स्कूल में कॉलेज के लड़कों और महिलाओं के जुलूस के जत्थे आने की धुंधली तस्वीरें याद हैं. दूर से आती नारों की गूंज या जनगीतों की आवाजों का मतलब हमारे लिये स्कूल की छुट्टी से ज्यादा कुछ नहीं था. 2000 में उत्तराखंड बनने के बाद आवाज़ें कम होती गयी हमारे बड़े होने तक सन्नाटा था. उत्तराखंड राज्य बनाने वालों और 90 के दौर में पली-बढ़ी पीढ़ी के बीच एक लम्बी दूरी महसूस होती है.
(Devbhoomi Developers Book Review)
उत्तराखंड में 90 के दौर में पली-बढ़ी पीढ़ी के मन में कई सवाल हैं मसलन उत्तराखंड के स्थानीय दलों की दुर्गति क्यों हुई, छोटे-छोटे मुद्दों पर सड़क पर उतरने वाले युवा और महिलाएं कहाँ गायब हो गये, शराब विरोधी आन्दोलन करने वाले राज्य की आय का सबसे बड़ा हिस्सा शराब से कैसे आता है, उत्तराखंड की राजधानी पहाड़ों में क्यों नहीं है, हम इतने चेतना शून्य कैसे हो गये हैं और भी बहुत से.
इन सवालों का सही जवाब खोजने जितना समय हम लोगों के पास नहीं है. पैदा होने के साथ ही हमको भागना और कम्पीट करना सिखाया गया है फिर भी जिन्हें फुर्सत हो या कोई उत्तराखंड राज्य की बदहाली के कारणों को समझना चाहता है तो वरिष्ठ सम्पादक नवीन जोशी का उपन्यास ‘देवभूमि डेवलपर्स’ पढ़ा जाना चाहिये.
(Devbhoomi Developers Book Review)
बींसवी सदी के अंतिम दो दशक और इक्कीसवीं के पहले दो दशकों में उत्तराखंड को नौ शीर्षकों में विभाजित कर एक उपन्यास के रूप में पिरोया गया है. विरोध, आक्रोश, उम्मीद, आकांक्षा, स्वप्न से होता हुआ यह उपन्यास लालच, लूट-खसोट, नाउम्मीदी, मोहभंग और स्वप्न-ध्वंस पर समाप्त होता है.
मनखी कम होते गये, मंदिर में घंटियाँ बढ़ती गयी.
उपन्यास के शुरुआती पन्नों में श्याम बड़बाज्यू की यह पंक्ति राज्य में पलायन की स्थिति पर सबकुछ कह देती है. उपन्यास में श्याम बड़बाज्यू और हंसा आमा के गांव छोड़कर जाने का एक दृश्य है. अपने पढ़े-लिखे बेटे के साथ जाने का दोनों का मन नहीं है. हंसा आमा गांव की सबसे बुजुर्ग है ढोक देने आई गांव की महिलाओं ने बहुत देर लगा दी है. बेटे भगवत ने इस नाटक से चिढ़कर ‘जल्दी करो जल्दी करो’ की रट लगाई है. हंसा आमा अपने आंचल में रखे अक्षत देहरी पर छिड़कती है. श्याम बड़बाज्यू किसी को रोने का मौका नहीं देते, नौलिङ् ज्यू के मंदिर गये, देव पूजे और उल्टे पाँव मंदिर परिसर से निकले. ऐसा ही तो होता है न पहाड़ में.
(Devbhoomi Developers Book Review)
टिहरी झील के लाखों फायदे गिनाये जा सकते हैं कभी बोट तो कभी सबमरीन चलाये जाने वाली बातें हम सुनते देखते ही आ रहे हैं पर उपन्यास के पात्र सुरेन्द्र के सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है-
हमारे इस अद्भुत शहर को एक डाम के लिये कोई कैसे डुबो सकता है दद्दा. सिर्फ इसलिए कि दिल्ली को पानी और बिजली चाहिए?
