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मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो

(पोस्ट को रुचिता तिवारी की आवाज़ में सुनने के लिए प्लेयर पर क्लिक करें)

मेलोडेलिशियस- 6

ये ऑल इंडिया रेडियो नहीं है. ये ज़ेहन की आवाज़ है. काउंट डाउन नहीं है ये कोई. हारमोनियम की ‘कीज़’ की तरह कुछ गाने काले-सफेद से मेरे अंदर बैठ गए हैं. यूं लगता है कि साँसों की आवाजाही पर ये तरंगित हो उठते हैं. कभी काली पट्टी दब जाती है कभी सफेद. इन गानों को याद करना नहीं पड़ता बस उन पट्टियों को छेड़ना भर पड़ता है.

कभी जब मेरा मन यों ही किसी गहरी सोच में डूबा होता है, तो मुझमें अहसासों के कुहासे का एक छल्ला सा उठता है जिसके भीतर होती है भावना से भरी एक भारी और नम रेशमी आवाज़ जो बंद आंखों में एक धुंधली, रूमानी सी तस्वीर बनाती जाती है. यूं ही किसी रोज़ जब अचानक मेरे जीवनसाथी ने उस आवाज़ को मिमिक कर कुछ गुनगुनाया था तो उस तस्वीर का रूमान बेइंतहां बढ़ गया.

शीतल चंदा अग्नि बन गए
कांटे बन गए फूल
प्यार न करना तुम किसी से
प्यार है मन की भूल

वो तस्वीर प्यार, प्यार के मीठे दर्द और संगीत के अनोखे संगम की है. और तन्हाइयों की साथी वो ग़ज़ल की सबसे पुरनम आवाज़ किसी और की नहीं बल्कि मेहंदी हसन की है

मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो
मुझे तुम कभी भी भुला ना सकोगे

मेहंदी हसन ने ग़ज़ल अदायगी को एक नई दिशा दी. ध्रुपद, ख़याल, ठुमरी और दादरा जैसे ठेठ हिंदुस्तानी क्लासिकल संगीत के रागों को सिद्धहस्तता से गा सकने वाले हसन ने उर्दू ग़ज़ल गायकी को इन रागों की बारीकियों के साथ पेश कर नया मुक़ाम दिया. राग भैरवी, असावरी और तोड़ी उनके पसंदीदा राग थे. उन्होंने ख़ासकर के अपने फ़िल्मी नग़मों में वॉयलिन, गिटार और पियानो के साथ ग़ज़ल की प्रचलित विलम्बित (स्लो) की जगह ध्रुत या फास्ट टेम्पो का बेहतरीन और सफल इस्तेमाल किया. कह सकते हैं कि मेहंदी मॉडर्न वेस्टर्न इंस्ट्रूमेंट्स, हिंदुस्तानी शास्त्रीय राग और उर्दू पोएट्री का अद्भुद समागम हैं.

हिंदुस्तान-पाकिस्तान विभाजन में उनका परिवार पाकिस्तान चला गया था और जीविका के लिए मेहंदी ने ऑटो मोबाइल शॉप में मैकेनिक का भी काम किया. एक किस्सा बड़ा मशहूर है कि एक बार किसी शो में वाद्ययंत्र ले जाते समय किसी के हाथ से उनका हारमोनियम गिर कर टुकड़े-टुकड़े हो गया. मेहंदी साहब ने तत्काल औजार मंगाए और उसके पुर्ज़े जस-का-तस जोड़ कर हारमोनियम तैयार कर दिया. उसी तरह से जैसे वो सुर और ताल के सिरों को जोड़ देते हैं, कभी आलाप से तो कभी अपनी आवाज़ की मुलायम कम्पन से.

