2024 का लब्ध प्रतिष्ठित “इरेमस” पुरस्कार प्रख्यात रचनाकार अमिताव घोष को प्रदान किया गया है. यह इस सन्दर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण है कि उनके द्वारा प्रकृति और मानव के सहजता पूर्ण संबंधों की व्याख्या आज के पर्यावरण की समस्याओं एवम उनको सुलझाने के दृष्टिकोण में रची बसी हैं.सबसे महत्व पूर्ण तो यह बात है कि अमिताव घोष परंपरागत सोच पर आधारित उन संकल्पनाओं का समर्थन करते हैं जो गांव देहात में सदियों से चली आ रही हैं. जिन्हें बड़े बूढ़े सयानों के मुख से सुनने का जमाना अब गुजर रहा है.
(Erasmus Prize 2024 Amitav Ghosh)
अमिताव घोष के लेखन में पहाड़ों की समस्याओं का वर्णन मिलता है. विभिन्न पहाड़ी इलाकों के जीवन, संरक्षण और भोगी जा रही कठिनाइयों व समस्याओं पर उनकी पैनी नज़र है. उन्होंने अपने कई लेखों में पहाड़ी समुदायों के जीवन की विविधता के साथ भोगे जा रहे कष्टों का हवाला दिया है. उनकी कई कहानियों में पहाड़ों के नैसर्गिक साधनों के संरक्षण,पर्यावरण की समस्याओं, वन्य जीव संरक्षण और पहाड़ी समाज में स्थायित्व के मुद्दे पहाड़ों के विकास और प्रकृति के बचाव के माध्यम को आधार बना कर रचे गये हैं. उन्होंने लोक थात को समायोजन का महत्वपूर्ण कारक माना है. लोक पर्व और लोक संगीत की समरसता को किसी इलाके के गुणात्मक उन्नयन के लिए जरुरी समझा है.
अपने लेखों व उपन्यासों में अमिताव घोष भारत की कई पर्वत श्रृंखलाओं का सजीव वर्णन करते हैं जिनके जीवन, संस्कृति व पर्यावरण मुद्दों को आधार बना वह समस्याओं को समाधान की ओर ले जाने की पुरजोर कोशिश करते हैं. उन्होंने जहां हिमालय के प्राकृतिक सौंदर्य, यहां के जीवन व इसके पर्यावरणीय महत्त्व को अपने लेखों में वर्णित किया वहीं अरावली श्रेणी के प्राकृतिक व सांस्कृतिक धरातल का उल्लेख किया. इसी तरह वेस्टर्न घाट की जलवायु, वन्य जीव और भूगर्भ विविधता व केरल के समुद्र तट के व्यापक पहाड़ी क्षेत्र “एयरलैंडस” की ऊँची चोटियों, घाटियों और घास के मैदान का जिक्र किया. यहां के पर्यटन से वह खासे प्रभावित हैं जहाँ वन्य जीव व स्थानीय संस्कृति का खासा योग दिखाई देता है. यहां के वन्य जीव संरक्षण के कई मुद्दे वह उठाते हैं, खास कर लीजर्ड्स, बर्ड्स व अन्य प्राणियों के आवास प्रवास की समस्या के साथ इस पहाड़ी श्रेणी में पारिस्थिकी अनुकूलन व भू संग्रणीय प्रक्रियाओं के बारे में वह बताते चलते हैं.
अमिताव घोष ने अपने उपन्यासों के साथ विभिन्न विषयों पर विचारपूर्ण व प्रेरणा दायक लेखन किया. उनका जन्म 11 जुलाई 1956 को कोलकाता, पश्चिम बंगाल में हुआ. उन्होंने भारतीय साहित्य व अंग्रेजी में स्नातक व मास्टर्स की उपाधि प्राप्त की. वह अपने विविधता पूर्ण लेखन से प्रसिद्ध हुए जो एक ओर प्रकृति तो दूसरी ओर मानव की संवेदनशील प्रवृति का बोध कराते उन धारणाओं की ओर ले जाता था जिनके पीछे इतिहास का अवलोकन, समाज की व्यवस्था और पर्यावरण के पक्ष महत्वपूर्ण बने रहे .
