कूटनीतिज्ञ पूरिया नैथानी की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण यात्रा 1680 में मुग़ल दरबार में रही. मुग़ल सम्राट औरंगजेब ने अपनी धार्मिक नीति के अंतर्गत 1665 ई. में हिन्दुओं पर जजिया कर लगाया था. इससे संपूर्ण हिन्दू प्रजा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. गढ़वाल की प्रजा से भी अन्यायपूर्ण तरीकों से इसे वसूला गया, गढ़वाल नरेश फतेशाह के संरक्षण में इस समस्या पर विचार करने के लिये एक कमेटी का गठन किया गया. इसके पश्चात निश्चय किया गया कि पूरिया को दिल्ली भेजकर गढ़वाल को जजिया कर से मुक्ति कराने का आग्रह किया जायेगा.
इस तरह पूरिया महाराज का पत्र लेकर दिल्ली दरबार में औरंगजेब के सामने उपस्थित हुआ. पहाड़ की स्थिति से परिचित न होने के कारण औरंगजेब ने पूरिया से प्रश्न किया कि हमने तो सुना था कि वहां सोने चांदी के पहाड़ होते हैं. हाजिर जवाब के लिए विख्यात पूरिया ने चतुरता के साथ जेब से करेला निकाल कर पहाड़ की भौगोलिक स्थिति का परिचय देते हुए बताया कि वहां का जीवन तो श्रम साध्य है. इस स्पष्टीकरण से औरंगजेब संतुष्ट हो गया. उसने शीघ्र ही राजाज्ञा जारी कर गढ़वाल से जजिया कर पूरी तरह समाप्त कर दिया.
दिल्ली की इस सरकारी यात्रा के दौरान पूरिया नैथाणी ने सम्राट औरंगजेब से हिन्दू धर्म बचाने की प्रार्थना करते हुए तथा विद्वतापूर्ण तथ्यों को व्यक्त करते हुए कहा कि हिन्दू और मुसलमान दो सगे भाई हैं. वे एक ही गाड़ी के दो पहिये हैं. एक के बिना दूसरा जीवित नहीं रह सकता. धर्म का वास्तविक साम्राज्य स्थापित करने के लिए इन दोनों भाईयों में एकता स्थापित होना आवश्यक है. इस आशय का एक पत्र चितौड़ के राणा राजसिंह भी सम्राट को लिख चुके थे. पूरिया के साहस को देखकर दरबार में उपस्थित हिन्दू राजाओं और राजदूतों ने एक स्वर में पूरिया नैथाणी की मांग का समर्थन किया.
औरंगजेब ने इस पर मंथन करते हुए फरमान जारी किया कि अब भविष्य में राजपूताना और पहाड़ी अंचल में हिन्दुओं के मंदिर की सुरक्षा करते हुए उनके धर्म में सरकारी हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा. देवलगढ़ ( गढ़नरेशों की प्राचीनतम राजधानी ) के मंदिर जीर्णोद्धार में औरंगजेब ने स्वयं आर्थिक सहायता प्रदान की थी. पूरिया की इस ऐतिहासिक एवं सफल यात्रा से मुग़ल शासक और गढ़नरेश के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित हो गये थे. गढ़वाल लौटने पर इसे सेनापति बना दिया गया.
पूरिया नैथाणी एक सफल राजनयिक की भूमिका निभाने के पश्चात् एक सेनापति के रूप में भी चर्चित रहे हैं. फतेशाह के साथ उन्होंने राज्य की पूर्वी सीमा पर कुमाऊंनी शासकों के आक्रमणों से सुरक्षित रखने के लिए निरंतर संघर्ष किया. लेकिन 1709 ई. में कुमाऊं का शासक जगत चन्द्र एक बड़ी सेना लेकर श्रीनगर तक घुस आया था. गढ़ नरेश की अधिकतर सेना सीमाओं पर ही तैनात थी, राजधानी में सीमित सेना ही थी. पूरिया की सलाह पर फतेशाह देहरादून चला गया.
इस तरह श्रीनगर की रक्षा का दायित्व तत्कालीन मंत्री शंकर डोभाल के साथ पूरिया ने संभाला. अपनि नीति के अंतर्गत पूरिया ने श्रीनगर में जगतचन्द्र को भी वाकपटुता से प्रभावित करते हुए कहा कि गढ़वाल और कुमाऊँ उत्तर भारत के प्रमुख केंद्र हैं. इनमें से एक का नष्ट होना हमारे लिए उचित नहीं होगा. इस वाकचतुराई और कूटनीतिज्ञता से प्रभावित होकर जगतचन्द्र ने एक स्थानीय ब्राह्मण को श्रीनगर दान में दे दिया. जगत चन्द्र के वापस लौटते ही पूरिया ने फतेशाह को वापस बुला लिया. 1710 में इसी कूटनीति के अंतर्गत गढ़वाली सेना ने पूरिया के नेतृत्व में कुमाऊँ के सीमावर्ती गाँवों को को भी अपने निमंत्रण में ले लिया था.
इस उल्लेखनीय घटना के एक लंबे समय अंतराल तक पूरिया नैथाणी गुमनामी में रहे और उनका अधिकतर जीवन गांव नैथाण में ही बीतने लगा. किन्तु राजकुमार प्रदीप शाह के वयस्क होने और श्रीनगर की राजगद्दी संभालने तक, प्रदीप शाह को अपने संरक्षण में रखकर शिक्षा दी.
( जारी )
पुरवासी के चौदहवें अंक से डॉ योगेश घस्माना का लेख मध्य कालीन गढ़वाल की राजीनीति का चाणक्य – पूरिया नैथानी.
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