गुरु अंगद देव सिख धर्म में मनुष्य के रूप में अध्यात्मिक गुरु का दर्जा पाने वाले 10 गुरुओं में से एक हैं. वे सिखों के दूसरे गुरु हैं.
गुरु अंगद देव का जन्म 1504 में अमृतसर, पंजाब के हरिका गाँव में हुआ था. उनके पिता फेरुमल और माता रामोजी थीं जिन्हें दया कौर के नाम से भी जाना जाता है. फेरुमल एक व्यापारी थे. एक सामान्य हिन्दू परिवार में जन्मे लहना बचपन से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे और 27 साल की उम्र तक वे दुर्गा के घनघोर उपासक बन चुके थे.
इन्हीं दिनों उन्हें गुरु नानक के एक सिख भाई जोधा से गुरु नानक की वाणी का पाठ सुनने का मौका मिला. इससे प्रभावित होकर उन्होंने कीरतपुर जाकर गुरु नानक से मिलने का निश्चय किया.
एक दफा की मुलाकात ने ही लहना की जिंदगी बदल दी उन्होंने गुरु नानक का सिख बनने का फैसला किया. वे गुरु नानक एवं उनके मिशन के लिए समर्पित हो गए. उनके शिष्यत्व को गुरु नानक देव ने स्वयं विभिन्न परीक्षणों से जांचा. जिसके बाद उन्हें गुरु और मानवता के प्रति आज्ञाकारिता और सेवा के अवतार के रूप में जाना जाने लगा.
निधन से पहले, गुरु नानक देव ने लहना का नाम बदलकर अंगद (अंग, या खुद के शरीर का अंग) रखा और उन्हें 13 जून, 1539 को अपने उत्तराधिकारी दूसरे नानक के रूप में स्थापित किया.
सिखों के दूसरे गुरु के रूप में उन्होंने गुरु ग्रन्थ साहिब में 63 शबद और श्लोकों का योगदान दिया.
उन्होंने अपने स्वयं के आचरण के माध्यम से मानवता के लिए निष्काम सेवा, गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण और ईश्वर की इच्छा को प्रदर्शित किया, गुरु अंगद देव ने धार्मिक पाखंड को अस्वीकार किया.
उन्होंने गुरमुखी लिपि के वर्तमान स्वरूप को औपचारिक रूप दिया. वे गुरुमुखी लिपि के अन्वेषक भी मने जाते हैं. उनके इस योगदान ने सिख धर्म की शिक्षा-दीक्षा को आम आदमी तक पहुंचाना सुगम बनाया. इससे पहले, पंजाबी भाषा को लिंडा या महाजनी लिपि में लिखा जाता था, इसमें कोई स्वर नहीं था. इसलिए एक ऐसी लिपि की जरूरत थी, जो ईमानदारी से गुरुओं के भजन को पुन: पेश कर सके ताकि गुरुओं का सही संदेश और अर्थ प्रत्येक पाठक को अपने स्वयं के उद्देश्य और पूर्वाग्रहों के अनुरूप गलत न समझाया जा सके. सिद्धांत की पवित्रता बनाए रखने और किसी भी व्यक्ति द्वारा गलतफहमी पैदा करने की सभी संभावना को ख़त्म करने के लिए गुरुमुखी लिपि को तैयार करना एक ऐतिहासिक कदम था. उन्होंने शिक्षा व साहित्य के कई केन्द्रों की स्थापना भी की.
गुरु नानक देव द्वारा शुरू की गयी लंगर की संस्था को बांये रखा और विकसित किया. गुरु की पत्नी खीवीं व्यक्तिगत रूप से रसोई में काम करती थी. वे समुदाय के सदस्यों और मेहमानों को भोजन भी परोसा करती थीं. संस्था के प्रति उनकी भक्ति व समर्पण का उल्लेख गुरु ग्रंथ साहिब में मिलता है.
गुरु अंगद ने व्यापक रूप से यात्राएं की और सिख पंथ के उपदेश के लिए कई नए केंद्र स्थापित किए. आध्यात्मिक विकास के साथ ही शारीरिक विकास पर जोर देने जाने के लिए मल्ल अखाड़ा की परंपरा शुरू की.
गुरु नानक की परंपरा का निर्वाह करते हुए, 1552 में गुरु अंगद देव ने परिनिर्वाण से पहले गुरु अमर दास को सिखों के तीसरे गुरु के रूप में नामित किया.
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