उनके मुख्य उपन्यासों में ” द सर्किल ऑफ रीजन “(1986),”द शैडो लाइन्स”(1988),”द केलकटा क्रोमोजोम”(1995),”द ग्लास पैलेस”(2000),”द हंगरी टाइड”(2004),”सी ऑफ पॉपीज”(2008),”रिवर ऑफ स्मोक”(2011),”फ्लड ऑफ फायर”(2015)व “गन आइलैंड”(2019) इत्यादि हैं.उनका लेखन विविधता पूर्ण, संवेदना से भरा व मानव व प्रकृति के समायोजन की परिधि में श्रृंखलाएं जोड़ते अद्वितीय दृष्टिकोण से भरा है जो भावुक भी करता है और तर्क की कसौटी पर भी खरा उतरता है.
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अमिताव घोष पर्यावरण के मुद्दों को वरीयता देते हैं. वह बार बार उन बातों को उठाते हैं जिनमें एक स्थान विशेष के समाज की गतिविधि वहां के भूगोल से प्रभावित होती है व जन जीवन की गतिविधि का संचालन करती है. उनकी अधिकांश किताबें पर्यावरण की विविधता, प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन और जलवायु की समस्याओं पर आधारित हैं.
उनकी मुख्य किताबों में “द हंगरी टाइड” और “द ग्रेट डिरेंजमेंट क्लाइमेट चेंज एंड द अनथिंकेबल” हैं जिनमें पर्यावरण के मुद्दे साफगोई से उठाए गये हैं.”द हंगरी टाइड” में वह सुंदरवन के जलवायु परिवर्तन और उपज रहे मानवीय संघर्ष की व्यथा कथा लिखते हैं तो “द ग्रेट डिरेंजमेन्ट” में उन्होंने मौसम के अवांछित बदलाव से हुए कोप की कहानी सुनाई है.
साहित्यिक कल्पना कब और कैसे यथार्थ में होती दिख जाती है यह उनकी सोच का जादू है जो उनके प्रेरणा दायक लेखन, उसकी गंभीरता और गहराई और परिस्थितिकीय मुद्दों के प्रति जागरूकता तो उत्पन्न करता ही है तो साथ ही यह सोचने को विवश भी करता है कि कैसे और किस तरह हम अपने समाज को समायोजित कर सकते हैं जिससे पारिस्थितिकी का वह स्वरूप सामने आए जो आघात व अपरदन से मुक्त हो.
अमिताव घोष ने जलवायु परिवर्तन से उपजी समस्याओं को बार-बार अपने लेखों, किताबों में उठाया है. हर बार मौसम की प्रतिकूलता का पक्ष एक गंभीर व संकट उत्पन्न कर रही समस्या बन जाता है व हमारे प्रकृति दत्त संसाधनों के कुटिल दोहन को खलपात्र बनाता है. आर्थिक विकास के लिए किये गये छेड़ छाड़ कैसे समाज में संरचनात्मक गतिरोध पैदा करते हैं जैसी कथा यहीं से शुरू होती है. विकास की प्रक्रिया के फायदे कब और कैसे बहुत कुछ गंवा गये इनका एहसास कराता उस त्रासदी का चित्रण सामने आता है जो बार बार हमारे सामने आती रही है. उनका मुख्य विचार बस यह है कि हम जलवायु परिवर्तन के बड़े और लम्बे समय तक जारी कुप्रभाव पर न तो ध्यान दे रहे और अपने थोड़े फायदे के लिए हो रहे दीर्घकालिक नुकसान की हमें फिक्र ही नहीं. वह बार- बार यही कहते हैं,जताते हैं कि जलवायु परिवर्तन हमारे समुदाय, विविधता और वन्य जीवों के साथ बने तालमेल की जीवन शैली को खतरे में डाल रहा.
