उत्तराखंड सरकार का संस्कृति मंत्रालय अपनी संस्कृति को बचाने के नाम पर करोड़ों का वार्षिक खर्च करता है. पोस्टर और अखबारी विज्ञापनों का खर्च इतना होता है कि राज्य में होने वाले छोटे-छोटे तीन-एक मेले इसमें आयोजित हो जायें.
उत्तराखंड के नैनीताल जिले के मैदानी शहर हल्द्वानी से सटी एक जगह है रानीबाग. रानीबाग में हर साल मकर संक्रांति के दौरान मेला लगता है. यह मेला जियारानी का मेला कहलाता है. जियारानी के मेले में उत्तराखंड राज्य के कोने कोने से कत्यूर वंश के लोग शामिल होते हैं.
इस पूरे मेले के आयोजन में प्रशासन की भागीदारी कागजों में तो न जाने कितनी होगी लेकिन जमीन पर शून्य है. माघ महीने की अंतिम तिथि और पूस माह कि पहली तिथि को दो दिन तक चलने वाले इस मेले में हजारों की संख्या में लोग शामिल होते हैं जो पूरी रात रानीबाग में स्थित जियारानी शिला के समीप ही रहते हैं.
सैकड़ों किमी की दूरी से आये इन कत्यूरों के वंशजों के लिए सरकार का एक अदना सा सिपाही तक मौजूद नहीं रहता. पूरी रात तक चलने वाले इस मेले में सुरक्षा के नाम पर पुलिस का सबसे छोटे पद का एक अधिकारी तक नहीं दिखेगा.
जियारानी के इस मेले में बच्चे, बूढ़े, महिला सभी शामिल होते हैं. इनके लिए सुविधा के नाम पर एक भी शौचालय नहीं मिलेगा. लोग पथरीली जमीन पर ठण्ड में लेटे रहते हैं. जागर की आग और मन में जिया का नाम ही उनका सहारा रहता है. स्थानीय ग्राम पंचायत अपने स्तर पर भरसक प्रयास करता है लेकिन बिना जिला प्रशासन की सहायता के वह नाकाफ़ी ही होता है.
इसी दौरान हल्द्वानी के हर मौहल्ले में कुकुरमुत्ते की तरह शुरू हो गए मकर संक्रांति के हर छोटे-बड़े आयोजन को प्रशासन का पूर्ण सहयोग रहता है. इसमें प्रशासन की ओर से न केवल सुविधायें दी जाती हैं बल्कि कई में तो बकायदा सरकारी पैसा बांटा जाता है.
यदि सरकार को ऐसे आयोजनों की जानकारी है तो फिर कैसे हो सकता है कि सरकार को सैकड़ों सालों से हो रहे एक गर्व, गरिमा और भक्ति से ओतप्रोत जिया रानी के मेले की जानकरी न हो. अंग्रेजों के ज़माने के गैजेटियर तक में जिया रानी के मेले का जिक्र मिलता है लेकिन प्रशासन की ओर से जिया रानी के मेले के लिये कोई प्रबंध देखने को नहीं मिलता है. (उत्तराखंड में रानीबाग के जियारानी मेले की तस्वीरें)
हल्द्वानी शहर और रानीबाग के बीच बमुश्किल चार किमी का अंतर होगा. एक ही समय पर आयोजित दो मेलों के प्रति प्रशासन का रवैया कैसे रहता है इसका स्पष्ट उदाहरण यह घटना है. प्रशासन के काम करने के तरीके में ग्रामीण और शहरी का अंतर हमेशा दिखता है. जिसे आप हल्द्वानी शहर में होने वाले उत्तरायणी के आयोजनों और इसी दौरान शहर से लगे रानीबाग में होने वाले जिया रानी के मेले में महसूस कर सकते हैं.
उत्तराखंड जिसका अधिकांश हिस्सा ग्रामीण है उसकी नीति और नियति शहरी पैमानों पर तय होती है. नीतियों के निर्माण में ग्रामीण क्षेत्र को हमेशा दूसरा स्थान मिलता है. जियारानी के मेले में प्रशासन का यह रवैया इस बात का एक उदाहरण है.
कत्यूर वंश के ये वंशज तो इसके लिए प्रशासन से लड़ेंगे नहीं! प्रशासन की यह जिम्मेदारी है कि वह नागरिकों के साथ एक सा व्यवहार करे और सभी की सुरक्षा के इंतजाम करे फिर वे ग्रामीण हों या शहरी.
सरकार के स्वच्छता अभियान में देश का हर हिस्सा शामिल होना चाहिए. इसे केवल शहरी सीमाओं पर समाप्त नहीं हो जाना चाहिये. जिन महात्मा गांधी के नाम पर यह स्वच्छता अभियान चलाया जा रहा है उनके सपनों के भारत के केंद्र में गाँव और ग्रामीण ही था. (कत्यूरियों के समय का है रानीबाग का चित्रेश्वर मंदिर)
जियारानी के मेले में होने वाले स्नान के विषय में प्रशासन को पहले से जानकारी होगी. इसके बावजूद गौला के किनारे किसी भी प्रकार सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं रहती है. इस दिन यहाँ पुरुषों के साथ महिला भी स्नान करती है उनके लिए भी किसी प्रकार की कोई व्यस्था नहीं होती.
यह मेला पिछले कई सालों से मनाया जाता है. न केवल मनाया जाता है बल्कि पूरी शांति व्यवस्था के साथ मनाया जाता है. अलग-अलग कोने से आये कत्यूर वंश के ये लोग शान्तिपूर्ण तरीके से गौला के किनारे अपनी जागर लगाते हैं. पूरी सावधानी के साथ एक दूसरे का साथ देकर सुबह स्नान का पूर्णय लेते हैं.
बिना किसी प्रशासनिक मदद के शांति पूर्ण तरीके से इस मेले के आयोजन के लिये कत्यूर का युवा आधुनिकता की चमक के बावजूद अपनी संस्कृति को संजोकर रखने के लिए आज भी तत्पर है. अपने गाँवों से इतनी दूर आकर ऐसे भव्य मेले के आयोजन के लिये कत्यूर समाज बधाई का पात्र है.
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