1930 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन का पूरे देश में अलग-अलग स्वरूप था. उत्तराखंड में भी सविनय अवज्ञा आन्दोलन के विभिन्न रूप देखे गये. अल्मोड़े में तो सविनय अवज्ञा आन्दोलन आन्दोलन झंडा सत्याग्रह के नाम से ही दर्ज है.
4 मई 1930 को अलमोड़े के सड़कों पर नवयुवक झन्डा लेकर जुलूस निकालने लगे. पूरे अल्मोड़े में जुलूस निकालने के बाद मोहन जोशी की अध्यक्षता में सभी नन्दादेवी प्रांगण में एकत्र हुये. सभा में मोहन जोशी ने नैनीताल के नवयुवकों में फैली जागृति के विषय में सूचना दी गयी और युवाओं से विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार करने का आह्वान किया गया. मोहन जोशी ने नैनीताल में गिरफ्तार नवयुवकों को बधाई भी दी. इसके बाद शांतिलाल त्रिवेदी ने अपने सारगर्भित भाषण में विदेशी वस्त्र बहिष्कार का प्रतिज्ञापत्र पढ़ा और जनता ने बड़े उत्साह से उस पर हस्ताक्षर किये. 25 मई 1930 के दिन अल्मोड़ा नगरपालिका भवन में राष्ट्रीय झन्डा फहराने का प्रस्ताव सर्वसम्मिति से पारित किया गया.
25 मई को ही नैनीताल में पंडित गोविन्द वल्लभ पन्त की नैनीतल में गिरफ्तारी हो चुकी थी. अल्मोड़ा नगर में पूरे जोश के साथ इसके विरोध में जुलूस निकाला गया. 26 मई के दिन नन्दादेवी प्रांगण में पुनः विशाल जनसभा हुई इस बार सभा की अध्यक्षता शांतिलाल त्रिवेदी ने की.
अंग्रेजों ने पूरे शहर में धारा 144 लगा दी इसके बावजूद झंडा सत्याग्रह प्रस्ताव एक बार फिर पारित हुआ और मोहन जोशी और शांतिलाल त्रिवेदी के नेतृत्व में 150 सत्याग्रही नगरपालिका भवन पहुंचे. नगरपालिका भवन को 80 गोरखा सैनिक मशीनगन के साथ घेरे हुये थे. इस बीच सत्याग्रहियों को शांतिलाल त्रिवेदी रणनीति बता ही रहे थे कि कप्तान ने सत्याग्रहियों को पांच मिनट के भीतर तितर-बितर होने का आदेश दिया और कहा कि ‘तुरन्त यहाँ से हट जायें नहीं तो गोली चला दी जायेगी’. मोहन जोशी ने कप्तान की घोषणा का आगे से बुलंद आवाज में जवाब दिया ‘जो गोली खाने को तैयार हैं वे रुके रहें, बाकी चले जायें.’
मोहन जोशी और शांतिलाल त्रिवेदी के साथ 5 अन्य सत्याग्रही गंगा सिंह बिष्ट, पद्मावत तिवाड़ी, लाला हरिराम, रवीन्द्र प्रसाद अग्रवाल, भुवन चन्द्र वहीं खड़े रहे. मोहन जोशी के हाथों में तिरंगा था और सभी उनके साथ मिलकर ऊंची आवाज में ‘झंडा उंचा रहे हमारा गाते हुये चलने लगे.’ झंडा गान पूरा नहीं हुआ था गोरखा सैनिकों ने मोहन जोशी और शांतिलाल त्रिवेदी पर डंडे बरसाना शुरू कर दिया. जब झंडे को लेकर शुरू खींचतान में गोरखा सैनिक डंडे से सत्याग्रहियों को नहीं संभाल सके तो उन्होंने मोहन जोशी की रीढ़ की हड्डी पर खुकरी से कातिलाना चोट कर दी. शांतिलाल गिर पड़े फिर भी उन पर डंडे से प्रहार जारी रखा गया जिससे उनकी पसली टूट गयी.
अस्पताल पहुचने पर भी सत्याग्रहियों का मनोबल नहीं टूटा उन्होंने अस्पताल से ही नगरपालिका के चेयरमैन ओकले को अल्टीमेटम दिया कि अगर 27 जून तक म्युनिसिपल दफ्तर के बाहर झंडा नहीं फहराया गया तो वे डाडीयों में आकर स्वयं झंडा फहरायेंगे.
सत्याग्रहियों के उत्साह और जनता के समर्थन को देखते हुये नगरपालिका के चेयरमैन ओकले ने तय तिथि से दो दिन पहले ही स्वयं म्युनिसिपल दफ्तर के बाहर झंडा फहराया. मोहन जोशी को इस आन्दोलन की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी 1933 से 4 अक्टूबर 1940 को अपनी मृत्यु तक बीमार और विक्षिप्त रहे. इसका एकमात्र कारण उनकी रीढ़ की हड्डी पर हुआ कातिलाना हमला था.
अल्मोड़ा के सत्याग्रहियों के अनुशासन और सक्रियता को देख मौलाना मोहम्मद अली ने लिखा था कि अल्मोड़ा राष्ट्रीय संग्राम का शस्त्रागार है.
‘ शेखर पाठक की पुस्तक सरफ़रोशी की तमन्ना पर आधारित’
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