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उन्होंने विभिन्न कारणों की बात उठाई है जो जलवायु परिवर्तन की समस्या को गहराते हैं.इनमें सबसे पहले आता है अत्यधिक उपभोग. वही उच्च उपभोग जो आर्थिक विकास के मॉडल में सम्पन्नता की निशानी है जिसके लिए प्राकृतिक संसाधनों से जबरन छेड़ छाड़ की जाती रही. ज्यादा उत्पादन करने की संरचना ने प्रकृति को आघात दिए और देती रही. इस बात से बेखबर रहा गया कि एक अदृश्य असंतुलन पैदा हो चुका है और तंत्र इसके खतरों के प्रति बेपरवाह व संज्ञा शून्य हो चला है. यह अदृश्य असंतुलन जो भांपे उनकी आवाज कहीं दब गई खो गई. नई लहर इस तेजी से चकाचोंध करती फैलती है कि लोगों को यह दिखाई ही नहीं देता कि क्या कुछ अलोप हो गया. इस उदासीनता के माहौल में वह याद दिलाते हैं कि जलवायु जो बदल रही इसके जो खतरे प्रकट हो रहे उनके पीछे कब से चली आ रही मानवीय भूल का वह सिलसिला है जिसे अनदेखा किया गया.
अमिताव घोष ने विशेष रूप से पारम्परिक साहित्य और धार्मिक साहित्य को जलवायु परिवर्तन के समाधान के रूप में आगे बढ़ाने की जरुरत को समझा है. उनके अनुसार हमें अपनी सोच और कृतित्व को परिवर्तित करने की अवश्यकता है ताकि हम समाज को जलवायु परिवर्तन के बुरे प्रभावों से बचा सकें और जो घट रहा है उस पर किसी हद तक रोक लगाने की पहल कर सकें. यही वह समय है जब इस बात को ले कर गंभीर हो जाना है कि ये खतरे ऐसी महामारी है जिसकी चपेट में आ प्रकृति के संहारक रूप दिखाई देते हैं और वह दिख रहे हैं. इस पहेली को सुलझाना तब ही संभव है जब हम लोक थात को जानें उसे समझें और उन लोक परंपराओं का अनुसरण करें जिन्हें पुरानी पीढ़ी ने संजो कर रखा था अपने सहज रूप में, बड़ी सरलता के साथ,पर हमने भुला दिया.
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अमिताव घोष के अनुसार लोक साहित्य व लोक थात जलवायु परिवर्तन से उपजी समस्याओ के समाधान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं. ऐसे कई पक्ष इनके भीतर निहित हैं जिससे कई चिंताएं मिट सकतीं हैं, कई भ्रान्तियां हटाई जा सकती हैं. जैसे कि इनके द्वारा –
(1) प्रेरणा और जागरूकता का संवाद स्थापित किया जाना संभव है. धार्मिक व आध्यात्मिक ग्रंथों की पारम्परिक कथाओं में प्रकृति पूजनीय है. लोग यह मानते हैं पर करते इसके विपरीत हैं. वाह्य पूजा पर जोर है मर्म तो समझे नहीं. जल-जमीन और जंगल के साथ जो अनाचार होता रहा वह भी सामने है. सही मायने लोक संस्कृति ने समझाये जिसे बना बचा कर अपना परिवेश सुरक्षित रखना वनवासी जानते रहे पर उनकी पारम्परिक दिनचर्या पर बाहर से दबाव डाले गये.
(2) धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रंथों और पारम्परिक कथाओं के माध्यम से जलवायु पर प्रभाव डालने वाले उन कारकों की समझ साफ होती है जो प्राकृतिक संसाधनों को बनाए बचाये रखने की सीख देते हैं पर अक्सर इनकी अवहेलना की जाती है. प्रदूषण इनका नतीजा है जिसके लिए मानव समाज उत्तरदायी है. लोग इसे गहराई से समझ सकें इसके प्रयास किये जाने हैं जिससे उन्हें समाधान की दिशा में प्रेरित किया जा सके. धार्मिक ग्रंथों की सीख और मूल्यों की भूमिका महत्पूर्ण है जो हमें प्राकृतिक संसाधनों का सम्मान करने व संरक्षण के लिए उत्साहित कर सकती है. यहां प्रचलित कर्मकांड को बदलने की भी जरुरत है जिनके चलते व्यापक स्तर पर प्रदूषण होता है. समाधान पाने के लिए की जा रही पारम्परिक तौर तरीकों में वर्तमान की समस्या को सुधारने की जरुरत के प्रसंग में देखा जाना जरुरी है.हर समाज में जीवन यापन व मनुष्य द्वारा संपन्न गतिविधियों में धार्मिक अभ्यास प्रचलित तो हैं पर केवल स्थूल पूजा तक. उसका मर्म आम जन तक पहुंचाने की कोशिश लगातार इनकी चर्चा व लेखन से संभव है.