गैरोला जी का यह कथन टिहरी के लोगों का सारा दर्द कह देता है-
क्या करूंगा इस देहरादून में? कोई अपना नहीं, पड़ोसी से भी जान-पहचान नहीं. यहां अपना यह सैण, बड़ी मेहनत से लगाया बगीचा, भाई बिरादर, दोस्त पुराने-नए… मेरी भागीरथी और भिलंगना का संगम…
शराब माफियाओं से लड़ने वाले पत्रकार उमेश डोभाल प्रकरण पर तफ्तीश से लिखा गया है. टिहरी बांध और उमेश डोभाल प्रकरण को पढ़ने के बाद कई सारे सीधे सवाल दिमाग में रह जाते हैं. टिहरी से विक्रम की चिठ्ठी की आखिरी पंक्ति इन सवालों के जवाब ढक देती है-
गुस्सा आना बंद हो गया है भैजी. सिर्फ करुणा बची है. कभी आकर टीरी का विलाप सुन जाओ भैजी.
उम्मीदों से भरा एक बड़ा समय राज्य आन्दोलन के समय का है. राज्य आन्दोलन के दौर को उपन्यास में बड़ी साफ़गोई से बयाँ किया है. आन्दोलन से जुड़े नेताओं की कमियों पर बात करने से लेखक ने कोई गुरेज नहीं किया है. राज्य आन्दोलन का ईमानदार वर्णन ही लालच में डूबते नवीन राज्य की असल भूमिका तैयार करता है.
(Devbhoomi Developers Book Review)
उपन्यास का आधा भाग उत्तराखंड की राजनीति पर है जिसे पढ़कर केवल मुठ्ठी भींचकर कहा जा सकता है- आखिर और कितना. उत्तराखंड की राजनीति में भाजपा-कांग्रेस जो पिछले बीस सालों से खेल, खेल रही है उसके लिए एक ही शब्द है इस नंगा नाच. प्रधानी का चुनाव हारने के बाद पुष्कर की कही यह बात जैसे राज्य बनने का पूरा सूत्र हो-
यह राज्य नेताओं ने अपने लिए ही बनाया है.
उपन्यास समाप्त होते-होते माओवाद के फर्जी केस, पंचेश्वर बांध, नैनीसार, गैरसैण में तम्बू में विधानसभा जैसे कई प्रकरण आते हैं. उत्तराखंड की राजनीति का वीभत्स स्वरूप देखकर राजनेताओं के प्रति सिवा घृणा के कुछ नहीं आता. उपन्यास का अंत पढ़कर रह-रहकर टिहरी से विक्रम की चिठ्ठी की आखिरी पंक्ति याद आती. चिट्ठी तो अबके ज़माने में कौन लिखेगा पर शायद अब कोई लिखेगा तो कहेगा-
गुस्सा आना बंद हो गया है भैजी. सिर्फ करुणा बची है. कभी उत्तराखंड का विलाप सुन जाओ
कुल मिलाकर ‘देवभूमि डेवलपर्स’ उपन्यास उत्तराखंड में पिछले चार दशकों के घटनाक्रम का एक मजबूत दस्तावेज लगता है. उपन्यास में राज्य बनने से पहले का हिस्सा जहां कुछ खींचा हुआ सा महसूस होता है तो वहीं आख़िरी हिस्सा पूरी रवानगी पकड़ता है. भाषाई पकड़ का कोई जवाब नहीं. उपन्यास की भाषा इस बात की नजीर तो पेश ही करती है कि बिना ठैरा और बल के इस्तेमाल के भी इस इलाके का सटल टोन लाजवाब तरीके से पकड़ा जा सकता है.
(Devbhoomi Developers Book Review)
–गिरीश लोहनी
देवभूमि डेवलपर्स उपन्यास यहां से खरीदें- देवभूमि डेवलपर्स
Support Kafal Tree
.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…
इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …
तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…
उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…