मेहंदी की गायकी में जो दर्द है वो पोएट्री और शब्दों की बेहतरीन समझ की वजह से है और ये समझ उनके कठोर जीवन अनुभव से समृद्ध हुई है. इनकी आवाज़ में मीर की लिखी ‘रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ’ सुनिए. किसी शायर के लिए ऐसे अल्फ़ाज़ तक पहुंचना उसके हुनर के सबसे जटिल इम्तेहान से गुज़रना होता है जहां पहुंचकर शायद उसे लगता हो उसे अब कुछ कहना बाकी न रहा और जिस तरीके से मेहंदी हसन ने उसे आवाज़ दी है, किसी गायक के लिए अपने गले से इश्क़ हो जाने की बानगी है. मीर अगर उसे सुनते तो उनका कहना भी वही रहता जो साठ के दशक में मेहंदी द्वारा गाई फ़ैज़ अपनी ग़ज़ल ‘गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले’ के बारे में कहते थे कि ‘ये तो मेहंदी हसन की ग़ज़ल है आप उन्हीं की ज़ुबानी सुनिए.’

मेहंदी हसन ने मिर्ज़ा ग़ालिब, मीर, फ़ैज़, क़तील शिफ़ाई जैसे उर्दू के सार्वकालिक महान शायरों की उम्दा गज़लें चुनीं. उर्दू-फारसी की इन गज़लों के मायने बहुस्तरीय होते हैं. ये आसानी से नहीं खुलतीं. गायक के कंधों पर इनकी अदायगी का दारोमदार बढ़ जाता है. अपने जानदार उच्चारण, सुरीली लयात्मकता और सटीक भावाभिव्यक्ति से मेहंदी साहब ने इन गज़लों के मूलभूत विचार को बहुत बारीकी और स्पष्टता से उजागर किया. उनके गाने की एक अलहदा शैली थी. वो शे’र और मिसरे को बहुत छोटे टुकड़ों में काटते और उन वाक्यांशों को अलग-अलग तरीके से, अलग-अलग भाव से और अलग-अलग उतार-चढ़ाव से आपस में ऐसे गूंथते कि उस शे’र में जितने मतलब हो सकते हैं, सब निकल सकें.
रमाकांत गुंदेचा ने उनकी इस ‘फ्रेज़ बाई फ्रेज़ डेवलपमेंट ऑफ ग़ज़ल’ गायकी को ‘स्वभाव से बिल्कुल शास्त्रीय’ कहा है.

इतना ही नहीं उनकी अदायगी में संगीत के मींड, गमक, कान और खटके का सटीक अलंकरण शब्दों के प्रभाव को अर्थ से भर देता था. कहना गलत नहीं है कि उनकी गायकी बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के सुर, लय और दर्द का अद्भुद समागम थी.

‘ऐसा लगता है कि उनके गले में भगवान बोलते हैं’ 1977 में दिल्ली के एक कॉन्सर्ट में उन्हें सुनकर लाता मंगेश्कर ने ठीक ही कहा था.

उनके हुनर का कमाल है ये ग़ज़ल ‘मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो.’ परवेज़ मलिक द्वारा निर्देशित और सोहैल राणा के संगीत से सजी एक क्लासिक रोमांटिक पाकिस्तानी फ़िल्म दोराहा 1967 का ये गाना मसरूर अनवर ने लिखा है.

मेरी याद होगी जिधर जाओगे तुम
कभी नग़मा बन के कभी बन के आंसू
तड़पता मुझे हर तरफ पाओगे तुम
शमा जो जलाई मेरी वफ़ा ने
बुझाना भी चाहो बुझा ना सकोगे

ज़िंदगी, ख़ास तौर पर इश्क़िया ज़िंदगी कभी अराजकता और उथल-पुथल से भरी होती है, तो कभी शांत और खुशनुमा. बिल्कुल झील के पानी की तरह. इस झील में गहरे बैठी हमारी खुशियां, दर्द, डर, कई तरह की मंज़िलें, रास्ते, जीत या शिकस्त अपने माक़ूल वक्त के इंतज़ार में होती हैं. जब मेहंदी हसन इस ग़ज़ल को आवाज़ देते हैं तो एक कंकड़ सा पड़ता है हमारी इन अनछुई भावनाओं पर और हम चाहे किसी भी धर्म, जाति, भाषा के हों इस लरजती आवाज़ से एकमएक हो जाते हैं. और हां, ये भी कतई ज़रूरी नहीं कि आप प्यार में हों.