(3) सामाजिक संगठनों द्वारा किये प्रयास जरुरी हैं. पारम्परिक समाज के संगठन, मंदिर, पीठ, गुरुकुल आदि के माध्यम से जलवायु परिवर्तन की समस्याओं को दूर करने के लिए सामाजिक प्रयास संभव हैं. ऐसे प्रयास हुए भी हैं पर एक सीमा के बाद यह भी आडम्बर और ढकोसलों से प्रेरित दिखते हैं जिनका मुख्य विचारधारा से गहरा विचलन होता है. ऐसे में मुख्य दृष्टिकोण को सामने रख साफ सफाई, रखरखाव व गंदगी को दूर करने की पहल जरुरी होती है. इसे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिए धार्मिक व सांस्कृतिक आदान – प्रदान के साथ सम्मिलित किया जाना चाहिए. ऐसे प्रयासों के माध्यम से पारम्परिक साहित्य और धार्मिक विचारधाराएं जलवायु परिवर्तन की समस्याओं को स्थान विशेष में जागरूकता पैदा कर समाधान हेतु सकारात्मक योगदान करती रही हैं और करेंगी भी.
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अमिताव घोष अपने लेख व वार्तालापों में हिन्दू धर्म के अनेक उदाहरण लेते हैं. उन्होंने वेदों में प्रकृति के सम्मान की बात रेखांकित की.यह स्पष्ट किया कि वेदों में वृक्ष, जल, वायु और उपलब्ध हर भौतिक संसाधन की महत्ता समझाई गई है व इनके सम्यक उपयोग पर विचार इस दृष्टि से किया गया है कि समस्त संसाधन संरक्षित रहें. विदोहन से उनका क्षरण न हो. धार्मिक पर्व व त्यौहार भी प्रकृति के साथ साझा हैं. हर ऋतु के आने पर उत्सव हैं जो ऐसे माध्यम बने जिनसे धार्मिक आस्थाओं व सांस्कृतिक अभ्यास को प्रकृति के साथ जुड़े रहने की प्रेरणा मिली . हिन्दू धर्म में प्राकृतिक परिस्थितियों का सम्मान एवम संरक्षण किया जाता रहा. प्राकृतिक तत्वों को देवता के रूप में माना जाता रहा, उन्हें पूजा गया. पहाड़, नदी, वन-वृक्ष सब आराध्य हैं जिनके पीछे उनको संरक्षित रखने की धारणाएं-संकल्पनाएं-मान्यताएं थीं. बौद्ध धर्म में अहिंसा, सहानुभूति और प्रकृति के प्रति सम्मान के मूल तत्व हैं. इसका अभीष्ट निर्वाण है. बुद्ध के सिद्धांत इस पक्ष को सामने रखते हैं कि कि जगत में पाए जाने वाले सभी जीवों के बीच आपसी सम्बन्ध हैं और हमें प्राकृतिक परिस्थितियों के साथ सहयोग करना चाहिए. जैन धर्म सभी जीवों के प्रति सहानुभूति और सम्मान का आधार लेते हुए वन्य जीवन के संरक्षण, जल संरक्षण व वनस्पतियों के संरक्षण की बात करता है. भौतिक लालसाओं ने जब इस मूल विचार को ही खंडित किया तो अवक्षय भी हुआ व भौतिक रूप से समृद्ध बनने के तीव्र आघात भी सामने आए. विकराल रूप से जलवायु परिवर्तन के झटके और महामारी के उदाहरण प्रकृति द्वारा की गई प्रतिक्रिया है जिसके आगे मानव हताश व बेबस दिखाई दिया.
