सन् 1988 में पीपुल्स कालेज के साथ ‘जेम पार्क’ यानी रत्न उद्यान की अखाड़ेबाजी कुछ समय तक चर्चा का विषय बनी रही. कहा गया कि सौभाग्य, श्रृंगार और वैभव का प्रतीक अब न केवल हल्द्वानी नगर, कुमाऊॅं मंडल और आस-पास के क्षेत्रों के भाग्योदय का कारण बन जाएगा, अपितु उत्तर प्रदेश और भारत के विकास का देदीप्यमान स्तम्भ स्थापित हो जायेगा. हल्द्वानी में स्थापित होने वाले इस जेम पार्क से आने वाले वर्षों में क्षेत्र का आर्थिक व सामाजिक नक्शा ही बदल जाएगा.
जेम पार्क के उद्घाटन समारोह के दिन पीपुल्स कालेज परिसर में हजारों लोगों का मेला लग गया. लोगों को लगा कि शायद अब उनके दिन बहुरने का समय आ गया है. नारायण दत्त तिवारी ने इस अवसर पर कहा कि दस हजार लोगों को प्रतिवर्ष इस उद्योग से रोजगार उपलब्ध होगा और करोड़ों रूपये की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकेगी. बताया गया कि यह महत्वकांक्षी योजना भारतीय कम्पनी अधिनियम के धारा 25 के अन्तर्गत गठित ‘डायमंड एण्ड जेम डेवलपमेंट कार्पोरशन’ की देन है. यह ऐसी पब्लिक लिमिटेड कम्पनी है जो देश भर में रत्न उद्योग को आधुनिक तरीके से विकसित करने में उद्यमियों की हर तरह से मदद कर रही है.सूरत और जयपुर में स्थापित जेम पार्क इसके उदाहरण हैं. उद्यमियों को तकनीकी सहायता देकर न केवल उद्योग स्थापित करवाती है बल्कि उद्योगों के लिए कच्चे माल की व्यवस्था व तैयार माल की बिक्री व्यवस्था में मदद करती है. कहा गया कि हल्द्वानी जेम पार्क परियोजना के लिए इस कम्पनी ने पीपुल्स कालेज हल्द्वानी के पास ग्यारह एकड़ भूमि प्राप्त कर ली है. इसमें कृत्रिम हीरा व रत्न तराशने, स्वर्ण आभूषण बनाने असली हीरा व बहुमूल्य रत्न तराशने, मोती बांधने व चमकाने आदि की 150 लघु इकाइयां स्थापित करने का प्रस्ताव है.
हल्द्वानी नगरपालिका क्षेत्र के अन्तर्गत 80 प्रतिशत भूमि नजूल की है जो 90 साला लीज पर थी उसमें से लगभग सभी की लीज समाप्त हो चुकी है, लेकिन अब इस भूमि की लीज भी नवीनीकृत नहीं की जा रही है. नियमितीकरण की शर्तें व मूल्य इतने अधिक शासन द्वारा रख दिए गए हैं कि पट्टे धारकों की गर्दन में हर वक्त नंगी तलवार लटी नजर आने लगी है. किन्तु दूसरी ओर सरकारी जमीन को एक व्यक्तिगत संस्था को, सारे नियम कानूनों को ठेंगा दिखाकर, क्षेत्र की जनता को बेवकूफ बनाकर व नेताओं को खरीदी जाने वाली वस्तु समझकर जिस तरह बेचने-खरीदने का षड़यंत्र रचा गया वह गौरेतलब रहा. हीरा तराशी के नाम पर यहां की बहुमूल्य भूमि को मात्र एक रूपया अस्सी पैसा प्रति वर्ग फुट पर नारायण दत्त तिवारी ने इस लिए उपलब्ध करा दिया कि उद्योग के कर्ताधर्ताओं ने उन्हें यहां की जनता को क्षेत्र की उन्नति के सब्जबाग दिखाये.बाद में इस उद्योग के भीतर जहां अनियमितता, भ्रष्टाचार, शोषण व ठगी का माहौल पैदा हुआ, उसके खिलाफ आन्दोलन की सुगबुगाहट पैदा होने लगी. लेकिन तिवारी इस चीख-चिल्लाहट को अपना विरोध मानने लगे और इस उद्योग के कर्ताधर्ता हीरा तराशी के बजए इस जमीन को बेचने की जुगत भिड़ाने लगे. वे 55 रूपया प्रति वर्ग फुट के हिसाब से इसे बेचने लगे. उन्होंने सरकारी सहयोग का तो पूरा लाभ उठाया ही साथ ही एक प्रापर्टी डीलर के रूप में मोटे असामियों को जमीन बेच कर कारोबार समेटने की तैयारी कर ली. वे उन्हें हीरा तराशी का झूठा प्रमाणपत्र बनाते और उसे वहां उद्योग लगाने के नाम पर जमीन बेच डालते. बहरहाल इस पीपुल्स कालेज व इसके ईदगिर्द ऐसा बहुत कुछ हुआ, जो अब विस्मृत किया जा चुका है.
