तराई भाबर में भूमि व्यवस्था भी एक विवादास्पद विषय बनी रही है. यहाँ की जमीनों की लूट का अपना एक अलग ही इतिहास रहा है. यहाँ के बीहड़ इलाके को बसाने के लिए ब्रिटिश शासन काल में यहाँ एक खाम अधिकारी की नियुक्ति की गई और लोगों को बसाने के लिए तीन प्रकार के लीज पट्टे आवंटित किए गए — बागदारी, कृषि व आवासीय. Forgotten Pages from the History of Haldwani 41
कानून व्यवस्था की दृष्टि से भूमि को खाम व नजूल दो हिस्सों में विभक्त किया गया. खाम लैंड का लगान सीधा ब्रिटिश इम्पायार के खाते में जमा होता था और नजूल की मालगुजारी उत्तर प्रदेश सरकार के पास जाती थी.
हल्द्वानी नगर के मध्य में आज भी खाम बंगले के नाम से एक बंगला है, जहाँ अब कुमाऊं कमिश्नर का कैम्प कार्यालय लगता है. पहले इस बंगले के चारों और काफी भूमि थी और बगीचा लगा हुआ था अब इसके कुछ भाग में उद्योग विभाग का कार्यालय, सैनिक कल्याण कार्यालय आदि के साथ कुमाऊॅं विकास निगम का बहुत बड़ा व्यावसायिक कॉम्लपेक्स बन गया है.
आजादी के बाद जमीदारी उन्मूलन लागू हो जाने पर ग्रामीण क्षेत्र की खाम भूमि 20 गुना लगान जमा कराकर कब्जेदारों के नाम भूमिधरी में बदल दी गई, लेकिन शहरी क्षेत्र के लीज पट्टों की स्थिति यथावत बनी रही.
नगरपालिकाओं, टाउन एरिया कमेटियों, नोटीफाइड एरिया के अन्तर्गत तकरीबन 80 प्रतिशत नजूल की भूमि 10 साला लीज पर थी, जिनमें से अब सभी की लीज समाप्त हो गई है. इस लीज भूमि के संबंध में यह भी एक खास बात है कि इस भूमि के ऊपर या अन्दर की सम्पदा का उपयोग तो लीज होल्डर कर सकता है लेकिन भू-स्वामित्व का अधिकार उसे प्राप्त नहीं है.
लीज पट्टों के साथ यह भी एक शर्त थी कि यदि लीज होल्डर भूमि बेचना चाहे तो उसे डिप्टी कलेक्टर से पूर्वानुमति लेनी होती थी. इस प्रक्रिया में सक्षम लीज होल्डर अनुमति पा जाते थे, लेकिन अधिकांश को अनुमति नहीं मिल पाती थी. बदलती परिस्थितियों में लीज होल्डरों ने नाजायज तौर पर भूमि को छोटे-छोटे प्लाट बनाकर बेच डाला और खरीद फरोख्त की प्रक्रिया कई हाथों से होकर वर्तमान घनी आबादी वाले शहरों में तब्दील हो गयी. यद्यपि कानूनी तौर पर यह हस्तानन्तरण गलत था लेकिन व्यवहारिक रूप में इसे स्वीकार कर लिया गया.
स्थानीय निकायों द्वारा भी नजूल नियमावली की धारा 71 के अन्तर्गत दिए गए अधिकारों का उपयोग करते हुए नामान्तरण भी पत्रजातों में किया जाता रहा. इसके परिणाम स्वरूप हुआ यह कि पूर्व में जिस प्रयोजन से बागदारी व कृषि भूमि आंवटित की गई थी वह जनसंख्या में वृद्धि, औद्यौगीकरण व विकास के चलते व्यवहारिक रूप में आवासीय हो गई.
इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए सन् 1980 में तत्कालीन जिलाधिकारी नैनीताल ने शासन को लिखा कि लीज नवीनीकरण की प्रक्रिया का सरलीकरण किया जाए. उन्होंने यह भी लिखा कि नियमानुसार इनका एडवर्स पजेशन भूमि पर हो जाता है. किन्तु शासन की दृष्टि में पूर्व निर्धारित नियमों के अनुसार इन्हें अतिक्रमणकारी की श्रेणी में रख दिया गया और शासनादेश जारी कर उनसे नजराना वसूल कर नियमित कर देने की बात कही गई.
कई बार शासनादेशों में फेरबदल होते रहे और अब भी यह समस्या बनी हुई हैं क्योंकि जो राशि नियमित करने के लिए निर्धारित की जाती रही वह इतनी अधिक थी कि सहज में ही आम व्यक्ति स्वीकार न कर सके. अब यदि यहॉं की भूमि की पूरी तरह बिवेचना की जाए तो अधिकांश पट्टाधारकों ने पट्टों की शर्तों का किसी न किसी रूप में उल्लंघन किया है.
इसके अलावा स्थानीय निकायों तथा प्रशासन के पास जो भूमि थी वह उसे बचाने में स्वयं भी अक्षम रहे. उन भूमियों पर अतिक्रमणकारियों का मुफ्त में कब्जा होता रहा और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता रहा. सरकार ने अपनी आय को देखते हुए रजिस्ट्रेशन पर कोई रोक नहीं लगायी, इसलिए कब्जेदारों या खरीददारों को आज के कानून के अनुसार अतिक्रमणकारी बनाने में उसकी पूर्ण जिम्मेदारी रही.
इसी तरह तराई में सीलिंग कानून लाया तो गया लेकिन उस पर कितना अनुपालन हो सका यह जगजाहिर है. बड़े फार्मरों से सरकार न कब्जा ले सकी और न भूमिहीनों में आवंटित कर सकी. दरअसल क्षेत्र का नेतृत्व इतना निकम्मा रहा कि उसने यहाँ की भूमि व्यवस्था का व्यावहारिक पक्ष कभी सरकार के समक्ष नहीं रखा. Forgotten Pages from the History of Haldwani 41
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से के आधार पर
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