घोष बताते चलते हैं कि इस्लाम में जलवायु परिवर्तन के समाधान का समर्थन करने व इसे प्रेरित करने के तत्वों में “अल-खिजर” पेड़ पौधों के प्रति समर्पण को दिखाता है. खिजर या खजूर को बड़ी अहमियत के साथ इस्लामिक संस्कृति में देखा जाता है. पेड़ पौधों को बचाने का रिवाज है तो पानी को उफाइये या अदा किये गये कर्ज के रूप में देखा जाता है. ख़ुदाइ यानी धरती को उत्तरोत्तर खोदने को बल दिया गया है जिससे पानी का संचय बना रहे और प्रकोपों के समय सावधानी से उपयोग हो.ईसाई धर्म में प्राकृतिक संसाधनों को परमेश्वर के उपहार के रूप में व्यक्त किया गया जिन्हें संरक्षण देना इस उपहार के साथ सहयोग करना है.
सभी धर्मों के मूल विचारों के दार्शनिक विश्लेषण व परंपरागत रीति रिवाजों के उदाहरणों को अपने निजी अनुभवों से साझा करते उनकी साहित्यिक प्रेरणा समय समय पर प्रकृति से की गई छेड़-छाड़ की गंभीरता के चित्र खींचती है. “द ग्रेट डिरेंजमेन्ट क्लाइमेट चेंज एंड द अनथिंकेबल” में वह प्रकृति के संहार से उत्पन्न जलवायु के परिवर्तन के प्राकृतिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहलुओं को उठाते हैं और यह साफ जताते हैं कि हमें इसे क्यों गंभीरता से लेना है. सवाल भी उठाते हैं कि इसे समझने में अधिकांश जन समूह बेबस व लाचार क्यों है? अपने प्रसिद्ध उपन्यास “हंगरी टाइड” में उन्होंने बंगाल की खाड़ी के किनारे के प्राकृतिक स्थल सुन्दरवन के भयावह व अनसुलझे रहस्यों का चित्रण किया है जिसकी जाँच करने एक युवा वैज्ञानिक व नर्तकी पहुँचते हैं. ये दोनों उस समय सुन्दरबन में रहते हैं जब प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप चरम पर है तथा स्थानीय लोग प्रकृति के संहार से बचने के लिए अपनी जान की बाजी लगाते दिखते है. इस कहानी में सुन्दरबन की आपदा का एक ही निदान एक ही हल नहीं है बल्कि इसमें उस साझेदारी और समुदाय के आपसी सहयोग की कड़ियाँ जोड़ी गईं हैं जिनसे प्रकृति के द्वारा किये विनाश को आपस में मिलजुल कर समायोजित किया जा सकता है. उनके उपन्यास “गन आईलैंड” में एक व्यापारी व भारतीय अध्यापक के बीच का अंतर्विरोध है जिनके साथ कई अंतर्कथाऐं चलती हैं.
यह प्राचीन और समकालीन कथाऐं जातिवाद, धर्म और पर्यावरण के मुद्दों को इतिहास और मानवीय जागरूकता के उदाहरणों से सुलझाने की राह दिखाती हैं, इसका आधार भी प्राकृतिक संसाधनों की लूट को रोकना व प्रकृति को सुरक्षित रखना है. साहित्यिक वार्तालाप के जरिये अन्याय के विरुद्ध मोर्चा खोलने की जरुरत का संदेश इसमें निहित है. यह सब कई भूली बिसरी कथाओं के ताने बाने में लिपटा कर बहुत सशक्त शैली में परोसा गया है.” गन आईलैंड में प्रमुख रूप से बंगाली साहित्य व भारतीय लोक थात की कथाएं पिरोई गईं हैं.
