1960 से पहले यहाँ यात्रियों, पर्यटकों के टिकने के लिए विशेष होटलों कि व्यवस्था नहीं थी. तेवाड़ी होटल, जगदीश होटल, अम्बिका होटल पंजाब होटल के अलावा ढाबों में लगी बैंचों और केएमओयू स्टेशन, अनाथाश्रम के बरामदे में ही लोग रात गुजार लिया करते थे. स्टेशन के आसपास कई ढाबे थे जिनमें भोजन मिलता था. पेशावरी ढाबा, मंगलपड़ाव में प्रेम रेस्टोरेंट, भवानीगंज में हजारा और बॉम्बे रेस्टोरेंट मांसाहारी भोजनालय थे. इनमें लोग शराब भी पिया करते थे. रेलवे बाजार में सनवाल होटल के अलावा कुमाऊं भोजनालय व भारद्वाज भोजनालय साफ़-सुथरे शाकाहारी भोजनालय थे. रेलवे बाजार में ही कांग्रेसी नेता गोपाल दत्त तिवारी के अलावा पंजाब से आए हंसराज का भी होटल था.
रोडवेज स्टेशन के पास भगवानदास की चाय की दुकान थी जहाँ राजनीतिबाजों के अखाड़ेबाजी अधिक हुआ करती थी. भगवानदास भी चाय बनाते-बनाते बहसों में अपनी राय का छौंका लगा दिया करते थे. टनकपुर रोड में कैलाश व्यू होटल ही पुँराने समय का ऐसा होटल था जहाँ लोग सुविधाओं के साथ टिक सकते थे. यहाँ देश-विदेश के नामी लोगों का डेरा लगा करता था. इस होटल में फिल्म मधुमती की शूटिंग भी हुई थी, जिसमें वैजयंती माला, दिलीप कुमार, जॉनी वॉकर सहित पूरी यूनिट के लोग रुके और यहीं रहकर शूटिंग का सञ्चालन किया गया था. 1944 में एक अंग्रेज मिस्टर गाउन से टनकपुर रोड का यह बँगला खरीदा गया था. 1954 से इसे होटल के रूप में संचालित किया गया. क्योंकि इस जगह से छोटा कैलाश दिखाई दिखाई देता है इसलिए इसे कैलाश व्यू होटल नाम दिया गया. इस समय तक रात्रि विश्राम के लिए तिवारी, पंजाब और जगदीश होटल भी खुल चुके थे लेकिन सम्पूर्ण होटल के रूप में कैलाश होटल ही था. तब डेढ़ रुपये तक में कमरे की बुकिंग हो जाया करती थी. शम्मी कपूर, राजेश पायलट एनडी तिवारी सहित तमाम हस्तियाँ यहाँ रुका करती थीं. दान सिंह बिष्ट मालदार, जसौद सिंह जैसे खाम अधिकारी और प्रतिष्ठित लोग यहीं रुकते थे. तमाम संत-महात्माओं से लेकर सरकारी कार्य के लिए आने वाले अधिकारियों का अड्डा भी कैलाश व्यू होटल ही रहा है. जंगलात, मलेरिया उन्मूलन, चिकित्सा सहित तमाम सरकारी कैम्प व बैठकें यहाँ हुआ करती थीं. जब जवाहरलाल नेहरु का आगमन आगमन हुआ तो इसी होटल में उनके बैठने के लिए सोफा ले जाया गया.
टनकपुर रोड से लगा शहर का घाना आबादी वाला राजपुरा क्षेत्र 1940- 41 में बसा. हल्द्वानी को बसाने के लिये राज मिस्त्रियों की जरुरत पड़ी. तब ईटों से चिनाई का काम नहीं होता था. पत्थरों को काट काटकर चौहद्दियाँ और घरों की दीवारें बनाई जाती थी और चिनाई के लिये सीमेंट के स्थान पर चूने का प्रयोग होता था. पत्थरों को भट्टी में पकाकर चूना बनाया जाता था. तब हल्द्वानी में चूना बनाने वाली भट्टियां स्थान स्थान पर हुआ करती थी. चूने की चिनाई बहुत मजबूत मानी जाती थी. उस समय की बनी दीवारें आज भी मजबूती से कड़ी हैं. अंग्रेजी शासनकाल में पहाड़ के राजमिस्त्रियों को यह क्षेत्र दिया गया था, इसी लिये इस मौहल्ले का नाम राजपुरा पड़ गया. इससे पूर्व जाड़ों में आने वाले राजमिस्त्री ही अस्थाई तौर पर यहाँ काम किया करते थे. बदलती परिस्थितयों में पुराने राजमिस्त्रियों के अधिकाँश परिवार अन्यत्र जा चुके हैं. अब यहां यत्र – तत्र से आये अतिक्रमण कर बैठ गए लोगों से यह कषेत्र घनी बस्ती में तब्दील हो गया है.
उस दौर में हल्द्वानी के बसने का सिलसिला जारी ही हुआ था. राजपुरा क्षेत्र में जंगली जानवरों और शेरों का अड्डा हुआ करता था. हवाई ग्राउंड आर्मी क्षेत्र से लगी तीन गलियां राजपुरा इलाके में थी. तब राजपुरा का इलाका रौखाड हुआ करता था. वर्तमान में तो जंगल की ओर नई आबादी भी बस चुकी है. एलाट किये जाते समय यहां पचास साठ परिवार ही रहते थे और बाद में अधिकांश परिवार अपनी संपत्ति बेचकर चले गये.
अंग्रेजों ने राजपुरा में कपड़े धोने के लिये बिजनौर से लोगों को बुलाकर यहाँ बसाया और धोबी घाट बनवाया. यहां पीढ़ियों से कपड़े धोने का काम करने वाले अपनी रोजी रोटी से जुड़े हैं. इस धोबी घाट में पहले तिकोनिया नहर से गूल द्वारा साफ़ पानी आया करता था अब वह गूल बंद हो चुकी है और पब्लिक नल से पानी आता है. अग्रेज अनधिकारी बराबर इसका निरीक्षण करते थे कि पानी गन्दा ना हो. इस धोबी घाट को भी घेरने की तैयारी की जाती रही है जनता के विरोध के बाद इसे घेरा नहीं जा सका है. यह मात्र धोबी घाट नहीं एक इतिहास भी है. पहले जंगल होने के कारण कपड़े सुखाने के लिये बहुत जगह यहां पर थी आज यह इलाका सिमटा हुआ सा लगता है. मंगलपड़ाव दूध की डेरी के पास भी एक धोबी घाट था जिसे हटवाकर अब बरेली रोड कब्रिस्तान के पास बनवा दिया गया है.
कभी टनकपुर रोड स्थित अच्छन खां का बगीचा भी शहर की शान हुआ करता था. आज बगीचे में एक हजार से ऊपर मकान बन चुके हैं और मस्जिद भी है. अच्छन खां का यह बगीचा पूर्व में गौला नदी और उत्तर में राजपुरा तक फैला था.
( जारी )
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से ‘ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने – 25
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