उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत सत्ता में रहें या न रहें पर ख़बरों में हमेशा बने रहते हैं. कायदे से देखा जाये तो हरीश रावत को कोई भी आम चुनाव जीते हुए अब दो दशक होने को हैं इसके बावजूद पिछले 22 वर्षों में ऐसा कोई समय नहीं रहा जब उत्तराखंड की राजनीति पर चर्चा बिना हरीश रावत के हुई हो. बीते दिन हरीश रावत ने अपनी फेसबुक वाल पर एक पोस्ट लिखी. इस पोस्ट में हरीश रावत की राजनीतिक बयानबाजी को अलग कर दिया जाये तो कुछ महत्वपूर्ण बातें निकलकर आती हैं. उत्तराखंड में लगातार बढ़ रहे मानव-वन्यजीव संघर्षों के बीच पूर्व मुख्यमंत्री की बात गौर करने योग्य है. यह पूर्व मुख्यमंत्री की वाकपटुता है कि वह बेहद गंभीर मुद्दों के साथ भी राजनीतिक बयानबाजी जोड़ ही देते हैं. यहां पूर्व मुख्यमंत्री के फेसबुक वाल से पूरी पोस्ट जस की तस लगाई जा रही है जिसे राजनितिक बयानबाजी को नजरंदाज कर पूरी गंभीरता के साथ पढ़ा जाना चाहिये- सम्पादक
(Harish Rawat Human Wildlife Conflict)
अभी एक बहन जिसको कभी हमने विधवा बकरी पालन योजना के तहत लाभान्वित किया था और उसके तहत वह तब से तीन बार- 15, 20 और एक बार 17 बकरियां बेच चुकी हैं, यह उसका कहना है. इस बार उसके पास 15 बकरियां थी और घर में तेंदुआ/बाघ घुस गया. डर के मारे वो और उसके बच्चे निकले नहीं, केवल घर के अंदर हल्ला मचाते रहे. अड़ोस-पड़ोस में कोई है नहीं और जो है तेंदुआ उसकी दो बकरियां छोड़ करके बाकी बकरियों को मार गया. एक महिला ने जिसने अपने संघर्ष से अपने परिवार को गरीबी की रेखा से बाहर निकाल दिया था, तेंदुए ने फिर उसको गरीबी रेखा के अंदर धकेल दिया है.
जंगली जानवरों का भय, बंदर, गुनी, भालू, हाथी, सूअर, वनरोज और उस पर यह बाघ जिसको लेपर्ड या गुलदार कहते हैं. जिन लोगों ने अपने घर में माता-पिता छोड़े हैं वह कितने चिंतित होंगे, मैं उसकी कल्पना करता हूं और जो जरा सा भी सक्षम होगा वह अपने मां-बाप को घर से अपने साथ ले आएगा. बच्चे तो छोड़ने की किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ेगी गांवों में. लोग, गुलदार के इतने शिकार हो जा रहे हैं, आतंक फैला हुआ है. संख्या इतनी बढ़ गई है.
एक बार मैंने नीलगाय, सूअर, कुछ विशेष प्रकार के बंदरों को वर्मिन घोषित करवाया था, भारत सरकार ने ही किया था. जब उसकी अवधि खत्म हो गई तो सरकार ने उसके रिनुअल के लिए प्रयास नहीं किया. मैंने बंदरवाड़े बनवाए थे. बंदरवाड़ा चाहे हरिद्वार का हो, चाहे टिहरी का हो, चाहे अल्मोड़ा का हो वो अनुपयुक्त पड़े हुए हैं. सूअर रोधी दीवारें बनना बंद हो गई हैं. हाथी रोधी खड्ड बनना बंद हो गये हैं. लेपर्ड सफारी की योजना खटाई में डाल दी गई है. हमने रैबिट और काकड़, छोटे हिरण आदि के प्रजनन फॉर्म ताकि जंगलों में ही गुलदारों को खाना मिल जाए, उसका प्रयास प्रारंभ किया था. गुलदारों की संख्या प्राकृतिक रूप से नियंत्रित हो सके, उसके बच्चों को प्रिय भोजन बनाने वाला और सूअर के बच्चों को भी भोजन बनाने वाली लाल पूंछ वाली लोमड़ी के प्रजनन का केंद्र स्थापित करवाया था, वह भी योजना रुक गई. किसी ने इन बातों के ऊपर ध्यान नहीं दिया है. यदि मनुष्य को प्रेरित किया जा सकता है जनसंख्या नियंत्रित करने के लिए, क्या इस गुलदार को नहीं किया जा सकता है? क्या बंदरों की संख्या को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है?
(Harish Rawat Human Wildlife Conflict)
आप और भारत सरकार ने भी खतरे को समझा है इसलिए पहली बार एक पॉलिसी चेंज भारत सरकार ने लिया है कि राज्यों के जो वाइल्डलाइफ चीफ हैं उनको यह अधिकार दे दिया है कि वो जहां इस तरीके का खतरा देखें तो उसको वर्मिन घोषित कर दें. लेकिन राज्य सरकार में किसी तरीके की इस बात को लेकर के सार्थक पहल महसूस नहीं हो रही है. मैं जानता हूं इसमें से कई प्रश्न ऐसे हैं जो राजनीतिक विवाद के प्रश्न बन जाएंगे. पर्यावरणविदों के आलोचना की बातें बन जाएंगी. इसलिये एक सर्वदलीय बैठक बुलाकर के माननीय मुख्यमंत्री जी को जंगली जानवरों से और इस तरीके के पशुओं से हो रहे नुकसान के विषय में क्या राज्य की नीड होनी चाहिए, उस पर बात करनी चाहिए ताकि किसी एक निर्णय का दुष्परिणाम किसी एक पार्टी का एक व्यक्ति को न भुगतना पड़े.
मुझे उम्मीद है कि इस विषय में मुख्यमंत्री जी पहल करेंगे. यदि पहल नहीं करेंगे तो कुछ समय बाद धीरे-धीरे हमारे गांवों में जो लोग रह भी रहे हैं, वह भी गांव में नहीं रहेंगे. गांव और उतागृह गाँव हो जाएंगे और लोगों को मेरा दर्द है इसलिये ज्यादा कटु लगता है, क्योंकि मैं गांव चलो कैंपेन वाला व्यक्ति हूं. निरंतर उसके लिए प्रयासरत रहता हूं.
एक व्यक्ति और कूदे थे इस दिशा में, लेकिन आजकल मैं देख रहा हूं कि शायद उनसे भी कह दिया गया है कि खबरदार यह क्या कर रहे हो करके वो भी नहीं कूद रहे हैं, एक राज्यसभा के सांसद हैं और मैं सभी जो प्रबुद्ध लोग हैं उत्तराखंड के, जरा गंभीरता से सोचिए कि एक अच्छा उत्तराखंड बनना है लेकिन उस उत्तराखंड में वह चीजें नासूर बन रही हैं, उन नासूरों का इलाज तो हम ही को खोजना पड़ेगा.
“जय हिंद-जय उत्तराखंड”
(Harish Rawat Human Wildlife Conflict)
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