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बंगाली लोक की कुछ कथाओं में “बोन बिबीर पाड़ा” का जिक्र है जिसमें सुन्दरबन की देवी बोन बिबी वहां के वनों की संरक्षक है तो वहां के मानव व जानवरों की भी रक्षा करती है. उनकी आराधना उनकी पूजा व उनके प्रति समर्पण सुंदर बन के निवासियों में आस्था जगाता है. मुख्य हैं, वह घटनाएं जो जातिवाद, पर्यावरण संरक्षण और मानवीय सहानुभूति के मुद्दों को गहराई से उठा डालती हैं. बोन बिबी को ऐसा प्रतीक बनाया गया है जो जंगल के वातावरण व वनवासियों के बीच अनूठा रिश्ता बना डालता है.
“बोंदेलकार” की कथा में संत बोंदेलकार का वर्णन है जो सुन्दरबन के निवासियों में धर्म, नैतिकता और संस्कृति के संदेश का बीज रोपते दिखते हैं. संत अपने विचारों, उपदेशों और उपासना के माध्यम से स्थानीय निवासियों को सशक्त बनाते हैं, धार्मिक व नैतिक मार्गदर्शन प्रदान करते हैं.वह प्रकृति की रक्षा के साथ संसाधनों के प्रयोग में अनुशासन व सामाजिक न्याय के संचालन की बात जन-जन तक पहुँचाते हैं. ऐसे आध्यात्मिक व सामाजिक उत्थान को प्रेरित करने वाला संत संगीत की परम्परा और उनके रहन-सहन की क्रियाओं के साथ धार्मिक क्रियाओं और लोक थात का आश्रय लेता है.
“पांडव की गाड़ी” भी ऐसी ही एक प्रचलित बंगाली लोक कथा है. इस कथा में महाभारत काल में पांडव अपने गुप्त होने के काल में सुन्दरवन के जंगलों में गाड़ी के द्वारा यात्रा करते हैं. उनकी यात्रा वनों के बीच से गुजरती है. उनके सामने पहचान जाहिर न होने की समस्या है.ऐसे में उनके पास साधन भी अल्प हैं जिससे उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. सुन्दरबन की स्थानीय संस्कृति और इतिहास को दोहराते जहाँ यह कथा पाण्डवों की वीरता, साहस और धर्म के प्रति निष्ठा को प्रकट करती है वहीं स्थानीय निवासियों के द्वारा प्रकृति व उसके रखरखाव की घटनाओं को प्राकृतिक संरक्षण के साथ जोड़ती है.
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उनका रचना संसार अचानक ही बड़े घातक व संहारक रूप से उभर आए उन वैश्विक संकटों के सन्दर्भ का हवाला देते हुए अपनी बात सामने रखता है जिसने मानव के अस्तित्व के प्रति निराशा का वातावरण खड़ा कर दिया. दुनिया भले ही अद्यतन शोध व अनुसन्धान के बल पर इस व्याधि का मुकाबला कर गई हो पर अब लम्बे समय से चली आ रही उन परेशानियों ने विकराल रूप लेना शुरू किया जो अचानक ही उभर रहे मौसम के बदलाव से जुड़ी थीं. विश्व के हर कोने में ये समस्याएं उभरती गईं और देखते ही देखते जलवायु परिवर्तन एक बड़ा मुद्दा बन गया. यह तो स्पष्ट था ही कि जलवायु परिवर्तन के पीछे असंतुलित विकास की वह नीतियाँ जिम्मेदार थीं जिन्हें उच्च वृद्धि दरों की लक्ष्य विकास दर को पाने के लिए तब से अपनाया जाना शुरू कर दिया गया था जब से द्वितीय औद्योगिक क्रांति आरम्भ हुई थी.