इस गाने में इश्क़ की तड़प और ठसक दोनों है. मैं तो हर तरफ तुम्हें तड़पता मिलूंगा ही लेकिन तुम भी मेरे प्यार को मिटा भी नहीं पाओगे. आह! कैसी ठसक! कितना गर्व! कितना आत्म-विश्वास!

मैंने पहली दफ़ा कॉलेज के दिनों में जब इसे सुना था तो जिस तरह के जज़्बात उभरे उन्हें शब्द देना बहुत मुश्किल है. ये वो दिन थे जब मैं लूप पर मेहंदी को गुनगुनाते सुन रात भर रो सकती थी.

किसी ने जो पूछा सबब आंसुओं का
बताना भी चाहो बता ना सकोगे

और आश्चर्यजनक रूप से अगली सुबह कुछ ज़्यादा ही ताज़गी से भरी होती थी क्योंकि उस अंधेरे वक्त में मेहंदी की पूरखुलूस आवाज़ एक अजीब सा सुकून देती थी.

इसलिए अगर आप भी बहुत दुःख में हैं, स्ट्रांग कॉफी का एक प्याला उठाइये, कमरे की बत्तियों को मद्धम कीजिये और यूट्यूब से इस गाने को सुनिए… आप अपनी सारी तकलीफों को आंसुओं के साथ बहाकर ताज़ादम हो उठेंगे!

मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो
मुझे तुम कभी भी भुला ना सकोगे
ना जाने मुझे क्यों यक़ीं हो चला है
मेरे प्यार को तुम मिटा ना सकोगे

मेरी याद होगी, जिधर जाओगे तुम,
कभी नग़मा बन के, कभी बन के आँसू
तड़पता मुझे हर तरफ़ पाओगे तुम
शमा जो जलायी मेरी वफ़ा ने
बुझाना भी चाहो, बुझा ना सकोगे

कभी नाम बातों में आया जो मेरा
तो बेचैन हो-हो के दिल थाम लोगे
निगाहों पे छायेगा ग़म का अंधेरा
किसी ने जो पूछा, सबब आँसुओं का
बताना भी चाहो, बता ना सकोगे

मेरे दिल की धड़कन बनी है जो शोला
सुलगते हैं अरमाँ, यूँ बन-बन के आँसू
कभी तो तुम्हें भी ये अहसास होगा
मगर हम ना होंगे, तेरी ज़िन्दगी में
बुलाना भी चाहो, बुला ना सकोगे

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रुचिता तिवारी/ अमित श्रीवास्तव

यह कॉलम अमित श्रीवास्तव और रुचिता तिवारी की संगीतमय जुगलबंदी है. मूल रूप से अंग्रेजी में लिखा यह लेख रुचिता तिवारी द्वारा लिखा गया है. इस लेख का अनुवाद अमित श्रीवास्तव द्वारा काफल ट्री के पाठकों के लिये विशेष रूप से किया गया है. संगीत और पेंटिंग में रुचि रखने वाली रुचिता तिवारी उत्तराखंड सरकार के वित्त सेवा विभाग में कार्यरत हैं. 

उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता). काफल ट्री के अन्तरंग सहयोगी.

देख लो आज हम को जी भर के
महसूस तुम्हें हर दम फिर मेरी कमी होगी
जो मैं जानती बिसरत हैं सइयाँ

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Girish Lohani

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  • जुगलबंदी भायी--
    छुट्टी की शाम, नींबू वाली चाय की खट्टी-मीठी चुस्कियों के साथ, हरी घास पर अधलेटे -- सुनना- सुनते रहना-- "--- कभी भी भुला न सकोगे~~~"

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