रयोग से अन्न के उत्पादन और समृद्धि का आश्वासन देती है.
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एक वर्ष बाद संपादक रमेश दत्त शर्मा के विश्वविद्यालय से चले जाने के बाद इसका संपादन कुछ समय तक मैं और मेरा एक साथी देखते रहे. उसके बाद इस पत्रिका के संपादन की पूरी जिम्मेदारी मुझे दे दी गई. मैं 13 वर्षों तक ‘किसान भारती’ के संपादन से जुड़ा रहा. ‘किसान भारती’ में प्रथम अंक से ही यह निश्चय किया गया कि इसमें छपने वाले लेखों की भाषा सरल और सहज हो ताकि किसान उस भाषा को समझ सकें और उस जानकारी का सीधा लाभ उठा सकें. रचनाओं में केवल आंकड़े और आवश्यकता से अधिक वैज्ञानिक जानकारी डाल कर उन्हें बोझिल और अपठनीय न बनाया जाए. जानकारी ऐसी जटिल भाषा में भी न दी जाए कि किसान उसे समझ ही न सकें. लेखों को परंपरागत, उपदेशात्मक अंदाज में देने के बजाए रोचक शैली में दिया जाए ताकि किसान उन्हें पढ़ने में रूचि लें. इसलिए वाक्य छोटे और सरल रखे जाएं. इस सबके साथ-साथ यह भी ध्यान रखा जाए कि पत्रिका में किसान और किसान परिवार से जुड़े हर संभव विषय पर लेख दिए जाएं ताकि पत्रिका में विषयों की विविधता बनी रहे और ‘किसान भारती’ पूरे किसान परिवार की पत्रिका बन सके. 

पत्रिका को रूचिकर और पठनीय बनाने के लिए उसमें नियमित स्तंभ भी दिए जाएं. विषय को समझाने के लिए चित्रों और फोटोग्राफों का भी हर संभव उपयोग किया जाए. इन सब बातों के साथ ही इस बात का भी ध्यान रखा जाए कि पत्रिका पढ़ने वाले किसान को स्वयं कृषि और पशुपालन का दीर्घ अनुभव और गहन, व्यावहारिक ज्ञान है. वह नौसिखिया किसान नहीं है. इसलिए उसे जो भी जानकारी दी जाए वह नई और पठनीय वैज्ञानिक जानकारी हो जिसे अपना कर वह वैज्ञानिक तौर-तरीकों से खेती कर सके और उपज को बढ़ा सके. 
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‘किसान भारती’ के प्रकाशन में इन बातों का ध्यान रखा गया. यही कारण है कि वह जल्दी ही किसानों की लोकप्रिय पत्रिका बन गई और किसान उससे जुड़ते चले गए. नवंबर 1977 में दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित ‘एग्रीएक्सपो’ 77’ मेले  के अवसर पर आयोजित अखिल भारतीय कृषि प्रकाशनों की राष्ट्रीय प्रदर्शनी में ‘किसान भारती’ को हिंदी की सर्वश्रेष्ठ कृषि पत्रिका का प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया और इस आशय का प्रमाणपत्र दिया गया. 

विविधता की बानगी ‘किसान भारती’ को अधिक पठनीय और उपयोगी बनाने के लिए उसमें विविधता लाई गई. अनेक विषयों पर लेख प्रकाशित करने के साथ-साथ कई नए स्तंभ शुरू किए गए. शीर्षकों को आकर्षक और भाषा को सरल-सहज बनाया गया. जैसे-   

विषयः कृषि, पशुपालन मुर्गीपालन, बकरीपालन, सूकरपालन, मछलीपालन, मौनपालन, पशु-चिकित्सा, गृह विज्ञान आदि.