अमिताव घोष की चिंता यह है कि दुनिया में प्रकृति से छेड़छाड़ के इतने ख़तरनाक परिणाम अब सामने आ चुके हैं जिनकी हमने कल्पना भी न की थी.अब तो लगता है कि स्थितियां लगातार खराब होंगी और ऐसी दशाएं सामने आएँगी जिनकी हमने कल्पना भी न की. यह अस्तित्व का संकट है. प्रकृति ऐसे झंझावत लिए अपने रूप लगातार दिखा रही है जिससे भविष्य असमंजस और अनिश्चितता से भर उठा है. बेमौसम बहुत बारिश है, बादल का फटना है हिमनद का सिकुड़ना है. जंगलों में लगने वाली आग है. इन सब के पीछे कहीं न कहीं मनुष्य के द्वारा की गई वह सारी गतिविधियां हैं जिन्हें वह प्रगति की चाह में विकास के नाम पर करता है. वह किसी इलाके की धारक क्षमता की परवाह नहीं करता, अपना बसाव बढ़ाते जाता है उसे अवलम्बन क्षेत्र की परवाह नहीं. उसे जंगल में रह रहे प्राणियों की परवाह नहीं जिनके विचरण इलाके पर उसने बलात कब्ज़ा किया है.अब गांव कस्बे की परिधि से हट वनचर जब शहर की आबादी तक आ धमके हैं, आदम खोर घोषित हो गये हैं तो फिर रोज ही या रह-रह कर खबर आती है कि गुलदार ने बाघ ने दिन दहाड़े आक्रमण किया, हाथी ने पटक पटक कर मार डाला. बुजुर्ग बताते थे कि ऐसी घटनाएं पहले भी होती थीं पर उनकी बारम्बारता बहुत कम थी. अब प्रचार प्रसार का जमाना है ये घटनाएं सुर्खियां बनते देर नहीं लगती.वन चर का इलाका सीमित करता मनुष्य अब उसे बैरी बना गया.
(Erasmus Prize 2024 Amitav Ghosh)
अमिताव घोष ने ऐसे पक्ष ध्यान में रख अपनी बात सामने रखी है कि जलवायु का संकट एक सांस्कृतिक संक्रांति है जो कल्पना की कमी से उपजती है. ऐसे ही विचार ट्रेवर नोह, ए एस ब्याट व बारबारा एहरीनरिच जैसे लेखकों की दंत कथाओं में कही गईं हैं जिनका उन्होंने अनुसरण किया है.
मानविकी, समाज विज्ञान व कला के क्षेत्र में किये उल्लेखनीय योगदान के लिए 1958 से हर वर्ष 150,000 यूरो का नकद इरेमस पुरस्कार प्रदान किया जाता है जो 2024 मेंअमिताव घोष को प्रदान किया गया जो कि अपने उपन्यासों “द शैडो लाइन्स”, “द हंगरी टाइड” तथा ईबिस ट्रॉयलॉजी’ से नाम कमा चुके थे.
उपन्यासों से हट उनका गैर काल्पनिक कार्य, “द ग्रेट डिरेंजमेन्ट है. वर्ष 2018 में उन्हें भारत के सर्वोच्च साहित्यिक ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से प्रतिष्ठित किया गया.यह पुरस्कार उन्हें “गन आईलैंड के लिए मिला. इसी पुस्तक को 2018 में जे सी बी प्राइज फॉर लिटरेचर भी मिला तो सन 2020 में प्री मेडिसिस एट्रँजे पुरस्कार . सन 2015 में उन्हें उनके कहानी संग्रह “फ्लाइंग चांगोभ” के लिए फ्रैंक ओकानर अंतर्राष्ट्रीय शार्ट स्टोरी पुरस्कार के लिए लॉन्ग लिस्ट किया गया था. इसी कहानी संग्रह को सन 2016 में रॉयल कॉलेज ऑफ आर्ट्स फेलोशिप के लिए अनुप्रस्थित किया गया.2017 में उनके कहानी संग्रह ” यू डी” को डेली टेलीग्राफ ने शॉर्टलिस्ट किया. सन 2016 में क्रॉसवर्ड बुक अवार्ड उन्हें उनकी रचना “फ्लाइंग चांगोभ” के लिए प्रदान किया गया. इसी कृति के लिए उन्हें बंगलादेश का अनंत पुरस्कार भी दिया गया.