यादें तो यादें होती हैं. उनमें कुछ खट्टी होती हैं और कुछ मीठी. खट्टी यादों के चटकारे तो हम लेते रहते हैं लेकिन मीठी यादें हमेशा गूंगे के गुड़ के स्वाद जैसा होती हैं. उन्हें केवल अन्दर ही अन्दर अनुभव किया जा सकता है. ऐसी ही यादें हल्द्वानी के वरिष्ठतम पत्रकार पद्मा दत्त पांडे के साथ जुड़ी हैं. दरअसल 42 सालों में अपने परिवार के साथ मेरे लिए भी वे एक संरक्षक की हैसियत रखे हुए थे. उनका हॅंसमुख चेहरा और विनोदी स्वभाव भुलाया नहीं जा सकता है.
स्व. पन्त का जन्म 1922 में गंगोलीहाट (पिथौरागढ़) के चिटगल गांव में हुआ था. गांव के पास ही प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद हरिद्वार में रह कर उन्होंने संस्कृत शिक्षा का अध्ययन किया. संघर्षपूर्ण आजीविका की तलाश यात्रा के साथ अन्नतः हल्द्वानी में ही प्रिंटिंग व्यवसाय को अपना लक्ष्य बना लिया. मैं उनके साथ सबसे पहले ‘संदेश सागर’ नामक साप्ताहिक समाचार पत्र के माध्यम से जुड़ा. 1967 में पन्त ने ‘संदेश सागर’ का प्रकाशन शुरू किया. करीब डेढ़ वर्ष तक पत्र के सम्पादन का कार्य मैं देखता रहा. बाद में 14 वर्षों तक एक मिशन भावना के तहत उसका सम्पादन व प्रकाशन वे स्वयं करते रहे. निर्भीक पत्रकारिता के साथ-साथ वे सामाजिक कार्यों में भी अग्रणी भूमिका का निर्वहन करते रहे. तब हम दोनों पत्रकारिता को एक मिशन ही समझते और मानते थे. यह हमारी आजीविका का साधन भी नहीं था. पग-पग पर कठिनाइयां थीं. प्रेस में हो या घर में हम एक साथ रहते थे और वे अपने बच्चों में मुझे बड़ा मानते थे और अंतरंग बातें चाहे घरेलू हों, आर्थिक हो, या पत्रकारिता सम्बंधी उनमें मुझे शामिल करते थे. यद्यपि मैं दिल्ली से पत्रकारिता छोड़कर यहां आया था और उस समय के राष्ट्रीय समाचार पत्रों के साथ लेखन के माध्यम से जुड़ा हुआ था किन्तु स्थानीय स्तर पर व्यावहारिक पत्रकारिता में उनका मार्गदर्शन मेरे लिए महत्वपूर्ण रहा. घोर राजनीतिबाजों के बीच रहते हुए भी उनके विचार हमेशा निष्पक्ष बने रहे. उनके अखाड़े में राजनीति के हर अखाड़े का पहलवान आया करता था. वामपंथी हो, दक्षिणपंथी हो या छद्म धर्मनिरपेक्ष, वे अपने विनोदी स्वभाव के अनुकूल सब पर चुटीले सवाल दाग ही देते थे.तब आज की तरह न पत्रकारों की भीड़ थी, न समाचार पत्रों की ओर न ही बुजुर्गों की अवमानना करने वाली जमा. पत्रकारिता एक जिम्मेदारी भरा काम था उनके पास तत्कालीन कांग्रेसी विधायक इन्द्रलाल का भी अन्य लोगों की तरह आना जाना बराबर रहता था और एक प्रकार से मैत्रीपूर्ण सम्बंध थे. किन्तु उन्होंने गन्नाा समिति में उनके द्वारा किए गए घोटाले का पर्दाफाश करने में किसी प्रकार का समझौता स्वीकार नहीं किया और विधायक द्वारा की गई मानहानि की चुनौती को स्वीकार करते हुए अन्ततः उन्हेांने न्यायालय में भी विजय हासिल की.इस सब के बावजूद यदि वे चाहते तो हर्जाने का मुकदमा विधायक पर दायर कर सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा भी नहीं किया.आजीविका का सवाल मुझे उनसे अलग होने के लिए मजबूर कर गया. 1978 में जब अपने मित्र दुर्गासिंह मार्तोलिया के साथ साप्ताहिक ‘पिघलता हिमालय’ और 1980 में दैनिक पिघलता हिमालय का प्रकाशन शुरू किया तो वे बहुत खुश हुए. वे चाहते थे कि में मिशन भावना को ही पत्रकारिता में बनाये रखूं. 16 फरवरी 2009 को वे हमसे विदा हो गए. आज वे हमारे बीच नहीं हैं और यादों की बारात बहुत लम्बी है.
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने : 46
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