स्तंभः कुलपति की कलम से, संपादकीय, कृषिवाणी, प्रश्न पिटारी, अंगना फूली कचनार, खेतों में इस मास, खेतों में अगले मास, ज्योनार, भेंटवात्र्ता, प्रगतिशील किसान, पशुपालन, आपने लिखा है, आदि.
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शीर्षक

हरे सोने के लुटेरे
धरती मइया बांझ न होइहैं
पादप- रोग विज्ञानी की डायरी
आपके खेत में नाइट्रोजन का कारखाना
धरती परती क्यों रहे?
पियराई पत्तियों का भेद
क्यों बाली काली पड़ी, क्यों पत्ती पियराई
हाट में सोयाबीन के ठाठ
सवालों के घेरे में: अनाजों की रानी मक्का 

भाषाः जटिल और अनुवाद की भाषा में प्राप्त होने वाले लेखों का सरल और रोचक भाषा में रूपांतर. जैसे- मूलः ‘प्रखंड से मृदा का प्रतिरूप एकत्र कर मृदा परीक्षण प्रयोगशाला को प्रेषित कर दें.’

रूपांतरः मुट्ठी भर मिट्टी उठाइए. हथेली पर फैलाइए. इसे देख कर क्या आप उसके गुणों के बारे में बता सकते हैं? नहीं साहब, बाहर से देख कर तो आदमी तक के गुणों का पता नहीं लगता, फिर मिट्टी की तो बिसात ही क्या है? लेकिन, ये वैज्ञानिक कहते हैं, कि मिट्टी में कई गुण होते हैं…’

किसानों की अपनी भाषा में छपने वाली ‘किसान भारती’ से किसान जुड़़ते गए और समय-समय पर अपने सुझाव भेजने लगे. उन्हें ‘आपके सुझाव’ तथा ‘आपने लिखा है स्तंभ’ में प्रकाशित करके संपादक की ओर से उनके उत्तर दिए जाते थे. इनमें फैजाबाद के बृजभान सिंह, इंद्रबहादुर पांडेय, रामपुर के इजहारुल हसन, काशीपुर के जोगेंद्रसिंह और मेरठ के महिपाल सिंह जैसे किसान भाई शामिल थे. वे सभी कृषक चर्चा मंडलों से जुड़े हुए थे जिनमें ‘किसान भारती’ के हर अंक पर किसान भाई चर्चा करते और सुझाव भेजते थे.
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विश्वविद्यालय में रबी और खरीफ की फसलों पर आयोजित किसान मेलों में किसान आते. उनमें से कई किसान ‘किसान भारती’ के संपादक से मिल कर भी अपने सुझाव देते. कहने का तात्पर्य यह है कि तब समय पर पत्रिका छाप देना ही एक मात्र उद्देश्य नहीं था बल्कि पत्रिका के माध्यम से किसानों के साथ सीधा संवाद करना भी इसका लक्ष्य था. इसी कारण ‘किसान भारती’ किसानों के साथ आत्मीय रूप से जुड़ सकी.

‘किसान भारती’ से जुड़ी यादगार घटनाएं कई रही होंगी लेकिन अपने संपादन काल की दो घटनाएं मेरे लिए विशेष रूप से यादगार बन गई हैं. इनमें से एक घटना इंद्रासन सिंह नामक किसान भाई से जुड़ी है. एक बार किसान मेले में वे मुझसे मिलने आए. मैं उनका नाम सुन कर चैंका और मैंने पूछा, “यह तो एक लोकप्रिय धान का नाम है?” वे बोले, “मैं वही हूं. किसानों ने मेरे नाम पर ही उसका नाम रख दिया है. मैंने धान की उस किस्म को अपने खेतों में तैयार किया है.” मैंने उनका इंटरव्यू ‘किसान भारती’ के अप्रैल 1981 अंक में छापा था. वर्षों बाद पता लगा कि नई किस्म के विकास के लिए उन्हें नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन की संस्तुति पर सन् 2007 में महामहिम राष्ट्रपति डा. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम के कर-कमलों से सम्मानित किया गया. उनके प्रशस्ति पत्र में यह उल्लेख किया गया कि, “उन्हें सार्वजनिक पहचान तब मिली, जब पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय की प्रसिद्ध पत्रिका ‘किसान भारती’ ने उनके नवाचार पर एक लेख प्रकाशित किया.” यह ‘किसान भारती’ के लिए बड़े गौरव की बात है. पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय सन् 2010 में इंद्रासन धान का इंद्रासन सिंह के ही नाम से पेटेंट करा चुका है. 