धरती के प्रायदीपों और सागर के विशाल परिदृश्य को समाहित करते उनका रचना संसार एक तरफ ऐतिहासिक पुनरावलोकन करते सामने आ रही जटिल समस्याओं का परीक्षण करता है तो दूसरी ओर वह पत्रकारिता में ज्वलंत समस्याएं उठाते समसामयिक लेखों की श्रृंखला प्रस्तुत करते रहे हैं. उनका सृजन गहन शोध, खोजबीन, बातचीत के साथ अभिलेखीय अनुसन्धान पर आधारित रहते प्रामाणिक सन्दर्भ बन जाता है. उनकी प्रसिद्ध पुस्तक “द हंगरी टाइड ” पर इसी नाम से सन 2021 में बंगाली फ़िल्म बनी जिसका निर्देशन रितुपर्णो घोष ने किया. पटकथा भी उन्हीं ने लिखी. इस फ़िल्म में अविक मुकर्जी ने छायांकन किया तथा ज्योतिषमय विश्वास ने संगीत दिया. इसके मुख्य कलाकार सोहम चटर्जी, रुपाली गाँगुली, मित्र मुखर्जी, मेघा, सुप्रिया, व प्रोमित मुखर्जी थे.
(Erasmus Prize 2024 Amitav Ghosh)
इससे पहले सन 2016 में “द ग्रेट डिरेंजमेंट” पर डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बनी जिसका निर्माण व निर्देशन संजीव शंकर ने किया था. यह फ़िल्म जलवायु परिवर्तन और उसके पर्यावरणीय, सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं पर बहस करती थी. जलवायु के बदलने से आम जन क्या भोगता है, उसकी सोच किस दिशा में बदलती है और व्यापक जनजीवन पर कौन से खतरे मंडराते हैं जैसे पक्ष इसके कथानक के मूल थे. सबसे मुखर पक्ष तो उन कारणों पर की गई चर्चा थी जो हमें जलवायु परिवर्तन के बारे में सोचने से रोकते हैं जिन्हें समझे बिना इसके खतरों का सामना किया जाना संभव नहीं.
जलवायु परिवर्तन के बारे में समझ न देने वाले कई मुख्य कारणों में सबसे मुख्य आर्थिक लालच है. आर्थिक स्थितियों और व्यावसायिक मुद्दों को ऊँचा प्रतिमान देते हुए हम जलवायु के बदलाव व धीमी पर क्रमिक प्रतिगामी गति को अनदेखा कर डालते हैं. जब इनका बड़ा धक्का लगता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.
फिर राजनीतिक संघर्ष हैं, युद्ध है, आतंकवाद, विगलित राजनीति है,जिनके लपेटे में घिर अल्पकालिक समस्या के निदान में उलझ कर रह जाना ही नियति बन जाती है. फिर लोगों को विज्ञान की सत्यता पर विश्वास नहीं होता, ऐसे में जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में विज्ञान के साक्ष्य को स्वीकार करने में जड़ता भरा माहौल बन जाता है
सबसे बड़ी बात तो यह कि परंपरा से चली आ रही सामाजिक मान्यताओं, धार्मिक विश्वासों व सांस्कृतिक घटकों का रूप इतना विकृत हो चुका होता है कि प्रकृति की रक्षा करने का मूल भाव ही विलुप्त हो जाता है व नए किस्म का व्यवसायिक कर्मकांड पनप जाता है.
(Erasmus Prize 2024 Amitav Ghosh)
अमिताव घोष ने जलवायु परिवर्तन जैसे गंभीर पक्ष पर लोगों को चेताया तो प्रवास के कारणों के साथ प्रवासी की समस्याओं को भी सामने रखा. आज इस प्रक्रिया में सांस्कृतिक पहचान के मुद्दे भी उठे हैं जिनसे गहरा असमंजस उपज रहा है. सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह विकास की प्रक्रिया में मानवीय कारकों का महत्त्व बड़ी गहरी शोध के साथ करते हैं जिसमें परंपरागत मूल्यों व आस्था का समावेश उन्होंने पूरी रचनात्मक स्वतंत्रता से किया है. उनका साहित्य पढ़ते कई बार ऐसा लगता है कि दादी कोई कहानी सुना रही और घर के सयाने चिंतित हैं कि जो बदलाव मौसम में दिख रहा वह कहीं परिवार के बुरे हाल न कर दे. इससे न बचे तो फिर तो पूरा इलाका है प्रदेश है देश है जो कोप भोगेगा.
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