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भट के डुबके हों या गडेरी की सब्जी गंदरायणी के बिना सारे अधूरे

मेरे दादा के समय तक के किस्से मैंने बचपन में खूब सुने. जितने भी किस्से सुने उनमें एक किस्सा होता कि पहले लोग नमक लाने के लिए यहाँ से टनकपुर तक की पैदल यात्राएँ करते थे. मामूली जरूरतों तक सीमित जीवन के लिए अधिकांश चीजें हाड तोड़ मेहनत के बाद पैदा हो ही जाती थी. Gandraini a Valuable Herb from Himalayas

लाल चावल, मोटा गेहूं, मडुवा, मक्का, झंगोर आदि अनाज, मसूर, मास, गहत और भट जैसी दालें, तेल के लिए थोडा बहुत सरसों और तिल, रोटी चिकनी भर करने को घी- मक्खन, यह सब गाँव के आत्मनिर्भर जीवन में उत्पादित हो जाते. जो चीज यहाँ नहीं हो पाती वह था नमक. Gandraini a Valuable Herb from Himalayas

इस नमक के लिए हमारे पुरखे जत्थे बनाकर टनकपुर मंडी की यात्रा में निकलते. हफ्ते- हफ्ते भर लम्बी पैदल यात्रायें कर लोग अपने साथ नमक लाते. यह नमक न केवल खुद के लिए था बल्कि अपने पालतू पशुओं के लिए भी होता था.

कहते हैं इन लम्बी यात्राओं में कई बार लुटेरों और रहजनों से भी सामना होता. कई बार लुट कर आते कई बार बच निकलते. हर यात्रा के अनुभव हमारे लिए जासूसी उपन्यास जैसे रोमांचक होते. 

हमारे ताऊ जी अपनी किशोरावस्था का किस्सा सुनाते कि कैसे तालघर के बड़बाज्यू को सोर बाजार में एक बस का छल लगा. बहुत बार लोग टनकपुर या भाभर नहीं जा पाते तो अण्वालों से नमक ले लेते. अण्वाल, भाभर की मंडियों से समुद्री नमक और तिब्बत की खानों से चट्टानी नमक दोनों ही लाते थे. अण्वालों की पोटली से एक और जादुई जड़ी निकलती. यह जड़ी मसाला भी होती और दवाई भी.

इस जड़ी को छीपी या गंदरायणी कहा जाता है. चौमास में कई बार भैंसों को पेट फूल जाता है और उनको कब्ज हो जाती है. ऐसे में गंदरायणी की जड़ को पानी में घोल कर यह पानी भैंस को पिला देने से उसका पेट चल पड़ता.

गंदरायणी के पौधे. फोटो : विनोद उप्रेती

यह नजारा बचपन में बहुत बार देखने को मिला. बहुत बार रात को ठंडा भात खा लेने से ठण्ड लग जाती और हमारा पेट भी फूल जाता. ऐसे में ईजा एक छोटा टुकड़ा छीपी का हमारे मुंह में डाल देती. अजीब सी कड़वाहट से मुंह भर जाता लेकिन धीरे धीरे वह कड़वाहट कम होने लगती. पेट की ऐंठन और गैस सब ठीक हो जाती.

यह जादुई बूटी मेरे ताऊ जी की छोटी सी अलमारी में हमेशा पायी जाती जिसे वह पीतल के ताले की ओट में रखते थे. नवजात बच्चों के पेट में कोई तकलीफ हो तो इसे घोल कर बच्चों की नाभि के चारों ओर मलने से तुरंत राहत मिलती है.

कुमाउनी कुजीन में यह जड़ी एक लोकप्रिय मसाला भी रही है. अगर आपको भट के डुबके या मास का चैंसा पसंद है तो छीपी का तड़का आपके स्वाद में चार चाँद लगा देगा. गडेरी के सब्जी में यह अजब स्वाद जोड़ देता है और अगर आप उच्च हिमालयी घाटियों में हैं तो इसको इस्तेमाल करना सिर्फ स्वाद की  नहीं बल्कि सेहत की  भी जरूरत है. इसकी तासीर आपको तेज ठण्ड के असर से बचने में मदद करती है. Gandraini a Valuable Herb from Himalayas

लाल मिर्च, थोया, तिमूर और लहसुन के साथ इसको पीस कर मसूर की दाल, आलू के थेचुवा, बाक की जड़ों या मांस में मिलाने से मुंह में स्वाद का धमाका होना तय होता है. इसकी गंध में अजब सी गर्माहट होती है.

बुग्यालों- ग्लेशियरों और घाटियों की अपनी यात्राओं के दौरान यह पौधा बुग्यालों और खेतों दोनों जगह देखने को मिला. जोहार घाटी में कुछ किसानों ने इसकी खेती के सफल प्रयोग किये हैं जो नई संभावनाओं को उजागर भी करते हैं.

एन्जेलिया ग्लाउका नाम से यह वनस्पति शास्त्र में पहचाना जाता है. 1500 से 3700 मीटर की तुंगता में यह नेपाल, उत्तराखंड, हिमाचल और कश्मीर के हिमालयी इलाकों में पाया जाता है. यह पौधा एपिएसी परिवार का सदस्य है जिसकी 110 के आसपास किस्में देखी गयी हैं.

इसका इस्तेमाल मसाले और सगंध पदार्थ के रूप में तो है ही, औषधि के रूप में भी बहुतायत में इस्तेमाल किया जाता है. सीधे सीधे जड़ का सेवन भी किया जाता है और संसोधित कर अनेक दवाइयों के निर्माण में भी इसको इस्तेमाल किया जाता है. आज भी कोई नेपाली, शौका या अण्वाल इसकी जड़ों को बेचता नजर आ जाता है.

हर्बल- योग- देशभक्ति के कॉकटेल में जड़ी बूटियों और उनसे बने उत्पादों का ऐसा बाजार फैला है कि अब हर्बल के इस बाजार ने हर्ब को ही खतरे की जद तक पंहुचा दिया है. ऊपर से बुग्यालों में लोगों की बढ़ती  आवाजाही, नंदा जात या ऐसे सांस्कृतिक आयोजनों के बाजारीकरण, काश्कारों को न्यून प्रोत्साहन, जनमुखी भेषज नीति के अभाव आदि ने हिमालय की इन सौगातों का अस्तित्व संकट में डाल दिया है.

आज इन पादपों को इसलिए भी जानने की जरुरत है क्योंकि जिस गति से हम विकास नाम के पागलपन का शिकार हो रहे हैं, आने वाली पीढ़ियों के लिए यह केवल कहानी बन कर रह जाएँगी. तब उस खेल गीत का क्या होगा जब एक बड़ा एक छोटे बच्चे को अपनी पीठ में तिरछा पकड़ कर अण्वाल का अभिनय करते हुए गाता है- सेक्व लिंछा गंधरैण… हग्गु हग्गु हग्गु… हम अण्वालों के कर्जदार हैं जिन्होंने मध्य हिमालय के बंद जीवन को माल भाभर और तिब्बत से एक साथ जोड़ा और हमको बहुमूल्य वनस्पतियों का ज्ञान और मर्म दिया.

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विनोद उप्रेती

पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं. विनोद काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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Girish Lohani

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