दूसरी घटना ‘लेंटाना बग’ पर एक प्राइमरी स्कूल के अध्यापक श्री चंद्रशेखर लोहुमी के शोध कार्य से संबंधित है. उनका इंटरव्यू भी इन पंक्तियों के लेखक ने ‘किसान भारती’ में पहली बार प्रकाशित किया था जिससे उनका काम प्रकाश में आ सका. उन्हें सन् 1976 में तत्कालीन कृषि मंत्री श्री जगजीवन राम की ओर से विज्ञान भवन में रू. 15,000/- के विशेष पुरस्कार से सम्मानित किया. तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें मिलने के लिए आमंत्रित किया. प्रधानमंत्री कोष से उन्हें आर्थिक सहायता मिली. उन्हें कई सम्मान मिले और विश्वप्रसिद्ध पत्रिका ‘टाइम’ ने भी ‘वाॅरियर अगेस्ट वीड’ शीर्षक से उनके कार्य के बारे में प्रमुखता से छापा.
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‘किसान भारती’ और उससे जुड़ी इन तमाम बातों से यह अनुमान लगाना शायद कठिन होगा कि तब किन हालातों में इसे प्रकाशित किया जाता था. वह प्रिंटिंग टैक्नोलॉजी आज अतीत की बात बन चुकी है. मैकेनिकल टाइप राइटर पर टाइप किए हुए लेखों को तब हाथ से सीसे का एक-एक अक्षर और मात्रा उठा कर कंपोज किया जाता था. उसे कालमों में धागे से कस कर गेली प्रूफ निकाले जाते थे. करैक्शन के लिए सीसे के अक्षर भी हाथ से ही बदले जाते थे. विश्वविद्यालय के मुद्रणालय में ही फोटो और चित्रों के जिंक प्लेट पर ब्लाॅक तैयार करके मैटर में लगाए जाते थे. बहुत बाद में मोनोटाइप मशीन आई जिसमें टाइप किए हुए अक्षर देखते ही देखते सीसे के अक्षरों में ढलते जाते थे. उस टैक्नोलॉजी को देख कर रोमांच होता था. आज वह भी विदा हो चुकी है.

इस सब के बावजूद ‘किसान भारती’ के महत्वपूर्ण विशेषांक प्रकाशित होते रहे. विशेषांक के लिए राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, केन्द्रीय कृषि मंत्री, राज्यपाल, राज्य के मुख्यमंत्री और कृषि मंत्री आदि के शुभकामना संदेश प्राप्त होते थे. ‘किसान भारती’ की प्रसार संख्या हजार-पांच सौ से बढ़ कर 8,000 तक पहुंच गई थी. किसानों के चंदे के मनीआर्डर लगातार मिलते रहते लेकिन आश्चर्य होता था कि प्रसार संख्या आगे क्यों नहीं बढ़ रही है? वे ही दिन थे जब मैंने पंतनगर को बड़ी पीड़ा के साथ अलविदा कहा था और बेटी के समान ‘किसान भारती’ पीछे छूट गई.

पंतनगर में प्राप्त कृषि पत्रकारिता की दीक्षा ने मुझे शब्दों की सौगात सौंप कर विज्ञान पत्रकारिता की दिशा में मोड़ दिया. सन् 1970 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित होने पर डाॅ. नार्मन बोरलाग पर हिंदी की ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘दिनमान’ और ‘रविवार’ जैसी कई प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में सबसे पहले मेरी ही ‘एक्सक्लूसिव स्टोरी’ छपी थी. यह उसी दीक्षा का सुफल था.

आज उस दौर के उन बीते हुए दिनों को आप लोगों के बीच याद करते हुए अपने निर्माण के वे दिन, वे पल मेरी आंखों में जैसे साकार हो उठे हैं. उन दिनों को याद करने का यह सुअवसर देने के लिए मैं कुलपति महोदय का हृदय से आभार व्यक्त करता हूं.
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देवेन्द्र मेवाड़ी

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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